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राधेलाल बिजधावने
अषोक भाटिया की लघुकथाएँ

लघुकथाएँ एक ऐसा जरूरी तथा सशक्त माध्यम है, जो समय के साथ रू–ब–रू कराती हैं। कारण, वक्त की हर हरकत और हर तस्वीर लघुकथाओं में रहती है। वक्त उसमें आदमी के हृदय की तरह धड़कता है। उसकी तकलीफों,दु:खों, अतिवाद,अनाचार, सुख–सुविधा सभी तरह की संवेदना उसकी साँसों की आवाज से उजागर होती है। लघुकथा में वक्त अपनी मूल संवेदना, शक्ल और परिवेश के साथ अपने नैतिक मूल्यों, चरित्र के साथ आता है और उसकी बाह्य तथा अंदरूनी भावनाओं, इरादों, मकसदों को प्रस्तुत करता है। कोई लघुकथा यदि अपने वक्त के साथ झूठ बोलती है तो वह लघुकथा की तमाम ार्तों की अवमानना करती है और लघुकथा होने से चूक जाती हैं अतएव लघुकथा–लेखन प्रत्येक लेखक के लिए एक चुनौती है। यह चुनौती कई स्तर पर हो सकती है। कथानक,कथन,भाषा, शिल्प, कला–कौशल के साथ ही समय और स्थितियों के द्वंद्व के स्तर पर। सोच,समझ, दर्शन,समाज,संस्कृति की विकृतियों,जुल्मों–जेहादों, राजनीतिक–आर्थिक तथा अन्य मानवीय समस्याओं एवं आवश्यकताओं के स्तर पर भी। अत: एक रचनाकार को हमेशा अन्वेषी बनकर वक्त की तकलीफों और खूबियों को पहचानकर अपनी संपूर्ण कलात्मक क्षमता के साथ प्रस्तुत करने की नितांत जरूरत होती है। हेमिंग्वे का कथन है : ‘यदि लेखक अच्छा है तो वह वर्णन नहीं करता, अन्वेषण करता है और अन्वेषण अनुभवों के माध्यम से ही संभव है। बिना अनुभवों के अनुभूतियाँ भी निर्जीव हो जाती हैं और उसकी संवेदनशीलता क्षीण होकर समाप्त हो जाती है।’
अशोक भाटिया की लघुकथाएँ युगीन अंतर्विरोधों की अंतर्वस्तु से गुजरती हुई परिस्थितियों की परिणतियों को अंतर–स्वाभाविक दृष्टि से प्रस्तुत करती हैं। लेखक इन लघुकथाओं के माध्यम से समय की समग्रता को देखता है। इसलिए अशोक भाटिया परिपक्व वैचारिक चेतना की तलाश करते हुए व्यापक जनमानस तक पहुँचने की कोशिश करते हैं और सारगर्भित संदेशों को वक्त की मानसिकता के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं। इसलिए अशोक भाटिया की लघुकथाओं में सारगर्भित नवजागरण, सामाजिक चेतनों को अंतर–प्रक्रिया, उत्पीड़न संस्कृति से लड़ने का अहम् तथा रचनात्मक चेष्टा की विश्लेषणात्मक एवं अंतर्सत्य तक पहुँचने की पूर्ण व दृढ़ इच्छाशक्ति होती है, जहाँ जीवन–परख घनिष्ठ तथा विश्वसनीय होती है। अशोक भाटिया डस्टबिन संस्कृति की सड़ांध और एकतरफा अभियोगों की छिन्न–भिन्न मानसिकता को लघुकथाओं में बुनते हैं और मानव–समूह के सकारात्मक मूल्यों को ग्रहण एवं संग्रहण करते हुए रचनागत सामाजिक यथार्थ और वस्तुगत चेतना के बीच चरित्र और व्यक्तित्व को नई भाषा, शिल्प और शैली देते हैं, जहाँ अनुभवों की व्यापकता और सचेतन दृष्टि, लोकतांत्रिक व्यवस्था की संघर्षशील वैकल्पिक व्यवस्था भी संक्रमण–शक्ति होती है।
अशोक भाटिया की कथा–दृष्टि ‘तीसरा चित्र’ लघुकथा में विश्व–मानव के खोए हुए रंगों के अंतर्सत्य को जगाती है और अभावग्रस्त लोगों के मन को गहराई से टटोलती है, जबकि ‘दिल की बात’ वास्तविक सत्य और मजबूरी की भाषा के फर्क को साफ करती है। यह जरूरत और समय के बीच के गैप को प्रस्तुत करती है। ‘रिश्ते’ सेवा–निवृत्ति के आत्म–दुख की भाषा को नया अर्थ देती है। यह सतही मानसिकता और कुंठित भावना की विस्फोटक कथा है। ‘सच्चा प्यार’ प्यार के लगातार झूठे अर्थ–बोध व सामाजिक मूल्यों के चरित्र को उघाड़ती है। ‘बंद दरवाजा’ अछूत भावना का किस तरह गला घोंटकर वर्ग और वर्णेतर की समस्या को पेचीदा बनाती है, इस तथ्य को मानवीय चिंता के स्तर पर प्रस्तुत करती है। इसमें वर्ग–चेतना आत्महंता हो गई है, जबकि ‘हुकूमत’ में तीसरे आदमी की मौत का दुखद अहसास होता है। ‘उपाय’ लघुकथा में सत्ता और व्यवस्था की नपुंसकता की धारदार अभिव्यक्ति हुई है।
