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दस्तावेज़- निशांतर
सतीशराज पुष्करणा की लघुकथाओं में मन
वैज्ञानिक पक्ष :निशांतर

‘नौंवें दशक की, (डॉ. पुष्करणा की) लघुकथाएँ सामाजिक तथा व्यावहारिक मनोविज्ञान की प्रेरणा पर रचित हैं। इनमें, समाज व जीवन की परिस्थितियों, सम्बंधों, चरित्रों, कार्यकलापों, घटनाओं इत्यादि का सहज स्वाभाविक वर्णन प्राप्त होता है और साथ ही इनमें उस यथार्थ को भी प्रकट करने का प्रयास किया गया है जो प्रत्यक्ष यथार्थ के पीछे क्रियाशील होता है। परंतु जैसा कि अज्ञेय की कहानी ‘पठार का धीरज’ में कहा गया है, ‘‘लेकिन यथार्थ के भी स्तर हैं। स्थूल वास्तव, फिर सूक्ष्म वास्तव, जिसमें हमारे भाव का भी आरोप है, फिर, क्या और भी कोटियाँ नहीं हैं, जहाँ भाव ही प्रधान हो, जहाँ तथ्य वहीं पहचाना जाए जहाँ वह व्यक्ति–जीवन के प्रसार में गहरी लीकें काट गया हो, नही तो और पहचानने का कोई उपाय न हो, क्योंकि व्यक्ति–जीवन, व्यक्ति–जीवन के क्षण का स्पन्दन इतना तीव्र हो कि वह कुछ उसी से गूंज रहा हो, और कोई ध्वनि न सुनी जा सके।...’’ ‘बदलती हवा के साथ’ की लघुकथा ‘कुमुदनी का फूल’ ऐसी ही एक लघुकथा है, जिसमें सूक्ष्म वास्तव या आभ्यंतर यथार्थ को कथा के परिणाम, अंत या निष्कर्ष तक पहुँचाया गया है। इस कथा में युवावस्था में विधवा हो चुकी स्त्री का बाद में अपने सहकर्मी से प्रेम हो जाता है, जो मर्यादा के अनुशासन में बँधा रह जाता है और वह अपने पुत्र का युवावस्था तक पालन–पोषण करके अपने पैरों पर खड़ा कर देती है। अकेले में वह विधवा अपने अतीत का स्मरण करती है और उसे अपना हनीमून याद आता है। अपने पूरे अतीत का अवलोकन करती हुई उसे अपने सहकर्मी से प्रेम का स्मरण हो आता है, जो अभी तक उसकी प्रतीक्षा में अविवाहित है। वह उससे विवाह के बारे में सोचती है,परंतु कई तरह की आशंकाओं से घिर जाती है–क्या इस उम्र में विवाह करना ठीक होगा? नए पति को क्या वह सुख दे पाएगी? क्या पुत्र और बहू उससे सम्बन्ध रखना चाहेंगे? इत्यादि। किंतु वह निश्चय करती है कि अपने मन की बात अपने पुत्र एवं बहू से कहेगी अवश्य।
बेटे–बहू के लौट आने पर, उनके पूछने पर अपनी इच्छा का संकेत करती है और बेटा, जो पहले से ही इस बात की जानकारी रखता है, और अपनी मां के त्याग और संघर्ष से अनुगृहीत भी है, मां की इच्छा का आदर करते हुए उसके प्रेमी ‘रवीन्द्र’ अंकल के साथ विवाह का कार्यक्रम तय कर आता है।
इस कथा में, अज्ञेय के अनुसार, भाव की प्रधानता है तथा तथ्य को वहीं पहचाना गया है जहाँ व्यक्ति–जीवन के प्रसार में गहरी लीक काटी गई है। वह स्थल है विधवा का अपने सहकर्मी से प्रेम, जिसे उसने अपने बेटे के प्रति उत्तरदायित्व–बोध के दबा रखा था। जब बेटे को अपने पैरों पर खड़ा करे उसका विवाह भी कर देती है तब सामाजिक मर्यादा की चट्टान उसके मन पर से हट जाती है तथा उसका मन उभर कर सामने आ जाता है। इस कथा में व्यक्ति–जीवन, व्यक्ति–जीवन के क्षण का स्पंदन इतना तीव्र हो गया है कि सब कुछ उसी से गूंज रहा है, और कोई ध्वनि सुनी नहीं जा रही है। ‘कुमुदिनी का फूल’ लघुकथा की रचना प्रक्रियात्मक विकास–यात्रा में वह टर्निग प्वॉइंट है, जहाँ से लघुकथा मन के गह्वरों में प्रवेश कर जाती है, अवचेतन से अचेतन की गहराई में उतर जाती है। यहाँ से लघुकथा मनोवैश्लेषिक हो जाती है।
‘प्रसंगवश’ और ‘बदलती हवा के साथ’ की लघुकथाओं से यह स्पष्ट होता है कि इनका लेखक अपने लिए बनाए गए दायरे को स्वयं ही तोड़ता है, उसका अतिक्रमण करता है और यही लेखक की सामर्थ्य को प्रमाणित करता है। आठवें दशक में सतीशराज पुष्करणा समष्टिबोध के साथ लेखन करते हैं, परंतु नौवें दशक की लघुकथा में व्यक्ति की संवेदना ही केन्द्र बन गई है। आठवें दशक की लघुकथा का पात्र अपने समाज के प्रतिनिधि या अंगरूप में उपस्थित होता है। उसका कोई वर्ग, समाज अथवा समूह है।
