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दस्तावेज़- किरन चन्द्र शर्मा

किरन चन्द्र शर्मा
फुँकते अलाव से दो शब्द

कुलदीप जैन हिन्दी लघुकथा मे अपनी अलग पहचान रखते हैं। उनके सम्पादन में उनके समेत हिन्दी के चार सशक्त लघुकथाकारों का संकलन निश्चित रूप से स्वागत योग्य होना चाहिए और वह है भी, पर उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात, जो मुझे इस संपादन में लग रही है वह है संपादक द्वारा चुनी गई ऐसी रचनाएँ जो जीवन के किसी विशेष क्षेत्र से न जुड़ी होकर अलग–अलग अनुभव संगठनों से बड़े ही सशक्त तरीके से अभिव्यक्ति दे देती है। कुलदीप जैन की क्षमता इस अर्थ में अधिक लेनी चाहिए कि उनका चुनाव किसी विचारधारा अथवा दुराग्रह से परे एक ऐसी अभिव्यक्ति पर आधारित है जिसकी संप्रेषणीयता जीवन संदर्भों के सापेक्ष भिन्न–भिन्न है।
‘अलाव’ गाँव और गरीबी के माहौल से जुड़ा शब्द है और इस संदर्भ में मुझे बलराम अग्रवाल की सहज और सार्थक लघुकथा ‘अलाव के इर्द–गिर्द’ याद आ रही है जो इस संकलन में भी संकलित है। बात यह है कि जहाँ वह लघुकथा समाप्त होती है वहाँ से यह सारा संकलन अपनी विकीर्णता ग्रहण करता है। यानी हम गाँव के अलाव के इर्द–गिर्द से शुरू होकर उस व्यापक अलाव की ओर अनजाने ही बढ़ने लगते हैं जिसमें हमारा घर, हमारा पड़ोस, हमारा गाँव, हमारा शहर और हमारा देश सभी कुछ जल रहा है और हम केवल उसके इर्द–गिर्द बतियाते चल जा रहे हैं, बस। कितनी बड़ी विवशता के बीच जी रहे हैं हम कि सब कुछ जलता देखकर भी उसके इर्द–गिर्द इकट्ठा भर होने में ही अपनी सार्थकता मान लेते हैं और निरन्तर चलता रहता है यह सिलसिला.......मुझे कई सारे मुद्देे (शायद हम सभी को) इसी सिलसिले में से ढूढ़ने हैं।
सिलसिलेवार इस क्रम में सबसे ज्येष्ठ हैं जगदीश कश्यप। कई तरह से ज्येष्ठ और श्रेष्ठ इस लघुकथा लेखक ही धारदार तरीके से बाहर निकलती हैं और अलाव से निकली सेंक को और तेज कर जाती हैं। जगदीश कश्यप हिन्दी लघुकथा का एक बहुचर्चित नाम है किन्तु यहाँ मैं एक–दो उदाहरण उनकी उन लघुकथाओं में से देना चाहूँगा जो उसकी शक्ति का अलाव के इर्द–गिर्द बतियाते लोगों को अहसास कराती हैं। इस संग्रह के आरंभ में ही इनकी एक लघुकथा है ‘भूख’। मैं केवल इसी की चर्चा करना चाहूँगा क्योंकि उनकी बाकी सारी लघुकथाएँ इसी अलाव की आँच से निकलती और फैलती चली गई हैं, एक से एक सशक्त और अपने तरीके के अनुभव संगठनों के साथ। छोटी–सी इस लघुकथा में पीढ़ी–दर–पीढ़ी भोगी जा रही भूख का जो प्रतीकातमक विवरण है वह अद्भुत है– गाँव से शहर और शहर से फिर गाँव की ओर दौड़ता यह आदमी पीढ़ी–दर–पीढ़ी मौत देखता चला जा रहा है–क्या अजीब हादसा है कि इस आदमी ने जिन्दगी कहीं देखी हीर नहीं। जो देखी नहीं उसे कभी देख भी नहीं पाता (जबकि देखना उसे ही चाहता है ) और जो जि़न्दगी दिखाई दे रही है उसे वह भूल नहीं पा रहा है....