चित्रा मुद्गल
मैं तो अभिभूत हूँ और बधाई देती हूँ किताबघर परिवार को, जिसने पहली बार यह परिकल्पना की कि लघुकथा एक सशक्त विधा है और इसकी पहचान के लिए जरूरी है कि इसको उस जगह लाकर बिठाया जाए, जिस जगह की यह अधिकारिणी है। चैतन्य की रचनाएँ बहुत पहले पढ़ी थीं। उस वक्त इसका अंदाजा भी नहीं था कि कविताएँ लिखनेवाला चैतन्य लघुकथाएँ भी लिखता है। चैतन्य का लघुकथा–संग्रह ‘उल्लास’ अत्यंत सम्पुष्ट और हस्तक्षेपी लघुकथा–संग्रह है। अचरज होता है मुझे कि इतने छोटे–से कलेवर की जो समाई है, उस समाई का दोहन चैतन्य ने जिस तरह से किया है, वह सचमुच अद्भुत है। व्यवस्था की वे चूलें, जो जर्जर हो चुकी हैं, राजनीति जो कि एक ऐसे कुचक्र का नाम हो चुकी है, जहाँ से आज आम आदमी को न्याय मिलने की कोई संभावना दूर–दूर तक दिखाई नहीं देती। चाहे स्त्री उत्पीड़न हो, चाहे दलित असमानता हो या मनुष्य से मनुष्यत्व की उपेक्षा या उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव या व्यक्तिवादी होते चले जा रहे रवैये में अपने ही घर में अपनों के लिए कोई जगह नहीं। न जाने कितने जीवन आयामों की परतें खोल–खोल करके ये लघुकथाएं हमारे सामने रख देती हैं। वह चाहे ‘दास साहब और उनका कुत्ता ’हो, चाहे ‘जंगल के जवाब’,‘पवित्र नदी का सच’ या ‘खून पीने के कायदे’ हो या ‘भंवरी देवी से एक जिरह’....कितनी लघुकथाओं के नाम गिनाऊँ, आज भी वह हमारे वहीं के वहीं खड़े होने की स्थिति को हथौड़ा मार–मारकर चुनौती देती महसूस होती हैं और पूछती–सी लगती है कि इस जड़ता से मुक्ति आखिर कब होगी? फिर प्रजातंत्र के नाम पर यह जो जड़तंत्र हमारी रगों में बहने लगा है और हम जो आज बिलकुल निरपेक्ष होकर बैठे हुए हैं....हम अपनी उस ताकत को खो बैठे हैं, जो अगर संगठित हो जाए तो वक्त नहीं लगेगा चीजों के नक्शे बदल देने में। ये ऐसी चिकोटियाँ हैं,जो हमें रात को सोने नहीं देतीं और उस पर भी एक गजब की बात मुझे यह लगी कि चैतन्य का जो कवि है, उस कवि की जो अपनी मुखरता है,उस मुखरता में से ये लघुकथाएं जन्मी हैं, एक ऐसी संवेदना है, जो आपको कहीं भीतर से हिलाती है। सोचने के लिए विवश करती है। इसमें गद्य का वह खुरदरापन भी हैं, जटिलता भी है, जो कहीं आपको खुरदुरे सत्यों के करीब ले जाकर खड़ा कर देती है। कमलेश्वर