नौवें दशक की लघुकथा का पात्र समाज की छोटी इकाई–परिवार से जुड़ा होता है, वह अपने छोटे–से परिवेश का प्रतिनिधित्व करता है। परंतु नौवें दशक के एकदम अंत में या दसवें दशक के प्रारम्भ में लघुकथा का चरित्र व्यक्ति मात्र है, व्यक्ति की स्वतंत्रता ही उसका आधार है। यहाँ व्यक्ति का अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, और उसका वर्ग, समाज या समूह उसकी ओर हो जाते हैं। यही कारण है, कि नौवें दशक की लघुकथा में समाज और उसके परम्परागत नियम तोड़े जाते हैं व्यक्ति भी टूटता है। और टूटे हुए व्यक्ति का मन अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। उसकी सभी समस्याओं का उत्स उसके अवचेतन में है। ‘बदलती हवा के साथ’ में ऐसी लघुकथाएं अधिक हैं, जिनमें जीवन की मानसिक सच्चाइयों को ही महत्त्व दिया गया है।
‘कुमुदिनी का फूल’ शीर्षक रचना से लघुकथा मनौवैश्लेषिक हो जाती है। डॉ0 सतीशराज पुष्करणा के ताजा संग्रह ‘जहर के खिलाफ’ में जो लघुकथाएँ संगृहीत हैं, वे सभी मनोवैश्लेषिक है। इन लघुकथाओं में जो चरित्र आए हैं, वे व्यक्ति की निरपेक्ष सत्ता के रूप में सामने आए हैं। व्यक्ति की निरपेक्ष सत्ता में भाव–जगत् का साम्राज्य होता है और होते हैं वे रहस्यमय तथ्य, जो मूलरूप से उसे संचालित करते हैं। मन के अचेतन में व्यक्ति–जीवन के ऐसे कई अनुद्घाटित पूर्व क्षणों का स्पंदन होता है, जो पूरे जीवन और व्यक्तित्व को गुजायमान रखता है, स्पंदित और आंदोलित रखता है। डॉ0 पुष्करणा ने इन्हीं क्षणों को उद्घाटित करने का प्रयास किया है, इस संग्रह की लघुकथाओं में। मनुष्य अपने पूरे जीवन में अर्थ, अहं और काम से परिचालित होता है। ‘जहर के खिलाफ’ में संग्रहीत लघुकथाओं के चरित्र अर्थ से नहीं, अहं और काम से परिचालित हैं। इस आलेख में मैंने केवल उन्हीं लघुकथाओं को अध्ययन का विषय बनाया है जिनमें चरित्र काम से परिचालित हैं इनमें से कुछ लघुकथाएँ, जिनका कथ्य काम से सम्बन्धित हैं, उनमें से कुछ में काम का उदात्तीकरण–परिष्करण हुआ है, और कुछ में उदात्त काम निश्छल प्रेम एवं निष्ठा का रूप पाकर अलौकिक और आध्यात्मिक हो गया है। और विपरीत: कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जिनमें काम विकृत रूप में उभरकर सामने आया है। परंतु इस विकृत काम का भी रेचन हुआ है। अधिकांश लघुकथाओं के चरित्र अपने अंतरीक्षण से स्वयं को नियंत्रित एवं परिवर्तित कर लेते हैं और जिन लघुकथाओं के चरित्र स्वयं को काम–विकृति से उबार नहीं पाए हैं, उन्हें विकृति दंश भी झेलना पड़ा है। काम और उसके मनोविज्ञान से संबंधित इन लघुकथाओं में यौन–मनोविज्ञान, विकृति–दंश एवं विरेचन–दर्शन का सा़क्षात्कार होात है, और लेखक की यही उपलब्धि है।
‘अतृप्त’ शीर्षक लघुकथा में पत्नी गाँव में अपने सास–श्वसुर के साथ रहती है और पति शहर में कमाता है। माह दो माह पर वह अपने घर जाता है, तो पाता है कि पत्नी जीवन के प्रति उदासीन है तथा न तो अपने स्वयं पर ध्यान देती है और न बच्चे पर। जैसे कि उसका मन मर गया हो। और वह जी नहीं रही अपनी लाश ढो रही हो। अपनी माँ के सुझाव पर जब पति उसे अपने साथ रखने को तैयार हो जाता है, तब उसकी पत्नी प्रसन्न हो जाती है। वस्तुत: जीवन के प्रति उसी निराशा एवं कुंठा अतृप्त काम का प्रतिफलन थी।
‘घर लौटते कदम’ पति, पत्नी वियोग में शरीर की भूख से विवश हाकर होटल में कॉलगर्ल का विकल्प ढूँढ़ लेता है। परंतु एक दिन जब उसे एक कमसिन लड़की पेश की जाती है, तो उसे उसमें अपनी जवान हो रही बेटी का चेहरा नजर आता है। वह पीछे हट जाता है, उसका मन ग्लानि से भर जाता है। उसके हाथ पर तीन सौ रूपए रख कर उसे बिना कुछ किए जाने देता है। यह भी अतृप्त होते हुए भी पर–पुरुष से सम्बन्ध स्थापित नहीं करता और अवसादवादी होकर स्वयं को कष्ट देता रहता है, वहीं ‘घर लौटते कदम’ का अतृप्त पति वैकल्पित पर –नारी की व्यवस्था करता है, कॉलगर्ल से अपनी तृप्ति प्राप्त करता है। यह और बात है कि घटना–विशेष के कारण वह ग्लानि से भर उठता है और उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। यदि इन दोनों लघुकथाओं को आमने–सामने रखें तो पाएँगे कि बहुत गहरे से नारी अतृप्त होते हुए भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती क्योंकि नारियों में असीम धैर्य होता है। वह स्वयं को कष्ट देती है परंतु अपने सुख के लिए कुल्टा नहीं हो जाती। अपने असीम धैर्य के कारण ही नारी पुरुष के साथ किसी लम्बी लड़ाई में जीत जाती है, जबकि उसके स्थान पर ‘घर लौटते कदम’ का अतृप्त पुरुष मर्यादा का उल्लंघन करता है तथा कॉलगर्ल से तृप्ति प्राप्त करता है। पुरुष स्वभावत: ही धैर्य हीन होता है, इसलिए स्त्री के साथ किसी लम्बी लड़ाई में हार जाता है। परिस्थितियाँ एक होते हुए भी नारी का व्यवहार एवं मनोविज्ञान पुरुष से काफी भिन्न होता है।