शायद इसीलिए भाग रहा है और भागना क्योंकि समाधान नहीं है इसीलिए अन्तिम सत्य को प्राप्त होजाता है। वास्तव में होना यह चाहिए था कि भूख से परेशान वह आदमी अपना एक वर्ग तैयार करता और उस भूख से या फिर उसके जिम्मेदार लोगों से लड़ता पर मैंने शुरू में ही कहा है कि यहाँ वर्तमान व्यवस्था में अलाव के इर्द–गिर्द लोग बतियाते हुए दम तोड़ देते हैं, बस। इसीलिए उसे भी दम तोड़ना ही था। बहुत बड़ा यथार्थ लिए है यह लघुकथा अपने आप में। उनकी अनेकों अगली लघुकथाएँ इसी भूख की आधारशिला पर निर्मित हैं, फिर चाहे वह ‘पहला गरीब’ हो या ‘अन्तिम गरीब,’ ‘सांपों के बीच’ हो या ‘पेट का जुगाड़’, ‘दूसरा सुदामा’ हो या ‘थर्मस’ अथवा ‘उपकृत’।
इस कड़ी के दूसरे बड़े कथाकार हैं बलराम अग्रवाल। बलराम अग्रवाल की कथाएँ तीखी और ठण्डी एक साथ होती हैं। जैसा कि मैंने प्रारंभ में ही कहा है, मैं यहाँ इन्हीं की लघुकथा ‘अलाव के इर्द–गिर्द’ से अपनी बात आरंभ करूँगा। इसी से मैं यह भी बता पाऊँगा कि उनकी लघुकथाओं में तीखापन कहाँ आकरबड़े ठण्डे तरीके से अपना काम कर जाता है। दरअसल जो अलाव जलाया है बदरू ने, मिसरी उसे धीरे–धीरे कुरेदता हुआ अपनी आंच से फूँक देता है। बात ‘सुराज’ से शुरू होकर ‘पिर्जातन्त’ तथा कोट कचहरी से होती हुई न्याय व्यवस्था पर पहुँचती है और वहाँ से सीधे खेत सींचते हुए श्यामा से जुड़कर जमींदार पर ठहर जाती है। एक क्षण ऐसा लगता है कि रचना जमींदार पर आकर ठहर जाती है और अलाव की आँच धीमी पड़ने लगती है पर मिसरी फिर फूँक मार कर उसे जला देता हैं व्यक्तिगत अनुभव के दायरे में सभी कुछ समेटता हुआ यह ‘लघुकथाकार’ भिन्न–भिन्न और व्यापक आयाम दर्शाता हुआ चलता है। मज़ेदार बात यह है कि जहाँ लगता है कि अलाव बुझ रहा है वहाँ फिर धीरे से कुरेदता हुआ फूँक मारने लगता है। इसीलिए जिस अन्तर्विरोध की बात मैंने ऊपर कही थी कि इनकी लघुकथाएँ तीखी और ठण्डी एक साथ है–वही अन्तर्विरोध इस लघुकथा–लेखक की शक्ति बन जाता है। जहाँ बड़े ही ठण्डेपन के साथ कुछ चुभता चला जाए वहाँ उस चुभन का अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता है। बलराम अग्रवाल के कथाकार की यह विशेषता उसकी कई लघुकथाओं में व्यक्त हुई है–‘बदले राम कौन है’, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु,’ ‘युद्ध खोर मुर्दे’, ‘जुबेदा’, ‘आखेटक’ जैसी तेज चुभन वाली लघुकथाओं में भी उसका यह सहज ठण्डापन हमें आकर्षित करता है; फिर ‘तीसरा पासा’, अन्तिम संस्कार’, ‘नया नारा’, ‘अज्ञात गमन’, ‘गुलमोहर’, ‘गुलाम युग’, ‘गो भोजनम् कथा’ और ‘पुश्तैनी–गाम’ जैसी लघुकथाएँ तो हैं ही इस पद्धति पर बनी हुई।
कुलदीप जैन तीसरे कथाकार हैं जो जंगल में जाकर अलाव के इर्द–गिर्द तो कम बैठते हैं पर उसकी तपिश बराबर महसूस करते रहे हैं। इनकी लघुकथाएँ अधिकांशत: सामाजिक परिपेक्ष्य पर आधारित हैं। व्यवस्था से बहुत सीधे नहीं टकराती हैं पर जीवन और समाज की अनेक प‍र्ते भी हमारे सामने बड़े ही सशक्त तरीके से उधेड़कर रख देती हैं।