मुझे लगता है कि लघुकथा पर बहुत ही लघु बात करनी चाहिए। ज्यादा बड़ी बातें लघुकथा पर जरूरी नहीं है। खास तौर से इसलिए कि जिस तरह की आज स्थितियाँ हैं, जिस तरह के हालात हैं। उन हालात में जितना समय है आपके पास....और उस समय के साथ–साथ साहित्य की जितनी प्रतीति है आपके पास, उसको देखते हुए जरूरत इसी बात की है कि लघु को लघुतर बनाया जाए। मुझे नहीं लगता कि लघुकथा के साथ लघु लगाने की भी जरूरत है, उसे भी छोटा कर देना चाहिए, क्योंकि हम जैसे हिंदी के कहानीकारों ने कहानी को समेट लिया है। कहानी शब्द छोड़ते ही नहीं। हर जगह कहानी–कहानी.....तो आप केवल इसे कथा कहिए, कथा–कहानी, उसी में लघुकथा भी शामिल हो जाएगी। बहरहाल, मध्य प्रदेश के पास एक बड़ी पुष्ट परंपरा है, शब्दों के साथ अर्थों की प्रतीति पैदा करने की। वह चाहे हरिशंकर परसाई हों, चाहे शरद जोशी हों या अन्य तमाम लेखक हों। मुझे लगा कि वहाँ अनवरत रूप से अर्थ और समय और उस समय के यथार्थ को संक्षिप्ततम रूप से कह देने की जो कला विकसित हुई, निश्चित रूप से वो बहुत बड़ी कला है, वह व्यंग्य की भी है, विद्रोह की भी है और कथा की भी है, जो कि एक लघुकथा के रूप में में सामने आती है। चैतन्य त्रिवेदी ने भी निश्चित रूप से उसी विधा को उसी रूप में लिखने की कोशिश की है। मुझे लगता है कि ‘उल्लास’ के पीछे एक उदासी है, वह उदासी भी इनमें मौजूद हैं और यह उदासी हमारे आज के दौर में मौजूद है। आज इस अवसर पर मैं भी आपको एक कहानी सुनाता हूँ : सर्कस के खेल में घूमते हुए चक्के पर लेटी लड़की पर एक कलाकार छुरियाँ फेंकता है और उसको एक भी छुरी नहीं लगती, जबकि छुरी फेंकनेवाले कलाकार की आँखों पर पट्टी बंधी है। और जब यह खेल खत्म होता है तो बहुत तालियाँ बजती हैं। चक्र के ऊपर बड़ी खूबसूरत–सी जो महिला आती थी, वह उसी छुरियाँ फेंकनेवाले की पत्नी थी। एक रोज उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी उसके लिए फेथफुल नहीं रह गई। वह बेवफा औरत है। उसके मित्र ने कहा कि जब कल खेल करना, जब तमाशा हो तो एक छुरी गलत फेंक देना, जो उसके कलेजे को पार कर जाएगी और तुम्हें अपना बदला मिल जाएगा। दूसरे दिन खेल शुरू हुआ। फिर चक्र उसी तरह चला। फिर वही खूबसूरत महिला–उसकी पत्नी उसी तरह आई । फिर उसकी आँखों पर पट्टी बाँधी गई और बीस छुरियाँ फिर उसने फेंकीं, लेकिन एक भी छुरी उसके शरीर के किसी रोएँ तक से नहीं टकराई। फिर वह खेल उसी तरह चलता रहा....वह मार नहीं पाया अपनी पत्नी को। बदला नहीं ले पाया। तब उसके दोस्त ने पूछा कि यह वजह क्या है? तो वह कहने लगा कि क्या करूँ दोस्त, यह मेरे हाथों में छुरी फेंकने की जो कला है, उसको थोड़ी–सी जुंबिश दे दूँ तो गलत छुरी चल जाएगी और मैं पत्नी की जान ले सकता हूँ। लेकिन क्या करूँ? मेरी इन अंगुलियों में जो एक छोटा–सा हुनर है, वह हुनर, इस छुरी को मनुष्य के विरुद्ध या पत्नी के विरुद्ध या एक आदमी के विरुद्ध नहीं चलने दे रहा....
