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दस्तावेज़- पी.के. पारक्कड़वु
मैंने क्यों लघुकथा की विधा को अपनाया ?
पी.के. पारक्कड़वु

आरसु: पारक्कड़वुजी, मैं चाहूँगा कि इस बातचीत की शुरूआत आप अपनी पहली रचना से जुड़े यथार्थ–अनुभव से करें।
पारक्कड़वु : हाँ, सबसे पहले मैं अपनी पहली रचना से जुड़ा एक अनुभव बताऊँगा–
एक गाँव के लोग खाड़ी जाते हैं और बहुत सा धन कमाकर वापस गाँव आते हैं।
सब कहीं परफ्यूम की गंध । पूरे वायुमंडल में रोथमेंनस् के धुँआवलय।
उस गाँव में एक आदमी मर जाता है। उस घर में लोग इकट्ठे होते हैं। बड़ी भीड़ है। उधर एक डाकिया आ जाता है। मरा आदमी मय्यत–खाट पर से झटपट जाग उठता है। वह यों कहता है–‘मेरा वीसा आ गया।’
कहानी इतनी ही थी। ‘चन्द्रिका’ साप्ताहिक में यह लघुकथा प्रकाशित हुई थी। लघुकथा पर कोलाहल मच गया। सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश उस लघुकथा में मैंने एक गाँव का नाम भी लिख दिया था। उस गाँव के लोग इसे आक्षेप मानकर आपे से बाहर हो गए। आम सभा हुई। धमकियाँ मिलीं। बाजार से आकर एक आदमी ने पूछा–‘क्यों बे, तूने वह कथा लिखो थी?’ नसीब की बात है। कुछ लोग मेरे पक्ष में भी थे।
इस बीच मशहूर कहानीकार कुज्जब्दुल्ला का एक पत्र मिला। एक ही वाक्य का खत था। मैं कोई नामी कहानीकार नहीं था। इस विधा में एक निरा बालक था। कहानी बढि़या है–बधाइयाँ–यही खत का वाक्य था।
आरसु : इसके बाद।
पारक्कड़वु : अनेक साल गुजर गए। मेरी लघुकथा ने कई लोगों को प्रेरित किया।
मेरे अवचेतन मन में किसी ने अनजाने यह वाक्य अंकित किया–‘लघुकथा ही बड़ी कथा है।’ इसी वजह से मैं आज भी लघुकथाएँ लिख रहा हूँ।
आरसु : सिर्फ़ लघुकथाएँ ही क्यों?
पारक्कड़वु : आप ही नहीं, बहुत से दोस्त लोग मुझ से पूछते हैं–आपकी तमाम कथाएँ क्यों छोटी हो जाती हैं? और भी लंबी कहानियाँ लिख सकते है न?
यह एक तथ्य है कि मिनी कथा या लघुकथा से अभिहित विधा में ही मैंने अधिक रचनाएँ की हैं। क्यों ऐसा होता है? इस प्रश्न का उत्तर है–यही मेरा दोस्त है। विशाल राजमार्ग को छोड़कर मैं अपनी पगडंडी बनाता हूँ। मैं इस पगडंडी से होकर सफर कर रहा हूँ।
आरसु : लघुकथा–लेखन को आपने किसी आन्दोलन के रूप में अपनाया या...
आरक्कड़वु : स्वाभाविक रूप में। कला की टकराहट काल से है। घर की छत पर खड़े होकर चिल्लाने वाला कलाकार नहीं है। एक जमाने में एक रचना बहुचर्चित रहती है। इतने मात्र से वह काल का अतिक्रमण नहीं करेगी। कहने का मकसद सिर्फ़ इतना है कि मैं अपने मन में खिलते मन में खिलते फूल की पुन : सृष्टि करना चाहता हूँ। मेरे इलाके के कवि ने यह गीत गाया था–
अमर ताजगी लिए गुलाब एक
खिलता है मेरे अन्तर में।
काश, कि उसकी गंध घुले
मेरे गीतों में, मेरे स्वर में।।
हर लेखक के मन में इतना ही भाव पैदा होता है। हृदय में खिले फूल की गध उसकी रचना में घुल मिल पाई है या नहीं–काल ही इस बात का निर्णय करेगा।
आरसु : कुछ लोगों का आरोप है कि इतने कम शब्दों में कथा को कहने का दुस्साहस करना कहानी की हत्या करना है.. या सतही कथा–लेखन है। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे।
पारक्कड़वु : इन सीमित वाक्यों में सार है या नहीं यह बात पाठक तय करेंगे। यह कथा है या कथाहीनता या कविता यह तर्क पर टिका है। मौन मरण होता है। तब मृत्यु को लाँघने के लिए, कुछ पक्तियाँ ही सही, कह पाना जीवट का काम है। लघुकथा यह मौन का चीत्कार है।
आरसु : क्या आपको विश्वास है कि लघुकथा विधा मलयालम कथा साहित्य में अपनी पहचान और जगह बना लेगी?
