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लघुकथाएँ - देशान्तर - सुरजीत

फर्ज करंघी - छलांग और छलावा (अनुवाद–सुरजीत)

मैं आपको उस सिपाही के बारे में बताना चाहता हूँ, जिसने मुझे सोचने का बिल्कुल अवसर नहीं दिया। वह भलाई और बुराई के फरिश्तों की तरह चौक में खड़ा था। हुआ यह था कि मैं जल्दी में चली हुई ट्राम से कूद पड़ा था। संतुलन बिगड़ने के कारण मैं मुँह के बल गिरता, तभी किसी ने सहायता के रूप में मेरी बाँह अपनी कठोर मुट्ठी में पकड़ ली। मैंने अपनी आँखें खोलीं, तो देख, एक सिपाही मेरी बाँह थामे हुए है। उसने मुझ पर एक स्नेहपूर्ण दृष्टि डाली।उसकी आवाज में सहृदयता थी,‘घबराइए नहीं। आप बिल्कुल सुरक्षित हैं। मैं न पकड़ता, तो आप जख्मी हो जाते।’ मेरी आँखें सजल हो आईं, ‘क्या आप मुझे देख रहे थे? आप तो दया के फरिश्ते हैं। हम लोग व्यर्थ में आप लोगों को उद्दंड, अहंकारी और अभिमानी समझते हैं, हालाँकि आप लोग हमारी सहायता करते हैं।’
‘ठीक है श्रीमान....।’ मैंने गर्मजोशी से उसका हाथ देर तक दबाए रखा। फिर बोला, ‘आपका बहुत–बहुत धन्यवाद...मैं यह बात कभी नहीं भूलूँगा। मुझे आपका नंबर तक याद रहेगा। यह आज से मेरा लकी नंबर होगा....। आपका नाम?’
‘जीनसवार्गा...श्रीमान।’
‘अच्छा, ईश्वर आपको प्रसन्न रखे, जीनस वार्गा। मैं आपको कभी नहीं भूलूगाँ।’ कितनी अजीब बात थी। वह मेरा हाथ नहीं छोड़ रहा था,
‘एक मिनट–ठहरिए श्रीमान....अभी बात खत्म नहीं हुई। क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?’ उसने एक नोटबुक निकाली, ‘हाँ,श्रीमान...,पता....? आयु....,जन्मतिथि...श्रीमान्, आपका कोई शिनाख्ती निशान भी है?’
अच्छा, तो यह बात थी। क्या तुम मेरी रिपोर्ट करना चाहते हो?’ ‘तो आपका क्या विचार है? क्या आपके ख्याल में मैं आपसे यूँ ही मनोविनोद कर रहा था, इसलिए कि आप एक चलती ट्राम से छलांग लगाकर उतरे हैं?’
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