राजेन्द्रयादव
आप शायद जानते ही हैं कि पुरस्कारों को लेकर मेरे मन में एक खास तरह की अरुचि है। उसके जहाँ और भी कारण हैं, वहाँ एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि पुरस्कार उन लोगों को दिए जाते हैं, जो अपना सारा संघर्ष, सारी लेखन–यात्रा और प्रतिभा लगभग समाप्त करके एक सिरे पर आ चुके होते हैं। उनको नहीं दिए जाते, जो लेखन के संघर्ष में या लेखन के दौरान, जिनको सहायता की जरूरत है, सहयोग की जरूरत है या कहना चाहिए कि सद्भावना की जरूरत हैं मुझे पुरस्कार हमेशा ऐसे ही लगते हैं जैसे एक आदमी तूफानी नदी पार करके किसी तरह से जीता–मरता किनारे पर आ जाए और तब उसके लिए रस्सी फेंकी जाए बचाने के लिए। लेकिन इस पुरस्कार या इस सम्मान के लिए वह चीज है, जो सचमुच लेखन कर्म में कहीं कोई सहयोग देती है, कंट्रीब्यूट करती है लेखक को। प्रोत्साहन खराब शब्द है, लेकिन किसी न किसी रूप में उसके भीतर एक आश्वासन या आत्मविश्वास पैदा करती है। इस दृष्टि से मैं समझता हूँ कि सत्यव्रत इस आर्य सम्मान के जरिए एक बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। बहुत जरूरी काम कर रहे हैं। और पुरस्कारों की जो भीड़ है ; उससे यह अलग है। इसी अर्थ में अलग है, वरना जो हालत है, वह तो आप जानते ही हैं। अकसर इस तरह के सम्मान या पुरस्कार , पुरस्कार पानेवाले व्यक्ति के मुकाबले इस बात से ज्यादा लिहाज से दिया जानेवाला यह सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है। आपको शायद याद होगा, दस–ग्यारह वर्ष पहले एक किताब आई थी ‘स्माल इज़ ब्यूटीफुल’। उस किताब ने एक खास तरह की हलचल पैदा की थी। बड़ी–बड़ी घटनाएँ, बड़ी–बड़ी विचारधाराओं के बीच वह छोटी–छोटी विचारधाराएँ किस तरह सामने आती हैं। छोटी–छोटी बातें किस तरह हमारे जीवन को बदलती हैं, पूरे वातावरण को बदलती हैं और किस तरह हमारी सोच को एक दिशा देती हैं। यह उस किताब के जरिए बताया गया था। यह वही मानसिकता थी, यह वही उभार था, जो हाशिए पर पड़े हुए छोटे–छोटे इतिहासों को लेकर बड़े इतिहासों के समानांतर रखा जाता है। उस अर्थ में यह कहानियाँ –लघुकहानियाँ, जो अभी तक सिर्फ़ हाशियों पर डाली जाकर, फिलर की तरह रखी जाती थीं, बॉक्स की तरह रखी जाती थीं, अब धीरे–धीरे अपना व्यक्तित्व ग्रहण कर रही हैं, जिसमें चैतन्य की लघुकहानियाँ, मैं समझता हूँ कि बहुत महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं। यह छोटी कहानियाँ हैं, ....हम जो कहते हैं कि कहानी आदि विधा है....जब हम आदि विधा कहते हैं तो कहानी का जो रूप हमारे सामने आता है, वह यही आदि विधा है, जिसे हम लघुकथा कहते हैं। हमारा बीसवीं सदी का जो साहित्य है, कहानी को लें या कविता को लें या उपन्यास को लें, वह साहित्य भारतीय साहित्य नहीं है। वह साहित्य हमने पश्चिम से लिया है। वे विधाएँ, वह सेंसिबिलिटी, वह सारा लिखने का तरीका पश्चिम से लिया है। आज केदारनाथ सिंह या किसी और की कविता को पढ़ने के लिए, समझने के लिए आपको सूर, बिहारी, तुलसी मदद नहीं कर सकते। इसके लिए पश्चिमी