सात वर्षीय पुत्र अचानक ही मेरे पास आया और मेरे गले में अपनी बांहें डालते हुए बोला, ‘‘पापा, ये इमरान के पापा जैसे ‘अल्ला हो अकबर’ बोलते हैं, वैसे ही क्या हमें भी बोलना चाहिए?’’
भोलेपन से पूछा गया उसका गूढ़ प्रश्न सुनकर मेरे दिल में कई देवी–देवताओं के नाम आए, पर जल्दबाजी में बालक के कोरे कागज सरीखे दिल पर मैं कोई भी ऐसी बात नहीं लिखना चाहता था, जो आगे चलकर उसे दिग्भ्रमित करे।
मैं उसे मकान के आंगन में ले गया और उससे पूछा, ‘‘बेटे, इस मकान की छत पर जाने के लिए कितने रास्ते हैं?’’
उसने अपने ज्ञान के अनुसार चारों कोनों में बने चारों जीने और पास में दीवार से टिकी रखी एक बांस की सीढ़ी की ओर देखा, फिर ताली बजाते हुए उछलने लगा, ‘‘समझ गया पापा, मैं समझ गया।’’