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गुब्बारा

गली में गुब्बारेवाला रोज गुजरता। वह बाहर खड़े बच्चे को गुब्बारा पकड़ा देता और बच्चा माँ-बाप को दिखाता। फिर बच्चा खुद ही पैसे दे जाता था । इसी तरह एक दिन मेरी बेटी से हुआ। मैं उठकर बाहर गया और गुब्बारे का एक रुपया दे आया। दूसरे दिन फिर बेटी ने वैसा ही किया। मैंने कहा, "बेटे, क्या करना है गुब्बारा? रहने दो न!" पर कहाँ मानती थी, रूपया ले ही गई। तीसरे दिन जब रुपया दिया तो लगा कि भई रोज-रोज तो यह काम ठीक नहीं। एक रुपया रोज महज दस मिनट के लिए। अभी फट जाएगा।
मैंने आराम से बैठकर बेटी को समझाया,"बेटे! गुब्बारा कोई खाने की चीज है? नहीं न! एक मिनट में ही फट जाता है। गुब्बारा अच्छा नहीं होता। अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते। हम बाजार से कोई अच्छी चीज लेकर आएँगे।"
वह सिर हिलाती रही।
अगले दिन जब गुब्बारेवाले की आवाज गली में आई तो बेटी बाहर न निकली और मेरी तरफ देखकर कहने लगी, "गुब्बारा अच्छा नहीं होता न। भैया रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊँ कि वह चला जाए।"
"वह आप ही चला जाएगा।" मैंने कहा। वह बैठ गई।
उससे अगले दिन गुब्बारेवाले की आवाज सुनकर वह बाहर जाने लगी तो मुझे देख कहा, "मैं गुब्बारा नहीं लूँगी" और जब वह वापस आई तो फिर कहा, "अच्छे बच्चे गुब्बारे नहीं लेते न? राजू तो अच्छा बच्चा नहीं है। गुब्बारा तो एक मिनट में फट जाता है।" और कहती हुई मम्मी के पास रसोई में चली गई और मम्मी से कहने लगी, "मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो न!"


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