सेंसिबिलिटी या कहना चाहिए कि रोमांटिक कविता या बाद की कविता की जानकारी और पूरी पृष्ठभूमि या मानसिकता जानना जरूरी है। तब आप आज की कविता को समझ सकते हैं । यही बात कहानी की है। कहानी पुरानी जितनी, जिस भी तरह कही जाती रही हो, हम लोग कहते हैं कि सब पुरानी आदिकाल से है और हमारे यहाँ इस तरह की कहानियाँ....। वे दुनिया–भर की कहानियों का किस्सा बयान करते हैं, लेकिन जब कहानी की बात करते हैं तो एकदम धारा पलट देते हैं और कहते हैं कि पश्चिम या कहना चाहिए कि पश्चिम की परंपरा के साथ जोड़कर हम कहानी की बात समझ पाते हैं। अपनी परंपरा से नहीं समझ पाते। उसका सिर्फ़ जिक्र किया जाता है। यही उपन्यास के साथ है।
और मुझे यह सबसे बड़ी चीज़ लगी लघुकथाओं में कि लघुकथाए सिर्फ़ लघुकथाएँ ही नहीं हैं, वह जैसे जब लघु मानव धीरे–धीरे सामने आया और उसने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, इसी तरह लघुकथाओं ने भी कहानी की दिशा में नई तरह की सोच की शुरूआत की। मुझे ऐसा भी लगता है कि लघुकथा और नाटक ये दो विधाएँ ऐसी हैं, जिन्हें हम परंपरागत रूप से निर्बाध पाते हुए देखते हैं, वरना जैसा कि मैंने कहा, बीसवीं शताब्दी में सारी परंपराएँ बिलकुल टूट जाती हैं। यह परंपरा आदिकाल से...वेदों से लेकर आज तक की लघुकथाओं में हम देख सकते हैं यानी ‘हितोपदेश’ ओर ये सारे जो हमारे यहाँ पंचतंत्र और दुनिया–भर के हैं...या इन लघुकथाओं की आदि विधा के रूप में अगर मुल्ला नसरुद्दीन हैं....। इस तरह के जैसे भी हैं, जो छोटी–छोटी कहानियाँ कहते थे, कभी उपदेश के लिए और कभी बताने में फैंटेसी के रूप में...कभी फेयरी टेल्स की तरह, कभी....। यह रूप अभी तक इन कथाओं में बना हुआ है। उनका कथ्य बदल गया है। कहने का तरीका बदल गया है, लेकिन परंपरा के साथ जुड़नेवाली विधाएँ मुझे नाटक और लघुकथा ही लगती हैं....और उसे लघुकथा कहने की बजाय मैं समझता हूँ कि बीजकथा कहना चाहिए। लघुकथा कहने से शार्ट स्टोरी....बहुत कंफ्यूजन हो जाता है कि कौन–सी शार्ट स्टोरी है। इसे शार्ट स्टोरी कहें, क्या कहें? हिंदी में मुझे लगता है कि इसको बीजकथा कहा जाए तो बहुत अच्छा है। यह ज्यादा सार्थक शब्द होगा। ये बीजकथाएँ हैं। बीजकथाओं में दोनों बातें होती हैं। बीजकथा, कहानी का बीज भी है, जिसको विकसित किया जा सकता है और वह बड़ी कहानी का संक्षिप्त या बीज रूप भी है, जिससे सारी ऊपर की चीजें छाँटकर आप मूल कथा तक पहुँच सकते हैं। इस अर्थ में गंभीर रूप में मैं समझता हूँ कि प्रयास बहुत कम हुए हैं। जो दो–तीन नाम हमें याद आते हैं इस मामले में....पुरानी कहानियों को छोड़ दीजिए तो सबसे बड़ा नाम खलील जिब्रान का है, जिसने लघुकथा को एक खास किस्म का सम्मान और प्रतिष्ठा दी। हिंदी में सि्र्फ़ लघुकथा लिखने वाले प्रतिष्ठित लेखक मुझे नहीं मिलते। हम सबने लिखी हैं। विष्णु प्रभाकर ने भी लिखी हैं, लेकिन सिर्फ़ लघुकथाएं लिखने वाले लेखक बहुत नहीं हैं। इस तरह लघुकथा को प्रतिष्ठा देनेवाला कोई लेखक मुझे दिखाई नहीं देता। दो लेखकों का ध्यान मुझे आता है। एक बांग्ला के बनफूल, जिन्होंने सिर्फ़ लघुकथाएं लिखीं और दूसरे परशुराम। बाकी हम लोगों ने सिर्फ़ बाइ–द–वे मन में एक आइडिया आ गया....