‘दुश्मनी के बावजूद’ तथा ‘अचेतन मन का विद्रोह’ जैसी लघुकथाएँ सामाजिक संस्कार और व्यक्तिगत भावों से अधिक जुड़ी हैं। इसी तरह ‘नागफनी का फूल’ और ‘शुभचिंतक’ लघुकथाएँ हैं। पर वे उस अव्यवस्था की ओर भी इशारा कर देती हैं जो इस तरह की स्थितियों को जन्म देती है। ‘हित–चिन्तक’ इनकी ऐसी लघुकथा है जो सच्ची और गहरी चिन्ता से जुड़कर उस व्यवस्था का पर्दाफाश करती है जो नेता बनकर जनता का खून चूसती है। जीवन और समाज से रूबरू होती ऐसी लघुकथाएँ इस संग्रह की अपनी उपलब्धियाँ हैं। ‘धंधा–पानी’ कुलदीप जैन की ऐसी लघुकथा है जो आदमी के भीतर जानवर को बाहर निकाल कर खड़ा कर देती है क्योंकि यही जानकर अन्ततोगत्वा कुव्यवस्था को जन्म दे रहा होता है। कुलदीप जैन के कथाकार की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने आदमी में छिपे इस जानवर की तलाश नारेबाजी में नहीं की है; यानी इस जुम्लेबाजी से दूर ही रहे हैं कि जानवर सि‍र्फ़ बड़े कहे जाने वाले आदमियों में ही होता है। उन्होंने छोटे और बुर्जुआ वर्ग दोनों में इसे ईमानदारीपूर्वक तलाशा है। ‘रण कौशल के बावजूद’ उनकी रजेरमी लघुकथा है।
सुकेश साहनी इस संग्रह के चौथे लघुकथा लेखक हैं। जब तीन आदमी जलते ‘अलाव के इर्द–गिर्द’ बतिया रहे हों तो आज के जमाने में यह बहुत असम्भव नहीं है कि वहाँ कोई पत्रकार न पहुँचे। खासतौर से उस समय तो यह आवश्यक है ही जब उस अलाव की आच की तपिश जंगल से शहर तक पहुँच गई हो। सुकेश साहनी की बहुत सारी लघुकथाएँ इसी पत्रकारिता का परिणाम नज़र आती हैं। आज के युग में रिर्पोटिंग का भी अपना एक बोलबाला है–उसे लघुकथा से लेकर कहानी तक किसी का भी आधार बनाया जा सकता है। सुकेश साहनी की ‘चतुर गाँव’,‘मास्टर प्लान’, ‘वापसी’ आदि अनेक लघुकथाओं को इस सन्दर्भ में रेखांकित किया जा सकता है। ‘इमिटेशन’ और ‘आइसबर्ग’ उनकी बहुत प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं।
उपयु‍र्क्त लघुकथाओं पर की गई मेरी टिप्पणी मेरी निजी और व्यक्तिगत है लेकिन मैंने इतना स्पष्ट करने की कोशिश अवश्य की है कि एक अलाव जल रहा है और उसके जलाए रखने की कोशिश इस संग्रह की अनेक लघुकथाओं में है। अपने इस वक्तव्य का अन्त भी मैं बलराम अग्रवाल की पूर्वोक्त लघुकथा ‘अलाव के इर्द–गिर्द’ के अन्त के साथ इन्हीं शब्दों में करना चाहूँगा कि–
‘‘मुझे दे!!’’ चिंगारी कुरेद रहे बदरू के हाथ से डण्डी को लेकर मिसरी ने उसमें जगह बनाई और फेफड़ों में पूरी हवा भरकर चार–छह लम्बी फूँक उसकी जड़ में झोंकी। झरी हुई राख के ढेरों चिन्दे हवा में उड़े और दूर जा गिरे। अलाव ने आग पकड़ ली। कुहासे भरी उस सर्द रात के तीसरे पहर लपटों के तीव्र प्रकाश में बदरू ने यामवर्ण मिसरी के ताँबई पड़ गए चेहरे को देखा और अलाव के इर्द–गिर्द बिखरी पड़ी डंडियों–तीलियों को बीनकर उसमें झोंकने लगा।
विश्वास है कि अन्य लघुकथा–लेखक भी ‘अलाव’ के इस ‘लघुकथा संग्रह’ को और अधिक चमका सकेंगे, रोशनी गर्मी दे सकेंगे, एक–दूसरे से लेकर ‘मिसरी’ की तरह सुलगाते चले जाएँगे और आगामी पीढ़ी के लघुकथा–लेखक बदरू की तरह उसके इर्द–गिर्द पड़ी लकडि़यों को बीनने और उसमें झोंकने लगेंगे, लघुकथा का यह ‘अलाव’ तभी फूँका जा सकेगा.....सार्थक और निरन्तर दोनों एक साथ....।

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