आठवें दशक में लघुकथा को एक तरह से नवजीवन तो मिला परन्तु अधिकांश लघुकथाएं राजनीति पर केन्द्रित थीं और इनमें व्यंग्य का पुट भी ज्यादा था। इससे आम पाठक को यह भ्रम भी होने लगा कि लघुकथाओं में मानवीय संवेदना का नितांत अभाव है। इसका एक कारण यह भी रहा कि शुरू–शुरू में शकर पुणतांबेकर ने जो लघुकथा–संग्रह संपादित किया उसमें व्यंग्य पर आधारित रचनाओं को प्रमुख रूप् से स्थान दिया। इसी तरह तीन वर्ष पहले एक अन्य व्यंग्यकार बालेन्दु शखर तिवारी ने लघु–व्यंग्य संग्रह में लघुकथाएं प्रकाशित कीं।
‘स्त्री–पुरुष संबंधों की लघुकथाएं’ संकलन के संपादक सुकेश साहनी ने ‘अपनी बात’ में इस प्रदूषण की ओर संकेत करते हुए लिखा है : घिसे–पिटे विषयों पर जमकर लघुकथाएं लिखी गईं। लघुकथा के नाम पर चार–पाँच पंक्तियों की चुटकलेनुमा रचनाओं से पत्र–पत्रिकाओं, संकलनों को भर दिया गया। इस दौर में फैलाए गए इस प्रदूषण के कारण लघुकथा के प्रति समर्पित लेखकों द्वारा लिखी गई सशक्त लघुकथाओं का भी नोटिस नहीं लिया गया। यह स्थिति लघुकथा के विकास और विविधता की दृष्टि से बहुत निराशाजनक थी।
यह भी नहीं कि श्रेष्ठ लघुकथाओं को इस प्रकार एकत्रित करने का यह पहला प्रयास हो। इससे पूर्व धीरेन्द्र शर्मा/नंदल हितैषी के संपादन में पुलिस के विभिन्न चेहरों को लेकर लिखी लघुकथाओं का संकलन ‘आंतक’ प्रकाशित किया गया था। इसी तरह एकल लघुकथा संग्रहों में से पाँच– पाँच श्रेष्ठ लघुकथाओं को लेकर अंजना अनिल!महेन्द्र सिंह महलान ने ‘मंथन’ संकलन पाठकों को सौंपा था और डा. कमल चोपड़ा ने तीन वर्ष तक लगातार हिंदी की वर्षभर की श्रेष्ठ लघुकथाएं प्रकाशित की थीं।
लघुकथा में ताजगी का अहसास कराती रचनाओं का यह एक और श्रेष्ठ संकलन कहा जा सकता है। इसमें मानवीय संवेदना और परंपरागत भारतीय संस्कृति की उष्मा मिलती है।
स्त्री–पुरुष संबंधों के आठ पक्षों सफल–असफल दाम्पत्य, प्रेम संबंध, पति–पत्नी और वह, शिक्षा का अभाव सामाजिक रूढि़यों, धार्मिक अंधविश्वास, शिक्षित नारी, आधुनिकता के दायरे में वे मनोवैज्ञानिक पक्ष पर आधारित 70 लघुकथाकारों की रचनाएं शामिल की गई हैं।
संकलन में जयशंकर प्रसाद, पदुमलाल पन्नालाल बखी, मोहन लाल पटेल, विष्णु प्रभाकर, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र, राजेन्द्र यादव, रामवृक्ष बेनीपुरी, शांति मेहरोत्रा, जोगेन्दर पाल, माहेश्वर व वीरेन्द्र जैन की रचनाएं आम पाठक को अपनी सरल भाषा से सहज ही बांध लेती हैं। इनमें से भी पदुमलाल पन्नालाल बखी की ‘झलमला,’ विष्णु प्रभाकर की ‘पीरान पियारे पिराणनाथ,’ रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘घासवाली’ में संवेदना का पुट इतना अधिक है कि आँखों में अश्रु आ जाते हैं और ये रचनाएं देर तक याद रहने वाली हैं।
इस संकलन में न केवल हिंदी के बल्कि पंजाबी, गुजराती, उर्दू व अन्य भाषाओं की अच्छी रचनाओं को भी स्थान दिया गया है। जिससे संकलन का महत्व बढ़ जाता है। इससे संपादकीय दृष्टि की विशालता का भी परिचय मिलता है।
नारी के देह को मात्र उपभोग की वस्तु मान कर चंद सिक्कों में इसकी कीमत चुकाने का प्रयास किया जाता है, इसका उदाहरण है–अंजना अनिल की ‘लोहा–लंगड़’, कुमार नरेन्द्र की ‘छोटे बड़े हरे टुकड़े’, माहेश्वर की ‘क ख और एक बच्चे की माँ’ व सतीश दुबे की ‘स्वापिग’।
पति–पत्नी और ‘वह’ के संबंधों पर सुकेश साहनी की ‘गूँज’ व राजेन्द्र यादव की ‘अपने पार’ उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
रक्षा बंधन जैसे पवित्र संबंधों के आधार पर वक्त कटी करने की ओर पृथ्वीराज अरोड़ा, गंभीर सिंह पालनी व शांति मेहरोत्रा की रचनाएं प्रकाश डालती हैं।
इस प्रकार ‘स्त्री–पुरुष संबंधों की लघुकथाएं’ संकलन उन आलोचकों को सही जवाब है जो बार–आर कहते हैं कि श्रेष्ठ लघुकथाओं का अभाव है। आवश्यकता है उन्हें भीड़ में से निकालकर पाठकों के सामने रखने की। कहानी में अलग–अलग विषयों पर संकलन प्रकाशित करने की परपंरा रही है और यह परपंरा लघुकथा में सफलतापूर्वक चल पड़ी है। लघुकथाए’ संकलन भी
पुस्तक का मुखपृष्ठ भी अच्छा है और प्रकाशन भी सुंदर है।