टाइम नहीं है.....कुछ लिखना है, इसलिए हम लिखते रहे। हमने सीरियसली खुद नहीं लिया। लघुकथाओं को जिन लोगों ने गंभीरता से लिया, मुझे ध्यान नहीं आ रहा, पर शुरू में जैसे रवींद्रनाथ ने लिखी थीं, जैसे तोल्स्तोय की थीं। हिंदी में अगर ध्यान करने की कोशिश करूँ तो तीन–चार नाम ही सामने आते हैं। एक सज्जन थे ब्रजलाल बियाणी। उन्होंने बहुत अच्छी लघुकथाएँ लिखीं। एक और नाम है कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’। उन्होंने बहत अच्छी लघुकथाएँ लिखीं। उस जमाने में एक तरह से गद्य–काव्य के आसपास की चीज थी यह तो इस तरह लघुकथा मेरा खयाल है कि कविता भी और कहानी भी, दोनों है, जो कभी कविता की धारा को छूती है और कभी कहानी की धारा को छूती है या कहानी का किनारा छूती है। लघुकथाएँ छोटी–छोटी....व्यंग्य वाक्यों को लेकर, विट को लेकर,....सौ–सवा सौ लघुकथाएँ हर महीने आती हैं और उनमें कहीं कोई गहराई, कहीं कोई छूनेवाली बात नहीं होती। यह बात थोड़ी–सी परेशान करनेवाली है कि सौ लघुकथाएँ आपको हर महीने मिलें और उनमें आप एक या दो बड़ी मुश्किल से चुन सकें। ऐसा इसलिए है, क्योंकि एक फॉमूर्ला बन गया है, एक अंतर्विरोध : नाम दयानंद है, जो बड़े क्रूर हैं। राजनेता आदि भ्रष्टाचारी हैं...यानी इस तरह के बड़े दो–तीन फॉर्मूले बन गए हैं। वह जो अन्वेषण की कृति होती है, कला के साथ जुड़ी होती है, वह मेरा खयाल है कि बहुत कम लोगों में है। इनको संकलित करने और सामने लाने के प्रयास जरूर हुए हैं और उनसे लघुकथा का आइडिया मिल रहा है। सुकेश साहनी बहुत अच्छी लघुकथाएँ लिखते हैं। बलराम ने पूरा विश्वलघुकथा कोश तैयार कर दिया है। इस तरह उनके रूप तो सामने बहुत आए हैं, लेकिन गंभीरता से लेखकों ने लघुकथा विधा को लिया हो, ऐसा अभी तक हुआ नहीं है। उम्मीद करूँगा चैतन्य से कि वे लघुकथा में ही महारत हासिल करें, क्योंकि यह क्षेत्र एकदम खुला हुआ है। एकदम खाली है। संयोग है कि यह भी मध्य प्रदेश से ही हैं, क्योंकि व्यंग्य भी लघुकथाओं का एक बहुत जरूरी हिस्सा है.....इस बीज–कथा को, हालांकि बड़ा मुश्किल है नाम को बदलना, ‘नई कहानी’ पता नहीं किस तरह से शब्द बन गया और वही चल रहा है, जबकि उसे लाख बदलने की कोशिश की। उसके साथ आगे–पीछे के विशेषण लगाए, सब कुछ किया, लेकिन नई कहानी, नई कहानी हो गई। इसी तरह से लघुकथा शब्द या नाम अब छूटना बड़ा मुश्किल है। चैतन्य ने इस दिशा में कुछ बहुत अच्छी चीजें लिखी हैं। इसी या उसी गंभीरता से ये लें, जैसा परशुराम ने लिया, जैसा बनफूल ने लिया या जैसा खलील जिब्रान ने लिया तो हिंदी की एक उपेक्षित विधा को केंद्र में लाने का बहुत बड़ा काम करेंगे।
विष्णु प्रभाकर