‘खिलते फूल’ में टेम्पो में सट कर बैठे दो अपरिचित विपरीत लिंगी सहयात्री टेम्पो के हिलने–डुलने से शरीर के स्पर्श–घर्षण सुख का आनंद लेते है, क्योंकि दोनों का संभवत: विपरीत लिंगी से इस प्रकार स्पर्श के आनंद का प्रथम अनुभव है। यह किसी प्रकार भी प्रेम नहीं है। इस कथा में केवल विपरीत लिंगियों में परार आकर्षण की स्वाभाविकता तो दिखाई ही गई है परंतु, सूक्ष्म रूप से लेखक ने यह भी संकेत करने का प्रयास किया है कि यह स्पर्श–सुख एक प्रकार की विकृति है, जिसमें दोनों के मन शरीर से आगे बढ़कर अपनी कल्पना–शक्ति से आनंद प्राप्त कर रहे हैं, शरीर का स्पर्श तो मात्र प्रेरक तत्त्व है। वस्तुत: यह एक दूसरे के लिए एक दूसरे के द्वारा की गई आत्मरति है। परन्तु ‘स्मृति–दंश’ में पुरुष चरित्र द्वारा अपनी प्रेयसी की वियोग जनित अनुपस्थिति में पूर्व मिलन–स्थल पर उसकी स्मृति के सहारे की गई रति आत्मरति ही है।
‘बीती विभावरी’ और ‘सजा’ के मूल में एक ही घटना है–स्त्री का अपने पति को युवावस्था में ही छोड़कर अपने विधुर पिता के पास लौट आना अपने भाई–बहनों को पालना–पोसना तथा पिता की सेवा करना। ‘सजा’ की नायिका अपने भाई–बहन की माँ ही नहीं बनती वरन् किसी दिन अपने पिता की अंकशायिनी भी बन जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पिता ग्लानि से भरकर आत्महत्या कर लेता है और वह अंतत: घुटन भरी जिन्दगी जीने को विवश हो जाती है। यही उसकी सज़ा हे। यहाँ पुरुष केवल पुरुष है और स्त्री केवल स्त्री है पुत्री नहीं। यह आदिम प्रवृत्ति है। लेखक ने यह संकेत करना चाहा है कि पुत्री को भी अपने पिता से भी मर्यादित संबंध ही रखना चाहिए अन्यथा फिर कोई सम्बन्ध ही नहीं बचेगा। परंतु ‘बीती विभावरी’ की नायिका अपने पति को छोड़कर पिता एवं भाई–बहनों के पास आती है, उनके प्रति दायित्व का निर्वाह भी करती है। माता–पिता स्वर्गवासी हो जाते हैं और अंतत: उसे छोड़कर अलग रहने लगते हैं। वह नौकरी करती रहती है और एक दिन रिटायर हो जाती है। जिस दिन रिटायर होती है, उस दिन उसके पति का फोन आता है, और पति के निमंत्रण पर वह उनके साथ रहने को तैयार हो जाती है। सेवा निवृत्ति से उत्पन्न उसकी उदासी एवं उद्देश्यहीनता से वह तुरन्त उबर जाती है। इस कथा में वासना के मर जाने पर उपजे प्रेम को दर्शाया गया है, जिसमें पति का त्याग महिमामंडित हुआ है। यह काम का उदात्त स्वरूप है।
‘शाम का भूला’ में’ पत्नी पूजा–पाठ के नाम पर एक मंदिर के पुजारी से सम्बन्ध जोड़ लेती है और धीरे–धीरे पति का ख्याल करना बिल्कुल छोड़ देती है। पति अंतत: एक परित्यक्ता से दूसरा विवाह कर लेता है। यहाँ पति या पत्नी दोनों के काम सम्बन्ध शरीर के धरातल की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही है। परंतु ‘निष्ठा’ में पत्नी के अपने रोग के कारण काम सम्बन्ध से विलग हो जाने के बाद भी पति, पत्नी के प्रति निष्ठावान रह जाता है। यहाँ पति–पत्नी के बीच जो सम्बन्ध रह गया है, वह मन के धरातल पर है। लेखक ने यह दिखाना चाहा है कि जो लोग जीवन में काम–तृप्त होते हैं उनमें विकृतियाँ और अनैतिकता पनप नहीं पाती।
‘यह भी जीवन है’ तथा ‘सुबह ज़रूर होगी’ एक ही कथा के दो रूप हैं। संतानोत्पत्ति में पति का अक्षम होना ही दोनों कथाओं के मूल में है। ‘यह भी जीवन है’ का पति जहाँ हताशा और निराशा में डूब जाता है और पत्नी उसकी इस कमजोरी का नाज़ायज़ फायदा उठाकर नौकर से संतान उत्पन्न करती है और पति के विरोध पर उसे महाभारत एवं रामायण का हवाला देकर कहती है, ‘मैंने नियोग कराया है, कोई गुनाह तो नहीं किया?’’ वही ‘सुबह ज़रूर होगी’ का पति चिकित्सक से चिकित्सा करवाने के प्रति आश्वस्त है तथा उसकी पत्नी भी उसके प्रति निष्ठावान है फलत: नियोग के नाम पर नाजायज़ संतानोत्पत्ति की खतरनाक स्थिति उत्पन्न नहीं होती। परंतु ‘यह भी जीवन है’ का पति जब पिता बनता है तब कुछ वर्षों पश्चात् उसे अपने तथाकथित पुत्र पर भी ममता होने लगती है। यहाँ संतान–सुख का, वात्सल्य प्रेम का भाव जो कथा के अंत में आया है, पत को शांति देता है और पाठक को भी।