पारक्कड़वु : यही सवाल मलयालम के एक मशहूर आलोचक ने भी मुझसे पूछा था –इन लघुकथाओं की जड़ें मलयालम में जम गई हैं? मुझे पता नहीं कि इनकी जड़ें हैं या नहीं। हाँ, एक बात जरूर है–ओ0बी0 विजयन,माधवी कुट्टी और एम0 पी0 नारायण पिल्लै ने लघुकथाएँ लिखी हैं।
श्री टी0 आर0 ने कहानी के क्षेत्र में अपनी शक्ति बखूबी दिखाई है। तीन पंक्तियों वाली उनकी लघुकथा है :
तूने मुझे स्त्रीत्व दिया।
मैंने तुझे पुरुषत्व दिया।
हमने बच्चों को दिया है–नपुंसकत्व।
छोटी, कितनी छोटी और मार्मिक लघुकथा है। अंग्रेजी के एक अखबार के साहित्यिक परिशिष्ट पर इस शीर्षक का एक लेख आया था। लेख के संसार के कई कोनों में लघुकथा जड़ें जमा रही है। वहाँ Palm stories (हथेली पर लिखी कहानियाँ) नाम से वे जानी जाती हैं। वे अत्यंत छोटी कहानियाँ है।
आरसु : आम पाठक के बीच इसके स्वीकार की आपकों क्या वजह नजर आती है?
पारक्कड़वु : यह आपाधापी की दुनिया है। तानों और आक्षेपों के काँटों से आहत मनुष्य कहानियों में उलझने के लिए उसके पास समय नहीं है। बस स्टैड पर बस का इन्तजार करते समय, रेलगाड़ी के आने में देरी लगते समय, लिफ्ट पर खड़े होते समय लघुकथाएँ उसकी मुक्ति का मार्ग बन जाती हैं। कहानी और कविता की सीमा-रेखाएँ उधर मिट जाती हैं। एक लघुकथा उसके अन्तिम वाक्य से समाप्त नहीं होती है। उसके साथ ही पाठक के मन में एक नई कथा शुरू होती है।
आरसु : नई पीढ़ी के कहानीकारों का रवैया लघुकथा लेखन के प्रति आपको कैसा नजर आता है?
पारक्कड़वु : नई पीढ़ी के कई कहानीकार कई अच्छी लघुकथाएँ लिख रहे हैं। बच्चों को नींद आने के लिए रात को कहानियाँ सुनाते थे। वह जमाना बीत चुका है। आज की कहानियाँ सूर्य की दहकती रश्मियों के समान हैं।
शर्बत पीने के लालच से कथा के आस्वादन का दुर्मोह आज के स्तरीय पाठक खो बैठे हैं। हमें परेशान करने वाला एक तत्व कहानी में आज आवश्यक बन गया है। बरगद की लंबी जड़ों के समान हमारा यह युग डावाँडोल हो गया है। स्थिति बदलकर ऊपर से नीची हो गई है। आज के पाठक ऐसे युग का चित्रण कहानी में तलाशते हैं। भूख के कारण फांसी पर आदमी को लटकाने वाले के कोर्ट को वह देखता है। यह एक अजीब युग है। सीरिया के एक आधुनिक कवि की पंक्तियाँ हैं–
लड़कों के चेहरों पर मुर्दा–सफेदी,
गोया, कौए के पेट पर लिखी एक किताब है।
फूल में छिपा है खूँूखार जानवर या कि
पगलाए फेफड़ों से शिला साँस लेती बेहिसाब है।
यही है आज की सदी,
यह सदी लाजवाब है।
आरसु : अपने लेखन के बारे में कुछ और कहना चाहेंगे।
पारक्कड़वु : आज के जमाने के अनुरूप सूक्ष्म शब्दों में कुछ बातें चित्रित करना चाहता हूँ। इतनी सी बात है।

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