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लघुकथाएँ - देशान्तर - काजीमेज ओर्लोस
खुशी
लड़के की आँखों में एक सपना तैर रहा था। एक सुहावना सपना–
बाबा मैं सोचता हूँ मेरे पास खूब पैसा हो। तब मैं बहुत खुश रहूँगा।
लड़के की उम्र यही कोई दस बरस होगी। उसने एक मैला सा कमीज और पैंट पहन रखा था जो निहायत ही पुराना हो चुका था।
तुमे जिंदगी में वह सब कुछ मिलेगा जो तुम कमाओगे...इनसे....। और बूढ़े ने अपने बड़े–बड़े खुरदरे हाथ लड़के के आगे पसार दिए–पैसा तुम्हें खुशी नहीं दे पाएगा। तो क्या चाज दे पाएगी बाबा?
बूढ़े ने लड़के की ओर देखा। पर कहा कुछ नहीं, फिर कुछ सोचता हुआ बोला–तुम बहुत भोले हो मारूस! तुम एक दम अनजान हो। जर्मनों ने मुझे एक दीवार के साथ टांग कर रखा था और हफ्ता भर मैं जख्मी टांगों को बफर्ोीले रास्ते पर घिसटता रहा था। क्या वक्त था वह भी...! जंग,तूफान,खून....तुम खुशकिस्मत हो। तुम्हारी माँ है। बाप है...घर है...और कोई तुम्हारे मुँह पर नहीं थूकता।
वह चुप हो गया। लड़का भी खामोश रहा थोड़ी देर।
और बाबा....तुम जिंदगी में कभी खुश नहीं हुए? लड़के ने पूछा।
बूढ़ा जवाब देने से पूर्व क्षण भर सोचता रहा। फिर बोला। हाँ सन् बयालीस में। जब मुझे जर्मनी ले जाया जा रहा था। मैं चलती गाड़ी से कूद पड़ा था। सर्दी का मौसम था। चारों ओर बफर्ब जमी थी। मेरे हाथ छिल गए थे और चेहरा जख्मी हो गया था। घिसटते–घिसटते घर पहुँचने में एक हफ्ता लग गया था। और जब मैं वहाँ पहुँचा तो मेरे परिवार वाले मेरा इंतजार कर रहे थे। और ईश्वर से मंगलकामना भी। और तब मुझे खुशी हुई थी। शायद जिंदगी में पहली बार। लेकिन यही बहुत बड़ी बात थी...। क्या बड़ी बात थी बाबा?
जिंदा होना मारूस, जिंदा होना। और यह कहते–कहते बूढ़े का चेहरा सिकुडकर झुरी हो गया, और आँख से दो मोती टपक कर झुर्रियों में खो गए।
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