‘जीवन का सच’, ‘स्थूल से सूक्ष्म की ओर’ और ‘विपरीत दिशा में’ –इन तीनों लघुकथाओं में विधवा–विवाह की समस्या यौन–मनोविज्ञान के धरातल पर उठाई गई है। ‘जीवन का सच’ में विधवा के ससुर अपने बचे हुए दो बेटों में बड़े बेटे से अपनी भाभी से विवाह करने को कहते हैं। परंतु वह इन्कार कर देता है, और वह अपनी भाभी को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह शरीर नहीं मन के धरातल पर जीता है। छोटा लड़का अपनी भाभी से विवाह को स्वेच्छा से तैयार है और उसकी भाभी भी। इस कथा में युवा, विधवा स्त्री की शरीर की आवश्यकता को महत्त्वपूर्ण ठहराया गया है और उसको सम्मान दिया गया है परंतु ‘विपरीत दिशा में’ में सास के लाख समझाने पर भी जवान विधवा बहू देवर जैसे पुरुष से विवाह को तैयार नहीं होती और उम्मीदवार पुरुष को लक्ष्मण जैसा देवर बना कर दम लेती है। यह उम्मीदवार पुरुष आकाश स्वयं को लक्ष्मण जैसे देवर के रूप में उसे पाने का वचन दे देता हे और उनके तत्काल भरण–पोषण की जिम्मेदारी भी ले लेता है। यह और बात है कि वह ऐसा वचन देकर असहज हो जाता है फिर भी अपने निर्णय पर अड़े रहने का निश्चय करता है।
‘स्थूल से सूक्ष्म की ओर’ में युवा विधवा पत्नी अकेली है अपने बच्चों की जिम्मेदारी के साथ। वह पति वियोग में विक्षिप्त रहने लगती है, स्वप्न में उसके पति उसे निर्देश देते हैं कि वह इस स्थिति से उबरे और या तो वह दूसरी शादी कर ले या फिर संघर्ष करे तथा बच्चों का पालन–पोषण करे। वह निर्णय करती है कि वह दूसरी शादी नहीं करेगी और अपने घर एवं बच्चों को अपना एवं पति का स्नेह देगी तथा स्थितियों से जूझेगी। इन तीनों लघुकथाओं में युवा विधवा के मनोविज्ञान का गहरा अध्ययन प्रस्तुत किया गया है तथा विभिन्न स्थितियों से साक्षात्कार कराया गया है। पर तीनों लघुकथाओं में विधवा युवा स्त्रियों की काम सम्बन्धी आवश्यकता का प्रश्न उठाया गया है। अब तक की हिन्दी लघुकथा में विधवा परंतु युवा स्त्री चरित्र के बारे में इस दृष्टिकोण को लेकर नहीं लिखा गया है। अभी तक की कथाओं में तो उस भारतीय युवा स्त्री का चित्रण मिलता है जिसके लिए पुनर्विवाह अनैतिक है। परंतु इन कथाओं में अभिभावक,विशेषकर सास–ससुर, स्वयं ही अपनी युवा विधवा बहुओं के पुनर्विवाह का प्रस्ताव करते हैं। डॉ0 पुष्करणा का यह दृष्टिकोण एक बार फिर से उनके समष्टिबोध एवं आदर्शोंन्मुखी होने का स्मरण दिलाता है।
इसी प्रकार ‘मृगतृष्णा’,‘फंदे’ और ‘वास्तविकता’ इन तीन लघुकथाओं में विधुरों के पुनर्विवाह की समस्याओं तथा उनकी जैव शारीरिक आवश्यकता का प्रश्न उठाया गया है।
‘मृगतृष्णा’ एक प्रौढ़ विधुर की कथा है, जिसमें उसके पुत्र से रिश्ते के लिए मित्र द्वारा लाए गए एक युवती के फोटो को देखकर यह समझता है कि उसकी शादी के लिए फोटो आया है और सोचते ही वह अपने विवाह के पक्ष में मन ही मन तर्क बटोरने लगता है। यह जो उसका चिंतन कथाकार द्वारा प्रस्तुत किया गया है, उसी में उस अतृप्त काम विधुर का मनोविश्लेषण किया है। वह काफी सोच–विचार के बाद अपने मित्र को रिश्ता पक्का करने के लिए कहता है। परंतु जैसे ही उसका मित्र कहता है, कि जरा अपने लड़के से भी पूछ तो लो, आखिर जीवन उसे ही गुजारना है, तो वह दिवास्वप्न की दुनिया से एक झटके–के साथ बाहर आ जाता है और भीतर–ही–भीतर स्वयं पर शर्म करने लगता है। मित्र को लड़की के माता–पिता को भेजने के लिए कहकर विदा करता है साथ ही आश्वासन देता है कि उसका पुत्र उसकी बात अवश्य मानेगा।
इस कथा में यह दिखाया गया है कि शरीर की भूख को सामाजिक नियमों के नाम पर मिटाया नहीं जा सकता, दबाया भले ही जाए। दूसरी बात यह कि यदि समाज अनुपस्थित हो, तो व्यक्ति स्वयं में केवल व्यक्ति होता है, पुरुष पुरुष होता है पिता या समाज का हिस्सा नहीं होता। परन्तु जब इस कथा में मित्र द्वारा विधुर को एक युवा पुत्र के पिता के रूप में सम्बोधित किया जाता है कि ‘जरा लड़के से तो पूछ लो’ तो उस पुरुष व्यक्ति के सामने समाज उपस्थित हो जाता है, जिसका वह हिस्सा है, जिसकी मान्यताओं में वह बंधा है कि ‘‘मैं उसको क्या मुँह दिखाता कि जवान बेटे के होते हुए मैं दूसरी शादी करूं!’’ एक युवती को फोटो देखकर उसके पुरुष मन में नारी के प्रति आकर्षण हुआ था, जो उसे कामोत्तापन हुआ था, उसे सामाजिकता शमित कर देती है, और वह उस युवती को अपनी पतोहू बनाने को तैयार हो जाता है। परन्तु क्या वास्तव में उसके भीतर का व्यक्ति, पुरुष पात्र मान जाता है? नहीं! वह तो समाज के प्रति निष्ठावान अपने व्यक्तित्व के दूसरे पहलू से समझौता करता है, ‘‘चलो, कोई बात नहीं, मेरी न सही, मेरे बेटे की पत्नी बनकर ही सही, इस घर में आ जाए, उसे चलते–फिरते देखकर ही आत्मा तृप्त होती रहेगी...।’’ कथा का निष्कर्ष यह है कि व्यक्तित्व के मूलाधार में काम ही है और कुछ नहीं।