‘बीच का आदमी’ समाज की चक्की में पिसने की नियति को अस्वीकार नहीं करता, यह उसकी मजबूरी है। मजबूरी जब नियति बन जाती है तो ‘बीच का आदमी’ को मौत की अनिवार्यता को स्वीकारना ही पड़ता है। ‘परमिट’ लघुकथा सुरक्षा और व्यवस्था के गिरते नैतिक और चारित्रिक मूल्यों की साफ भाषा की लघुकथा है। यह धार्मिक समारोहों में नारी–सौंदर्य का सुख प्राप्त करनेवाले पुरुषों एवं व्यवस्थापकों की सेक्स भावना और मानसिकता की अंदरूनी परतों को खोलती है। यह नैतिक मूल्यों से चारित्रिक मूल्यों की गिरावट को जाहिर तो करती ही है, साथ ही सामाजिक–नैतिक मूल्यों के दिवालियेपन का चिट्ठा भी प्रस्तुत करती है, जबकि ‘शिक्षा’ लघुकथा में वर्ग और वर्ण की बू आती है। लोग घिनौनी स्थितियों और छोटे वर्ग के लोगों से घृणा तो करते हैं, लेकिन उनके वर्ग और वर्ण–दुख को न तो बाँटते हैं और न ही इसे समाप्त करने की सोचते हैं। वर्ग और वर्ण की छुआछूत बड़े लोगों में होती है,लेकिन बच्चे इस मानसिकता से सर्वदा मुक्त ही होते हैं। यह लघुकथा संकीर्ण मनोवृत्तियों, सोच तथा समझ की तमाम स्थापनाओं को तोड़ती है। ‘पीढ़ी दर पीढ़ी’ लघुकथा उस परपंरा को, जो आर्थिक अभाव की वजह से पीढि़यों तक चलती रहती है और किसी बदलाब की गुंजाइश नहीं रहने देती। वह ऐसी अशिक्षा की दुख–गाथा के अंदरूनी को समाप्त कर देती है। यह आंतरिक एवं वास्तविक आत्म–प्रेम की अंत:कथा है। ‘मजबूरी’ लघुकथा में अशोक भाटिया ने मौजूदा समाज में आर्थिक झंझटों के बीच दम तोड़ती ममत्व की पीड़ा को उद्घाटित किया है, जो कामकाजी महिलाओं में लगातार संवेदनहीन होती जा रही है।
‘अमिया’ युवा मन की थ्रिलिंग लघुकथा है। ‘अंतहीन’ राजनीतिक घटनाओं, चिंताओं के बीच महिलाओं की सौंदर्य के प्रति मानसिकता को जाहिर करती है, जिसके समक्ष तमाम राष्ट्रीय–अंतर्राष्टीय समस्याएँ अर्थहीन एवं गौण हो जाती हैं। ‘परपिता’ बनिए की उधारी और गरीबी की दुख–गाथा है। ‘बाबे नानक दा घर’ बचपन के दिन की स्मृतियों को तरोताजा करती है और मन को एक आनंद–क्षण की ओर ले जाती है। ‘एहसास’ लघुकथा वर्ग और वर्णेतर को मिटाने का प्रयास करती है, जबकि ‘व्यथा–कथा’ लघुकथा गरीबी की कथा संजीदगी के साथ प्रस्तुत करती है। ‘उनके खत’ लघुकथा पारिवारिक समस्या और चिंताओं के बीच डूबीी है, जबकि ‘दोहरी समझ’ में दोहरे व्यक्तित्व के अंदरूनी हिस्सों की खराबी को प्रस्तुत किया गया है। ‘दिशा’ नेताओं के जीवन में विविध स्तरों पर आई चुनौती की दुख–गाथा और नैतिक मूल्यों की गिरावट के आत्म–दुख को उकेरती है। ‘मृतक’ अंधविश्वासी मान्यताओं का पर्दाफाश करती है, जबक ‘टाइम और ट्यून’ समय और स्थितियों के साथ आदमी को बदलने का मौन संदेश देती है।
