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विचारक कौयनर महाशय ज्यों ही एक बड़े हाल में काफी तादाद में इकट्ठा हुए लोगों के सामने ताकत के खिलाफ बोल रहे थे, उन्होंने देखा कि लोग पीछे हट कर माथा पकड़ने लगे है। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई और पाया कि उनके पीछे ताकत खड़ी है।
‘‘क्या बोल रहे थे तुम?’’,ताकत ने उनसे पूछा।
‘‘मैं ताकत के पक्ष में बोल रहा था’’, कौयनर महाशय ने जवाब दिया।
कौयनर महाशय जब वापस जा रहे थे, तब उनके चेलों ने उनकी रीढ़ की हड्डी के बाबत पूछा। कौयनर महाशय ने जवाब दिया, ‘‘मेरे पास तुड़वाने के लिए रीढ़ की हड्डी नहीं है। खासकर जब कि मुझे भी ताकत से ज्यादा अर्से तक जिंदा रहना है।’’ और फिर कौयनर महाशय ने यह कहानी सुनाई,
ऐगे महाशय के घर में, जिन्होंने सिर्फ़ एक शब्द ‘नहीं’ बोलना ही सीखा था, अंधेरगर्दी के जमाने में एक नुमायंदा आया। उसने एक फरमान दिखाया जिस पर उन तमाम लोगों के दस्तखत थे, जो कि शहर के हाकिम थे। फरमान में लिखा था कि इस आदमी के पैर जिस किसी घर में दाखिल होंगे, वह इसके कब्जे में होगा और वहां का हर किस्म का भोजन भी। अपनी इच्छा मुताबिक वह हर उस आदमी को अपनी सेवा के लिए चुन सकता है, जिस पर उसकी नजर पड़े।
नुमायन्दा एक कुर्सी पर बैठा, भोजन छका, कुल्ला किया, नीचे पसरा और चेहरा दीवार पर सटा कर नींद की मौज में आने से पहले सवाल किया, ‘‘क्या तुम मेरी खातिरदारी करोगे?’’
ऐगे महाशय ने उसे एक लिहाफ ओढ़ाया, मक्खियाँ उड़ाई, उसकी नींद की चौंकसी की और उस दिन की तरह लगातार यह क्रम सात साल तक दोहराया। लेकिन इस दौरान उन्होंने जो कुछ भी उसके लिए किया, यह एहतियात बरता कि एक भी शब्द मुँह से न निकले। जब सात साल गुजर चुके और नुमायंदा बेहद खाते–पीते–सोते और हुक्म देते–देते मुटा गया तो एक दिन वह मर गया। ऐगे महाशय ने तब उसकी लाश चीथड़ों में लपेटी और घसीट कर घर से बाहर फेंक दी। वह खाट जिस पर वह सोता था, साफ की, दीवारों पर सफेदी पोती और एक गहरी साँस छोड़ते हुए जवाब दिया,‘‘नहीं’’।
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