‘मृगतृष्णा’ के ठीक विपरीत है ‘फंदे’ का विधुर जो युवा पुत्र की शादी न करके अपनी शादी कर लेता है, जब कि वह इतना बूढ़ा है (साठ साल) कि उससे ‘कुछ’ होता नहीं है। बेटा पच्चीस का और पत्नी ले आए बाइस की। दोनों की अपनी–अपनी शारीरिक आवश्यकताएं हैं और दोनों एक–दूसरे के योग्य भी। दोनों यह सब देख–सुनकर पश्चात्ताप करने लगते हैं और निश्चय करते हैं कि सारी सम्पत्ति अपनी पत्नी की होने वाली संतान के नाम वसीयत करके घर छोड़ देंगे। इस कथा का भी केवल एक ही निष्कर्ष है कि ारीर के बूढ़ा हो जाने पर भी मन का काम नहीं मरता। परंतु शरीर के बूढ़ा हो जाने पर यदि कोई युवती से विवाह करेगा तो उसे पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के सिवा कुछ हासिल न होगा। इस कथा में विवाहोत्तर पश्चात्ताप की ताप में तृप्त वृद्ध व्यक्ति का मनोविश्लेषण है।
परंतु विधुर–विवाह के कथ्य पर ही आधारित तीसरी लघुकथा ‘वास्तविकता’ में यथार्थ का एक भिन्न पहलू उभर कर सामने आया है। यहाँ विधुर विवाह प्रसंग का कथा–नायक युवा–पुत्र है, जो अपने पिता द्वारा पुनर्विवाह करने का विरोध करता है और होस्टल में रहने लगता है। विरोध ओर घृणा के बावजूद वह अपने पिता से प्रेम करता है। विधुर पिता, बेटे के विरोध करने पर उसे समझाते हैं कि वह अभी वृद्ध नहीं हुए हैं और उनकी भी अपनी ‘बायोलाजिकल नीड’ है। यदि वह दिखावे के लिए शादी न करते तो चुपके–चुपके कोठों पर झख़ मारते। अत: ठीक रास्ता यही है कि उन्होंने शादी कर ली। युवा–पुत्र कुछ दिनों के बाद यह महसूस करते थे तथा वे पाखंडी और दुश्चरित्र नहीं हैं, तो सामाजिकता के नाम पर पिता के प्रति उसकी घृणा समाप्त हो जाती है। इस कथा में विधुर द्वारा विवाह करने पर युवा पुत्र की मन:स्थितियों का विश्लेषण किया गया है। ‘मस्तिष्क में उगते जंगल’ में शराबी–पिता अपनी बेटी पर ही कुदृष्टि रखता है। उसकी पत्नी केवल पत्नी नहीं उसकी बेटी की माँ भी है। अत:,किसी प्रकार बेटी को तुरंत अपने पति की नज़रों से दूर कर देती है, तथा उसे अपने जेठ के पास गाँव भेज देती है। बाद में उसकी आनन–फानन में, बिना उसके पिता को जानकारी दिए विवाह कर विदा कर देती है, तब लौट कर अपने पति के पास आती है। यहाँ पिता का पुत्री के प्रति जो आकर्षण है वह स्नेह के आध्यात्मिक धरातल से उतर कर शरीर के धरातल पर आ जाता है। समाज के प्रतिनिधि स्वरूप शराबी पिता की पत्नी उपस्थित हो कर बेटी का बाप का शिकार होने से बचाती है तथा बाद में पति के प्रति अपनी घृणा के कारण पति की हत्या कर देती है। इस कथा में फ़्रायड के इस सिद्धांत का–कि विपरीत लिंगी चाहे सामाजिक रिश्ते में कुछ भी हों, काम के कारण ही आकर्षित होते हैं–का उपयोग किया गया है, परंतु यह आकर्षण शरीर के धरातल पर भी उतर जाता आता है। परंतु इस कथा में किसी भी पात्र का मनोविश्लेषण नहीं हुआ है। अच्छा होता यदि पिता का ही मनोविश्लेषण किया जाता अथवा पुत्री को यह जानकारी दी जाती कि उसका बाप उसे किस निगाह से देखता है और फिर उसी पुत्री का भी मनोविश्लेषण होता। परंतु ऐसा नहीं हो सका है और इस कारण यह रचना एक सामान्य कथा बन कर रह गई है।
‘पुरुष’ शीर्षक लघुकथा में भी सरपट भागते काम के अंधे घोड़े पर सामाजिकता का कशाघात किया है लेखक ने। यहाँ भी मन के सांप को, जो वक्त की असम्पृक्त भीड़ में विपरीत लिंगी की भनक मिलते ही फुफकारने लगता है, अंतत: सामाजिकता के पिटारे में बंद कर दिया जाता है। अंकल की उम्र में आकर भी पुरुष मात्र पुरुष रहता है और दुनिया की समस्त नारियाँ उसके लिए मात्र नारी।
