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सच-झूठ

सुरेन्द्र सर्वेक्षण में लगी अपनी ड्यूटी करता हुआ, एक घर से दूसरे घर जा रहा था।
एक घर में उसे दो सदस्य मिले, बाप-बेटा।
उसने एक फार्म निकाला और अपने ढंग से भरने लगा। घर के मुखिया का नाम,पता,काम लिखने के बाद, पूछना शुरू किया-
"आटा कितना लग जाता होगा?"
"जितना मर्ज़ी लिख लो जनाब ! "
"फिर भी, बीस-पच्चीस किलो तो लग ही जाता होगा? "
"हाँ जी।"
"दालें कितनी खा लेते हो? "
"आप समझदार हो, लिख लो खुद ही।"
"पाँच-छह किलो तो खा लेते होंगे? "
"क्यों नहीं, क्यूँ नहीं।"
"घी? "
"खाते हैं जी।"
"वह तो परमात्मा की कृपा से खाते ही होंगे। कितना शुद्ध और दूसरा कितना? "
"देसी घी? वह तो आपने याद दिला दिया। दिल तो बहुत करता है।" उसके चेहरे पर जरा-सी उदासी आ गई।
"मीट-अण्डों का सेवन….?"
"परमात्मा का नाम लेते हैं जी, पर जी में बहुत आता है।" कहते हुए उसने एक गहरी साँस ली।
इसी तरह दो सौ साठ प्रश्नों वाला फार्म, सुरेन्द्र ने एक-एक करके भरा। पूरी बात हो जाने पर, सुरेन्द्र ने फार्म से अंदाजा लगाया और पूछा, "बाकी तो सब ठीक है, पर जो आपने बताया है, उससे अनुमान होता है कि आप कुछ ज्यादा नहीं बता पाए।"
इस बार बेटे ने जवाब दिया, "दरअसल सही बात बताएँ, हम घर में रोटी बनाते ही नहीं। हम बाप-बेटे दो आदमी यहाँ रहते हैं। बाकी तो गाँव में हैं। हमने एक होटलवाले से बात तय कर रखी है। दाल-रोटी सुबह,यूँ ही शाम को।"
सुरेन्द्र दोनों की तरफ टिकटिकी बाँधे देखता रहा…घंटा पौन लगाया फार्म भरने में और निकला..
"भई! ये क्या किया आपने….?"
"किया क्या बेटा ! पहले तो मुझे लगा कि मैं यह क्या बता रहा हूँ। फिर ज्यों-ज्यों तू पूछता रहा, मेरा मन किया कि तुझसे बातें जरूर करूँ।"
"पर आपने झूठ क्यों बोला?"
"झूठ कहाँ बोला बेटा। यह तो सब सच है। झूठ तो बेटा यह है जो हम अब गुजर कर रहे हैं।"


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