‘अच्छा घर’, ‘उनके खत,’ ‘नया पथ,’ ‘पीढ़ी दर पीढ़ी’, ‘व्यथा कथा’, ‘उसका भगवान’,‘गुब्बारा’, ‘नया बोध’,‘डर के पीछे’, ‘अमिया’ तथा ‘अधिकार’ लघुकथाएँ समय के साथ चलकर उसकी सच्चाई और परिवेश के साथ डायल्यूट होकर सीधा संवाद करती है, जबकि ‘भावना’, मां’, ‘मजबूरी’, ‘बेपर्दा’, ‘इतिहास’, ‘परिचय’, ‘फैसला’, ‘गलत शरूआत’, ‘छुट्टी’, ‘अंतहीन’, ‘श्राद्ध’, ‘मृतक’ लघुकथाएँ डूबे हुए मन को उबारती हैं तथा वक्त के रजिस्टर पर हुई घटनाओं का रजिस्ट्रेशन कर कैफियत माँगती हैं। ‘ड्यूटी’, ‘साहब’, ‘जिजीविशा’, ‘सपना’, ‘अहसास’, ‘देश का भविष्य’, ‘गवाह’, ‘वीटो’, ‘पेड़’, ‘शहर’, ‘भूख’, ‘अपराधी’, ‘हां–ना’ तथा ‘टाइम और ट्यून’ लघुकथाएँ मध्यवर्गीय चिंता और चिंतन की गंभीरता को नई गिनती सिखाती हुई स्वीकार–अस्वीकार के बीच की उलझनों, तनावों और लड़ाइयों का होम–वर्क करने के लिए नए समीकरण देती हैं।
अशोक भाटिया की लघुकथाएँ छोटे तथा मध्यवर्गीय आदमी के जीवन–मूल्यों की सचेत लघुकथाएँ हैं, जिनमें उनका सांसारिक जीवन नई उपलब्धियों के बारे में सोचते–सोचते आंधी और तूफानों के एक ही झटके में तहस–नहस कहो जाता है। इनकी लघुकथाएँ पौधे की तरह सहज जमीन से अपनी ऊर्जा के साथ फूटकर निकलती हैं। वक्त के हवा–पानी तथा मौसम के अनुरूप अपने को एडजस्ट करती हुई नैसर्गिक स्वरूप के साथ विकसित होती हैं। इनकी लघुकथाएँ मनुष्य के हर वर्ग तथा मानसिकता की ऊचाँई पर बैठकर देखती हैं, फिर उसे अपने ्शब्दों में उसी के अनुरूप बांधती हैं। इनकी लघुकथाएँ भेडि़या मानसिकता के बीच फंसे निहत्थे आदमी की लघुकथाएँ हैं, जहाँ भेडि़यों की आवाजों, पंजों के बीच उसकी आवाज और उसके विरोध का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि दुनिया के जंगल में भेडि़या संस्कृति ही व्याप्त है।
अशिक्षा, वर्ग–चेतना के सवाल, जो आर्थिक और सामाजिक दोनों ही छोरों से जुड़े हैं, को कथाकार बड़ी ही कुशलता से प्रस्तुत करता हैं यही कारण है कि लघुकथाओं में मन की भावना तथा संवेदना के भीतर एक विशिष्ट आशा ओर उम्मीद दिखती है। अशोक भाटिया वक्त के बीच से गुजरती हुई उसकी धड़कनों को रेकार्ड करते है और धीरे–धीरे उसके इतिहास को कंस्ट्रक्ट करते हैं। भविष्य की संभावनाओं का फोकस तैयार कर फिर फोरकास्ट करते हुए नई चेतना, नई उम्मीदें और नए बदलावों के प्रति आश्वस्त भी कर देते हैं। इनकी लघुकथाओं में इसीलिए वक्त की लड़ाई, द्वंद्व,ताव, बिखराव तथा टकराहटों के बीच नई संभावनाएँ, संवेदनाएँ तथा उम्मीदें झाँकती हैं।
अशोक भाटिया की लघुकथाओं की भाषा आम आदमी की भाषा से पूरी तरह जुड़ी है। इसीलिए न तो इसमें कोई बनावट है और न ही कोई कृत्रिमता। इनकी शैली भाषा के अनुरूप, परिवेश तथा सिचुएशन के परिप्रेक्ष्य में साम्य, संतुलन एवं कॉम्बीनेशन के साथ आती हैं। यही वजह है कि अशोक भाटिया की लघुकथाएँ सहज बोधगम्य हैं। ये सामान्य रूप से शिक्षित–अशिक्षित आदी के जीवन में जल्दी कम्युनिकेट होती है। इनकी लघुकथाएँ राजनीतिक चरित्रों के पीछे नहीं दौड़ती और न ही अभिव्यक्ति के केंद्र में राजनीति प्रवेश कर पाती है। आज राजनीति का चरित्र इतना खोखला हो चुका है कि उसे लघुकथा की विषय–वस्तु बनाना लेखक बनने की शर्तों का उपहास करना है। शायद इसीलिए ये वर्ग एवं वर्ण तथा उनकी आर्थिक विषमता, अतिवाद, शोषण, रूढि़वादी व्यवस्था, संकीर्ण मानसिकता, राष्ट्रीय चरित्र जैसे विषयवस्तु को केंद्र बनाकर लघुकथा लिखते हैं। भाषा के स्तर पर इनकी लघुकथाएँ साफ–सुथरी और कम्प्रेस्ड हैं। इनमें भाषा की कसावट, चुस्ती एवं पैनापन है। शैली, आकर्षक एवं सुरुचिपूर्ण है, जिससे इनकी लघुकथाएँ अपना- अलग स्वरूप एवं प्रतिछवि बनाती हैं और लघुकथाओं के समूह में कहीं भी अलग से पहचानी जा सकती हैं।

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