बस की यात्रा की अपनी विशेषता होती है जो किसी अन्य सवारी में नहीं होती। बस में बैठने की व्यवस्था ही ऐसी होती है कि व्यक्ति बस खुलने के थोड़ी देर बाद ही उस पर सवार व्यक्ति अपने मन की गुफा में प्रवेश कर जाता है। ऐसी ही स्थिति में ‘पुरुष’ के मार्कण्डेय जी अपने आप में डूबे हुए हैं कि इतने में दो नारी स्वर पीछे की सीट से सुनाई पड़ते है और सभ्यता की पिटारी का ढक्कन खुल जाता है तथा मन का साँप मचलने लगता है। परंतु समाज में हज़ारों वर्षों की परम्परा है कि अंकल और भतीजी में काम सम्बन्ध पाप है, इसलिए जैसे ही लड़कियाँ उन्हें अंकल कह कर सम्बोधित करती है कि वह तोते की तरह बोलते है ‘अच्छा बेटा’ और मार्कण्डेय जी के मन का साँप पिटारी में घुस कर दुबक जाता है। तत्पश्चात् वे शांत हो जाते हैं।
‘मन के सांप’ में मायके गई पत्नी की स्मृति नामहीन पुरुष पात्र कथा–नायक को परेशान किए हुए है। दफ्तर की मिसेज सिन्हा को स्मरण करके वह और भी बेचैन हो उठता है। उसे उस वक़्त अपनी पत्नी की साड़ी में भी उसे पत्नी का अहसास होता है और उसे सीने से लगाता है, चूमता है और तह करके सिरहाने रख लेता है। युवा–नौकरानी से मुखातिब होने पर चोर–दृष्टि से उसके यौवन को पहली बार भरपूर दृष्टि से देखता है और दंग रह जाता है। नौकरानी उसे बहुत सुंदर लगती है। उसे पत्नी का वियोग अंतत: सोने नहीं देता। उसे कभी मिसेज सिन्हा का ध्यान आता है, तो कभी नौकरानी के यौवन का नशा चढ़ने लगता है। मन बहलाने के लिए और इन विचारों से मुक्त होने के लिए वह पत्रिका उलटने–पलटने लगता है। पत्रिका में सिने–तारिका की ब्लोअप तस्वीर देखता है और उसे छूता है जैसे कि उसके शरीर को ही छू रहा है। बेचैनी कम करने के लिए वह पानी पीने उठता है तो उसकी नीयत से बेखबर सोई हुई नौकरानी पर उसकी नीयत खराब हो जाती है। जैसे ही वह नौकरानी को चूमना चाहता है कि उसके मन में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का ख्याल उभर आता है। वह अपने मन को दबाता है, परंतु मन है कि धक्का देकर नौकरानी की ओर बढ़ता है परंतु फिर उसके मन में पत्नी की आकृति उभर आती है। इस बार उसकी पत्नी के चेहरे पर मुस्कुराहट के बदले घृणा का भाव है। वह सिहर उठता है। वह पुन: अपने पलंग पर लौट आता है और नौकरानी को आवाज़ देकर उसे जगा देता है, और पानी माँग कर पीता है। उसे दूसरे कमरे में जाकर सोने को कह देता है और अंतिम आदेश देता है, ‘‘अंदर से कमरा बंद कर लेना।’’ अभी भी उसे अपने आप से डर लगता है कि कहीं वह नौकरानी के साथ कुछ कर न बैठे। वह बाथरूम में जाता है और उस अर्धरात्रि में भी स्नान करने लगता है।
इस लघुकथा में पुरुष–पुरुष है। अकेला व्यक्ति, जिन क्षणों में समाज से अलग रहता होता है नर या मादा होता है, समाज की व्यवस्था में बंधा रिश्ते नाते की ओवर कोट टाँगने की खूँटी नहीं होता। परंतु व्यक्ति को आखिरकार जिंदा रहने के लिए समाज में,समाज का होकर रहना है इसलिए वह अपनी प्रतिष्ठा से डरता है, उस प्रतिष्ठा से, जिसका स्वरूप अप्रत्यक्ष हैं, और उस पत्नी से डरता है जो कि उस वक्त अनुपस्थित है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति समाज से प्राप्त सुविधाओं के छिन जाने का खतरा मोल नहीं ले सकता। इस लघुकथा में महत्त्वपूर्ण दार्शनिक तथ्य यह है कि व्यक्ति प्रथमत: या तो नर है या मादा तीसरा कुछ नहीं। मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह समाज के साथ, समाज की व्यवस्था के साथ, चाहे वह विवाह की व्यवस्था हो या उसके वृहत्तर रूप परिवार की व्यवस्था हो अथवा उससे भी व्यापक समाज का तंत्र हो, पैदा नहीं होता। वह तो भय, आहार, निद्रा व मैथुन जैसी प्राकृतिक ओर आदिम प्रवृत्तियों मात्र के साथ पैदा होता है जिसमें वह या तो नर होता है या मादा। इसलिए जब भी व्यक्ति तन्हा होता है, जिस क्षण भी समाज अनुपस्थिति होता है उसी क्षण वह नर या मादा हो जाता है। तब वह नाम–कुल–गोत्र रिश्ते–नाते इत्यादि बाह्याडम्बरों से मुक्त नंगा मनुष्य मात्र हो जाता है नर या मादा। ना हो या मादा, उसके शरीर में मूलाधर चक्र पर जिस सर्पिल ऊर्जा को बाँध कर, दबा कर रखा गया है फुँफकारने लगती है, और साथ ही मन में जन्म के साथ जिस कामेषणा के साँप को सामाजिकता, सभ्यता या संस्कार से बुनी पिटारी में बंद कर दिया गया है, वह भी फुँफकारने लगता है। इन्हीं साँपों का साक्षात्कार इस लघुकथा में कराया गया है।
