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दस्तावेज़- डॉ0 वेदप्रकाश अमिताभ

माधव नागदा की लघुकथाएं: डॉ0 वेदप्रकाश अमिताभ

समर्थ लघुकथा लेखक जानते हैं कि यदि संवेदना की अभिव्यक्ति किसी ‘मार्मिक क्षण’ के रूप में होतो लघुकथा का प्रभाव तीक्ष्ण होता है। किसी की मृत्यु, असहायता या बच्चे की दुधमुँही बातों को आधार बनाकर मार्मिक लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। माधव नागदा के लघुकथा–संग्रह ‘आग’ में भी इस तरह की कई लघुकथाएँ हैं। ‘तोहफा’, ‘मजाक नहीं’, ‘अपना–अपना आकाश’, ‘एहसास’, ‘माँग और महँगाई’, ‘आशंका’, अधूरे अरमान’ आदि लघुकथाएँ मन को क्षुब्ध और बेचैन करने में सक्षम हैं। समाज की विसंगतियाँ और विडंबनाएँ इन लघुकथाओं में मौजूद हैं और रचनाकार उन्हें लेकर खासा चिंतित है। मसलन ‘मजाक नहीं’ में एक युवती दहेज की विभीषिका का शिकार हुई है, जबकि ‘माँग और महँगाई’ में आर्थिक और वर्ग विषमता की समस्या है। संग्रह में कई कथाएँ भ्रष्ट तंत्र से संबद्ध हैं। पटवारी से लेकर पुलिस तक जनकल्याण बना रहना चाहता है तो बड़े अधिकारी उसे कोंच–कोंचकर भ्रष्ट बना देते हैं। ‘कदम–दर–कदम’, ‘मुस्तैदी’ तथा ‘मर्ज और दवा’ जैसी रचनाओं से ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ का जाप करनेवाली पुलिस का चरित्र सामने आता है। एक पुलिस इंस्पेक्टर नेताजी की गाड़ी का चालान कर्तव्य–पालन के लिए नहीं, बल्कि अपने साहब का ध्यान आकर्षित करने के लिए करता है ताकि ‘सर’ उसका स्थानांतरण किसी तरह अपने इलाके में कर दें। साहब ऐसा कर भी देते हैं और कहते हैं, ‘‘जाओ बेटा, अपनी मनपसंद जगह, मगर वहाँ जाकर हमें भूल मत जाना, समझे।’’ ‘मर्ज और दवा’ लघुकथा एक साथ तीनों–नेता, साहब और इंस्पेक्टर के चरित्र को अनावृत्त कर जाती है। माधव नागदा की अधिकतर लघुकथाएँ कई दिशाओं में धावा बोलती हैं।
‘नैतिक शिक्षा’, ‘आदर’,‘ट्यूशन’, ‘वे दिन’, शोक–सभा’ आदि में नागदा ने शिक्षा जगत् से संबंधित अनेक असंगतियों पर सार्थक चोट की हैं ट्यूशनखोर शिक्षक के पास स्वयं अपने बेटे को पढ़ाने का समय नहीं है (ट्यूशन), उद्दंड छात्रों से सम्मान प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उनके अनैतिक कार्यों को बर्दाश्त किया जाए (आदर), कोई भी अभिभावक शिक्षक को अपमानित करते हिचकिचाता नहीं है (वे दिन)। यदि कोई आदर्श शिक्षक नया कुछ करना चाहता है तो कई बार अभिभावक ही आड़े आ जाते हैं। ‘नैतिक शिक्षा’ में जब विद्यार्थी शिक्षक द्वारा पढ़ाए गए ईमानदारी के पाठ को व्यवहार में लाते हैं तो उनके पिता विरोध में खड़े हो जाते हैं। प्रधानाध्यापक का सोचना सही है कि प्रोजेक्ट उलटा ले लिया : ‘शुरूआत अभिभावकों से होनी चाहिए , न कि छात्रों से।’ ‘शोक–सभा’ में हेडमास्टर साहब की भैंस मर जाने पर स्कूल में शोक–सभा हो जाती है। लघुकथा का अंतिम वाक्य ‘शोक–सभा बड़े हर्ष के साथ विसर्जित हो गई’ बहुत कुछ कह जाता है। शिक्षा जगत् की लघुकथाओं में ‘रूपला कहाँ जाए’ सबसे मार्मिक है। बिना समुचित सुविधा जुटाए केवल स्कूल भेजने मात्र से दलितों के बच्चे शिक्षित नहीं हो सकते। कंधे पर एक गधे का बोझ, दिमाग पर अंग्रेजी और गणित का भूत तथा सुबह–शाम घर का काम, ऐसे में रूपला को उपहास और उपेक्षा का पात्र तो बनना ही था।
संग्रह की सर्वोत्तम लघुकथाएँ वे हैं, जिनमें संवेदना की तरलता के साथ विचार की सघनता भी संश्लिष्ट है। ‘आग’, ‘वह चली क्यों गई’, ‘तोहफा’,‘ किराए का मकान’, ‘धरती के बेटे’, ‘एहसास’, ‘साहसी’, ‘अर्थसिद्धि’, ‘दानी’,‘अनमोल’,‘नाम’, ‘जरूरत’,‘अधूरे अरमान’, ‘रूपला कहाँ जाए’, ‘शिखर’, ‘गुण ग्राहक’ आदि लघुकथाओं के लिए यह संग्रह विशेष रूप से याद किया जाएगा। ‘आग’ सांप्रदायिकता की आग है और इससे जलनेवाले बाद में समझ जाते हैं कि हमने आग बुझाने के बजाए उसे हवा देने की हिमाकत क्यों की? कई लघुकथाओं की सकारात्मक दृष्टि आश्वस्त करती है कि विसंगतियों को रेखांकित कर देना भर माधव नागदा का उद्देश्य नहीं है। ‘किराए का मकान’ में मकान छोड़ते समय पिता पौधों को पानी से सींचते हैं तो गमलों को तहस–नहस करनेवाले बेटे को अपनी गलती का अहसास होता है। ‘अर्थसिद्धि’ पशु प्रतीकों के जरिए धर्म के नाम पर होनेवाले घमासान को सामने लाती है। ‘साहसी’ में सुरेश का निर्णय साहस से भरा हुआ और सकारात्मक है। ‘शिखर’ का समापन भी सकारात्मकता में हुआ है।
माधव नागदा की इन लघुकथाओं में जहाँ एक ओर परिवेश के प्रामाणिक संदर्भ हैं, सकारात्मक मूल्य–दृष्टि है, वहीं दूसरी ओर भाषा और कथन पद्धति की भरपूर कसावट है। स्फीति से बचाकर अधिकतर लघुकथाओं को तीक्ष्ण और संप्रेषणीय बनाने में रचनाकार सफर रहा है। वस्तुत: इन लघुकथाओं में कथ्य और शिल्प सशक्त है, इसीलिए ये चौंकाने की बजाए जहाँ पाठक के मर्म का स्पर्श करती हैं, वहीं उसे सोचने–विचारने के लिए बाध्य भी करती हैं।

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