लघुकथा के बारे में इतना कुछ कह दिया गया है कि लघु नहीं रह गया और मेरे पास उससे ज्यादा कहने के कुछ है नहीं। मेरा काम इतना ही था कि पुरस्कार दूँ। वह दे दिया गया। लघुकथा पर इतनी चर्चा हुई...मैं तो पुराने युग का, पुराने जमाने का आदमी हूँ। मैंने 1939–40 से लघुकथाएँ लिखी हैं। तब वह दार्शनिक अंदाज की भी थीं, साधारण भी थीं। मेरा एक लघुकथा–संग्रह, उसकी समीक्षा करते हुए ‘सारिका’ में एक समीक्षक ने लिखा था कि रचनाएँ बड़ी सुंदर हैं। कुछ तो बहुत ही सुंदर हैं, लेकिन ये लघुकथाएँ नहीं हैं। थीं सब लघु....लेकिन फिर जो उन्होंने लघु की व्याख्या की, वह यह कि भाषा कैसी होनी चाहिए। वह सब मैं नहीं कहूँगा। हाँ, एक बात उन्होंने कही कि जो बात लघुकथा में कही गई है, उसी के आधार पर कोई बड़ी कहानी न लिखी जा सके, वह लघुकथा है। खैर, हम जब लिखने लगे थे तो हमारे सामने उसकी कोई व्याख्या थी नहीं। मुझसे पहले भी लघुकथा लिखने वाले थे। मेरे समकालीन, अग्रज भी। चतुरसेन शास्त्री लिखते थे, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने तो बहुत ही लिखी हैं। उनके कई संग्रह हैं। मुझे याद हैं बहुत सारी। सुनाई जा सकती हैं। जैसे मैंने एक लिखी थी : एक लेखक थे। वह लिख रहे थे अपने कमरे में बैठे हुए। पास में पत्नी बैठी हुई थी। वह पढ़ रही थी। अचानक घड़ी की ओर देखा : बारह बज रहे थे। पत्नी ने सोचा, खाने का वक्त हो गया है। चलो, रसोई में चलते हैं। रसोई की ओर बढ़ी, लेकिन फिर एक खयाल आया। मुड़ी और पति से बोली, ‘‘सुनिए जी, मैं खाना पकाने जा रही हूँ। बताइए, आपके लिए क्या बनाऊँ?’’ पति ने एकदम झुंझलाकर जवाब दिया, ‘‘तुम्हें मेरे साथ रहते हुए तीस साल हो गए। तुम इतना भी नहीं जान पाई कि मुझे क्या पसंद है!’’ तो पत्नी एकदम से बोली,‘‘आपको कलम घिसते हुए चालीस साल हो गए हैं, लेकिन आप इतना भी नहीं जान पाए कि पूछने का भी एक सुख होता है!’’
.....तो यह ठीक है। बड़ी अच्छी रचना है, लेकिन लघुकथा नहीं है। अब पता नहीं, लघुकथा क्या होती है, उसकी डेफिनिशन मैं किसमें ढूँढूँ। चैतन्य की कथाओं के बारे में मैं क्या कहूँ? सोचा था कि मैं भी एक लघुकथा सुनाऊँगा। फ्लैग लगाने लगा तो देखिए, सारी कहानियों पर फ्लैग लगा हुआ है। अब कौन–सी सुनाऊँ? मुझे सारी कहानियाँ ठीक लगीं....उदाहरण के तौर पर बताने के लिए....तो वे बात दी गई हैं। फिर भी, मैं अपनी तो नहीं सुनाऊँगा, लेकिन...लघुकथा के जो प्रसिद्ध दार्शनिक खलील जिब्रान हुए हैं, उन्होंने बहुत लघुकथाएँ लिखी हैं। उनकी कुछ लघुकथाओं को देखकर लोग आजकल कह सकते हैं कि कुछ नहीं, चुटकुले हैं....वगैरह। जैसे : चांदनी रात थी। चारों ओर धवल ज्योत्स्ना बिखरी हुई थी। अचानक शााम को एक गली से कुछ कुत्ते आए और उन्होंने देखा चांदनी को। चाँद को देखा और जैसा कि उनकी आदत थी, भौंकना शुरू कर दिया। भौंकते रहे....तो एक बुद्धिमान कुत्ता भी था। पीछे गली से आ रहा था। बोला, ‘‘कैसे मूर्ख हैं, भौंक रहे हैं।’’ पास आकर उनसे कहा, ‘‘तुम बड़े मूर्ख हो। कैसी सुंदर धवल ज्योत्स्ना बिखरी हुई है। कैसी शांति है और तुम भौंक–भौंककर उसे भंग कर रहे हो।’’ यह सुनकर वे कुत्ते तो चुप होने लगे, लेकिन यह बात दूसरों से कहने के लिए वह बुद्धिमान कुत्ता सारी रात भौंकता रहा। तो जिब्रान की लघुकथाएँ इस तरह की हैं। इन कथाओं को आप क्या कहेंगे कि एक वाक्चातुर्य है या इसमें व्यंग्य है, यह आज की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, लेकिन परंपरा होती है। परंपरा तो जब शुरू होती है, वह विकसित होती चली जाती है। नए–नए विचार आते हैं। भाषा भी बनती है। देखिए, बाबू हरिश्चन्द्र ने लिखा कि खड़ी बोली में कविता नहीं हो सकती। चुनौती दे दी उन्होंने। तो अब उस वक्त.....उसके बाद मैथिलीशरण गुप्त और श्रीधर पाठक जैसे दो ऐसे कवि थे, जिन्होंने कहा, कैसे नहीं हो सकती और उन्होंने खड़ी बोली में कविता करने का प्रयत्न किया। उनका प्रयत्न सफल रहा, लेकिन आज हम मैथिलीशरण गुप्त को कवि नहीं मानते? लेकिन वह आदमी तो पहला था, जिसने खड़ी बोली में कविता की। श्रीधर पाठक ने भी कोशिश की और धीरे–धीरे वह कविता की भाषा सर्वेश्वर दयाल तक आ गई....और उसके बाद अब कहाँ पहुँच गई। तो यह तो निरंतर विकसित होता रहता है। हमेशा चीज विकसित होती है। मैंने अपनी जो लघुकथाएँ लिखी थीं 1939–40 में....और जो बाद में अब लिखीं, उनमें बड़ा अंतर है। भाषा का भी, भाव का भी। सब अंतर आता–जाता है, लेकिन सही अंतर अब देखिए न! विकसित होते–होते.....चैतन्य की इस पुस्तक में अब कैसी गहरी दार्शनिकता भाव–भंगिमाओं के साथ आई है। इसमें पुराने प्रतीक भी आ गए। पुराणकथाएँ.....युधिष्ठिर भी हैं। युधिष्ठिर का यक्ष भी है। रानी रूपमती भी आती है। और हर लघुकथा, जैसा मैंने कहा कि एक लघुकथा पर निशान लगा लिया तो सारी किताब में निशान ही लगाता रहा।.....इससे पता लगता है कि इन लघुकथाओं का क्या मूल्य है। तो आज जो विकसित होती हुई लघुकथा यहाँ पहुँच गई है, चैतन्य तक और इससे भी आगे बढ़ेगी। मेरी लघुकथाएँ ठीक है। वह कैसी चीज थी, कोई बात नहीं है, कैसी भी हो, लेकिन हम उस क्रम में तो थे। तो क्रम बढ़ते–बढ़ते आज कहाँ पहुँच गया और आगे कहाँ पहुँचेगा। यह निरंतर प्रवाह आगे बढ़ते रहना, सबसे बड़ी खूबी यही है। कौन अच्छा लिखता है, कौन बुरा लिखता है, इन सब बातों को एक क्षण के लिए भूल जाएँ और यही ध्यान रखें कि जो व्यवस्था है, उसके साथ लघुकथा उस जमाने की....उसके पहले वैदिक पीरियड में भी आपको दृष्टांत के रूप में मिलेगी। पहले जो दृष्टांत दिए जाते थे उदाहरण के तौर पर.....वहीं से ही लघुकथा....तो कहते हैं कि वे लघुकथाएँ नहीं थीं, ठीक है, वे नहीं थीं लघुकथाएँ। निश्चय ही नहीं थीं, लेकिन लघुकथा का बीज था न उनमें। छापने के साथ पुरस्कार देने का यह एक सार्थक प्रयत्न है। सत्यव्रत को बधाई देता हूँ। उसके बाद हमारे लिए आज जो बड़ी खुशी की बात है यह कि हिंदी साहित्य के सारे दिग्गज यहाँ मौजूद हैं। नई कहानी के पुरोधा देखिए दोनों वे (राजेंद्र यादव और कमलेश्वर) हैं,अजित हैं, चित्रा हैं। सारे ही आ गए हैं। मैं तो पुराने युग का आदमी, बीते युग का आदमी हूँ। तो कहाँ–कहाँ से इन्होंने इकट्ठा कर लिया सबको एक मंच पर। यह बड़ी खुशी की बात है और साहित्य में आगे बढ़ने का अब तो क्रम इसी तरह से चलता है कि हम पूर्ववर्ती लोगों को भी भूलें नहीं।
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