इस लघुकथा की अथवा कह लीजिए साहित्य की भी सीमा यह है कि साँप को फिर से सामाजिकता की पिटारी में बंद कर दिया गया है। समाज नामक व्यवस्था के हित में यही हो सकता था। जब से समाज बना है सभ्यता का जैसे–जैसे विकास हुआ है मनुष्य ने प्रकृति की चीजों को प्रकृत रहने नहीं दिया है। और पूरे संसार के समस्त मनोरोगों का कारण भी यही है। साहित्य दार्शनिक प्रश्न उठा तो सकता है परंतु उनका समाधान नहीं कर सकता। इस ‘मन का साँप’ शीर्षक लघुकथा की यह सबसे बड़ी सफलता है कि इसने मौलिक दार्शनिक प्रश्न को उठाया है? मन का साँप सवालिया निशान बन पर फुँफकारता हुआ खड़ा है, आज प्रत्येक व्यक्ति के सामने। यदि इन साँपों को आप निरंतर मारते रहें तो भी ये खत्म नहीं होंगे। मन के सांप में एक गहरी प्रतीकात्मकता हे। साँप विष और काल का, ऊर्जा और गति का, काम और अहं का प्रतीक है। सांप आदिम प्रवृत्ति का द्योतक है। भय आहार निद्रा और मैथुन के साथ उत्पन्न मनुष्य ने सभ्य बनकर इन प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करने का उपक्रम किया है और करोड़ वर्ष के मानव वंश का यही इतिहास है। भय के निराकरण केलिए समाज ने सुरक्षा व्यवस्था की है, कानून बनाया है और पुलिस बल की स्थापना की है। फिर भी भय मिटा नहीं है। सुरक्षित व्यक्ति के मन का भय अहंकार में रूपांतरित हो गया है। आहार के लिए आज भी पूरी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा संघर्ष कर रहा है। निद्रा पर व्यक्ति को आज तक विजय नहीं मिली है और कभी मिलेगी भी नहीं। शेष बची मैथुन नामक प्रवृत्ति की स्थिति यह है कि इसके साथ सहयोग करके ही इसे जीता जा सकता है, इसके साथ लड़कर नहीं। सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत आहार का सीधा संबंध अर्थ से है। अत: मनुष्य अपने पूरे जीवन में अर्थ, अहं और काम से निर्देशित और संचालित होता है। मनुष्य का पूरा क्रियाकलाप एवं व्यवहार इन्हीं तीन कारक तत्वों से परिचालित है। इस पुस्तक में संग्रहीत लघुकथाओं के चरित्र अर्थ से नहीं अहं और काम से संचालित हैं। और इसीलिए इस पुस्तक का नाम ‘मन के सांप’ होना चाहिए। इससे अधिक सटीक नाम दूसरा नहीं हो सकता। क्योंकि सम्पूर्ण पुस्तक में अहं और काम से ही सम्बन्धित लघुकथाएँ हैं। इस पुस्तक में मन के साँप के ज़हर की मुखालफत अवश्य की गई है परंतु ‘जहर के खिलाफ’ में वह प्रतीकातमकता, संभावना, अर्थ की व्याप्ति नहीं जो मन के सांप में है। अत: इस पुस्तक का शीर्षक ‘मन के साँप’ ही होना चाहिए।
‘मन के साँप’ इस पुस्तक की श्रेष्ठ लघुकथा है।
स्मृतिगंधा’ शीर्षक लघुकथा का पुरुष चरित्र इस पुस्तक की शेष रचनाओं के चरित्रों से नितांत भिन्न है और अपने आप में अनूठा। इसमें पुरुष और स्त्री के बीच का सम्बन्ध भी अंतत: सेक्स है। परंतु यहाँ काम का उदात्तीकरण हो चुका है और सेक्स की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से होने पर भी वह अशरीरी इस अर्थ में है कि यहाँ शरीर–भोग की कामना नहीं है यहाँ यदि पुरुष चरित्र की कोई कामना है भी तो स्नेह की, अकेलापन दूर करने की और कुछ नहीं।
इस लघुकथा का नायक काम के प्रति अपने ईमान के कारण अतृप्त होते हुए भी काम विकृत नहीं है। अकेलापन दूर करने के लिए उसने जिस युवती सेविका को रखा उससे स्पष्ट कहा–‘‘तुम मेरी बेटी की उम्र की हो, किन्तु तुम्हें पत्नी की तरह तो नहीं बल्कि एक मित्र की तरह रहना होगा।’’ यदि वह पुरुष यह कहता कि तुम तो मेरी बेटी की उम्र की हो और फिर तुम्हें मुझसे क्या खतरा तो निश्चित ही उस युवती के लिए खतरा होता। वह एकांत पाकर अवश्य ही बलात्कार नहीं भी करता तो मानसिक प्रतिष्ठा के डर से शारीरिक रूप से बलात्कार नहीं भी करता तो मानसिक तौर पर ज़रूर करता। परंतु उसने कहा कि मित्र की तरह रहना होगा तो उस पर कोई खतरा नहीं हुआ। उस युवती के प्रति उसकी जो प्रेमाभिव्यक्ति होती है, वह उसे सीने से लगाने,माथा चूमने या गाल चूमने तक ही सीमित रह जाती है। पहले तो उस युवती को अपनी स्थिति पर रोना आता है परंतु विवशता के कारण वह चुप रह जाती है। बाद में उसे हरीश बाबू की ये सब हरकतें अच्छी लगने लगती हैं। कुछ दिनों बाद वह स्वयं चाहती है कि वह अकेले में वह सब उसके साथ करे जो सामान्य तौर पर अकेली नारी को पाकर एक पुरुष करता है। परंतु ऐसा नहीं होता। एक दिन वह मर भी जाता है और मरने के पूर्व अपनी सारी जायदाद उसके नाम वसीयत कर देता है। जब युवती कहती है–‘‘आप मुझे पत्नी बना सकते थे। मैं चाहती भी थी!’’ तो हरीश बाबू कहते है–‘‘नहीं। यह अधिकार मैं जिसे देना चाहता था, उसने मुझे धोखा दिया था। किंतु मैं आज भी उसे चाहता हूँ। अत: उसे भुलाने के लिए मैंने जीवन में अपने पैसे के बलबूते पर तमाम सहारे ढूँढ़े थे, किंतु मुझे सब मिथ्या लगे थे। आज मैं अपनी उम्र एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को समझने लगा हूँ। खैर...।’’
