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लघुकथाएँ - देशान्तर - सुरजीत

खलील जिब्रान - राजदंड ( अनुवाद : सुकेश साहनी )

राजा ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘वास्तव में तुम रानी बनने लायक नहीं हो, तुम इस कदर अशिष्ट और भद्दी हो कि तुम्हें अपनी रानी कहते हुए शर्म आती है।’’
पत्नी ने कहा, ‘‘तुम राजा बने फिरते हो, लेकिन तुम बातें बनाने वाले घटिया आदमी के सिवा कुछ नहीं हो।’’
यह सुनकर राजा को गुस्सा आ गया और उसने अपना सोने का राजदंड रानी के माथे पर दे मारा।
उसी क्षण न्यायमंत्री ने वहाँ प्रवेश किया और बोला, ‘‘बहुत खूब, महाराज! इस राजदंड को देश के सबसे बड़े कारीगर ने बनाया था। ये कटु सत्य है कि एक दिन रानी और आपको भी लोग भूल जाएँगे, पर ये राजदंड सौंन्दर्य के प्रतीक के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी सम्हाल कर रखा जाएगा। महाराज, अब तो यह राजदंड और भी महत्त्वपूर्ण एवं राज की अमूल्य निधि कहलाएगा; क्योंकि आपने रानी के मस्तक के खून से इसका तिलक जो कर दिया है।
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