हरीश बाबू के मर जाने पर युवती संकल्प करती है कि वह अपना जीवन उनकी स्मृति में व्यतीत कर देगी।
इस कथा में स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सामान्य नहीं है। प्रेमिका को पत्नी के रूप में न पा सकने के कारण, एकाकी हुआ पुरुष, अकेलेपन को दूर करने के लिए जिस युवती को सेविका के रूप में अपने पास रखता है उसके साथ प्रेम तो करता है परंतु उस प्रेम को दाम्पत्य या वैवाहिक संबंध में नहीं बदलता। क्योंकि उसे अपनी उम्र और सामाजिक प्रतिष्ठा का ख्याल हो आता है। किन्हीं भावानात्मक क्षणों में उसे सीने से लगाकर, चूमकर अपनी प्रेमाभिव्यक्ति तो करता है परंतु इसे फिर आगे नहीं बढ़ने देता।
पुरुष उम्रदराज और अनुभवी है। साहित्यकार है, प्रबुद्ध है तथा उसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का ख्याल भी है इसीलिए वह काम संबंधों की उपेक्षा करता हुआ आगे निकल जाता है और लोक ही नहीं लोकोत्तर की यात्रा पर चला जाता है परंतु नारी युवती है और पहली बार पुरुष के सम्पर्क में आई है सो उसके मन में उक्त पुरुष के प्रति प्रेम उपजता है और प्रेम की इसी अदृष्ट डोर से बंधी वह पुरुष के मर जाने पर भी उसकी स्मृतियों से चिपकी रहती है। नारी– सम्बन्ध के जिस बिन्दु पर प्रबुद्ध पुरुष को सब मिथ्या लगने लगता है वहाँ से उसका महाभिनिष्क्रमण होता है और वह मोह की स्थिति से प्रस्थान कर जाता है, मुक्त हो जाता है यहाँ तक कि लोकोत्तर की यात्रा पर चला जाता है, परंतु पुरुष–संबंध के उसी बिन्दु पर उस नारी को सब सत्य लगने लगता है वह जो उसका वास्तव में कोई नहीं है, इसके प्रति मोह में बंध जाती है, वह ठहर जाता है, फिर भी उसके मोह में बंधी रह जाती है, उसकी स्मृतियों के मोह में। आखिर ऐसा क्यो? शायद इसलिए कि पुरुष नारी को अपना एक हिस्सा मानता है, अपना पूरा वजूद नहीं, वह समर्पित नहीं होता, जबकि नारी जिस पुरुष से पहली बार सम्बन्ध स्थापित करती है, प्रेम करती हे उसे अपना हिस्सा मात्र नहीं मानती, उसे अपना पूरा वजूद मानती है, उसके प्रति वह समर्पित होती है।
अत: इस लघुकथा में पुरुष एवं नारी का जो संबंध है उसमें सेक्स ज़रूर है, परंतु यह न तो शारीरिक सेक्स है और न मानसिक सेक्स यह आध्यात्मिक सेक्स है, यहाँ सीमा का नहीं साइकी का मिलन है।
इस संग्रह की सभी लघुकथाओं मे जब भी सेक्स ने, मन के सांप ने फन निकाला है उसे समाज ने सभ्यता के पिटारे में बंद कर दिया है। व्यष्टिबोध की इन लघुकथाओं का अंत समष्टिबोध के धरातल पर ही हुआ है परंतु ‘स्मृतिगंधा’ में मन के साँप को सभ्यता के पिटारे में बंद नहीं किया गया है बल्कि संस्कृति के प्राकृतिक मुक्तागंन में उसे मुक्त कर दिया गया है। और यदि सांप को छोड़ा न जाए तो मनुष्य को काटेगा भी नहीं। दरअसल सभ्यता मानव मन की विकृतियों के दमन का नाम है और संस्कृति उन विकृतियों के विरेचन का नाम। सभ्यता जड़ और सड़ा हुआ तालाब है और संस्कृति बहती हुई धारा है।
चूंकि डॉ0 सतीशराज पुष्करणा मूल रूप से समष्टिबोध के लेखक हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि वे ‘जहर के खिलाफ’ हो जाते हैं और ‘मन के साँप’ को सभ्यता की पिटारी में बंद कर देते हैं परंतु ‘बदलती हवा के साथ’ की कुमुदनी’ शीर्षक लघुकथा में विकृति का दमन नहीं विरेचन हुआ है, मन के साँप को मुक्त किया गया है। डॉ0 पुष्करणा की ये दोनों लघुकथाएँ सभ्यता नहीं संस्कृति की कथाएं हैं। और ऐसी ही रचनाएँ लघुकथा का भविष्य हो सकती हैं। पहल हुई है और आशा की जा सकती है कि डॉ0 पुष्करणा भविष्य के ‘जहर के खिलाफ’ होने के कारण ‘मन के सांप’ को आडम्बरी सभ्यता की पिटारी में बंद नहीं करेंगे प्रकृति के मुक्तांगन में विचरने हेतु छोड़ देंगे बल्कि ज़हर की मुखालफत छोड़कर उसे समझने का प्रयास करेंगे क्योंकि ज़हर दवा का भी काम करता है, फिर सेक्स तो संजीवनी बूटी ही है, निर्भर करता है इस बात पर कि उसका दमन हुआ है कि उदात्तीकरण !
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