आम तौर पर ‘लघुकथा’ को एकायामी विधा मानकर उससे किसी एक ‘संवेदना’ के उभार या किसी एक विचार के प्रक्षेपण से अधिक की अपेक्षा नहीं की जाती। लघुकथा लेखक भी जब किसी गंभीर मुद्दे को उठाते हैं तो उस पर एक तीखा ‘रिमार्क’ या कंट्रास्ट के माध्यम से किसी विडंबना को उभार देना उन्हें प्राय: अभीष्ट होता है। ऐसी स्थिति में ‘लघुकथा’ से व्यवस्था–विरोध की अपेक्षा कितनी उचित है? लेकिन भगीरथ के लघुकथा–संग्रह ‘पेट सबके हैं’ की गई लघुकथाओं से गुजरते हुए लगता है कि व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उद्घाटित करने और उन पर प्रभावशाली ढंग से चोट करने का काम इस लघु विधा के जरिए भी सलीके से संभव है। ‘आग’, ‘तुम्हारे लिए’, ‘शर्त’, ‘गोली नहीं चली’, ‘बधनखे’, ‘आत्मकथ्य’, दुमवाला आदमी’, ‘औरत’, ‘जनता–जनार्दन’, ‘दोजख’, ‘सही उपयोग’, ‘नाटक’, ‘भीख’, ‘शिखंडी’, ‘युद्ध’, ‘अवसरवादी’, ‘दहशत’, ‘फैसला’, ‘हड़ताल’, सगंठित कार्यवाही’, ‘रोजगार का अधिकार’, आदि लघुकथाओं में रचनाकार का क्रोध मौजूदा तंत्र की असंगतियों से बार–बार टकराया है। कभी लहूलुहान हुआ है और कभी उसने प्रतिवाद और विरोध में मुक्ति का रास्ता तलाशा है।
इन लघुकथाओं में कारखानों, कार्यालयों, पुलिस तंत्र, न्यायालय, पंचायत, जनप्रतिनिधियों में व्याप्त विसंगति, विडंबना और जन–विरोधी आचरण का जो यथार्थ रूप अंकित है, वह जनतांत्रिक व्यवस्था पर कई गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है। आजादी मिलने के इतने बरस बाद भी आम आदमी को जहाँ रोजगार का अधिकार नहीं मिला है, वहीं शोषक–उत्पीड़क को हर बात की छूट मिली हुई है। फिर यह व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था से कहाँ और कितनी अलग है? देश–निर्माण के लिए प्रतिश्रुत श्रमजीवी का खयाल था कि सारा निर्माण और उत्पादन उसके कल्याण के लिए भी है–‘ये मिलें मेरे लिए कपड़ा बना रही हैं। इन स्कूलों में मेरे बच्चे पढ़नेवाले हैं। इन अस्पतालों में मेरा इलाज होगा’। लेकिन यह सोचना उसके लिए ‘सपना’ ही बना रहा। हर स्तर पर उसका शोषण करके कुछ सुविधा-संपन्न लोग और संपन्न होते गए, देश का जन भूखा और नंगा बना रहा। ‘जनता–जनार्दन’ में तल्ख होकर पूछा गया सवाल अत्यंत वाजिब है–‘सौ चिपके पेटों को पालना या भरे पेट की तोंद निकालने में कौन–सा समाजवा है? ‘जनतंत्र’में सत्ता का निरंकुश होना चिंता असंवैधानिक हो गई। वे ही सही हैं, क्योंकि उनके अलावा कोई सही हो ही नहीं सकता। वे निडर हैं, क्योंकि उनके पास पुलिस है, मिलिट्री है, जेल है, संसद है।’
ऐसी अवस्था में प्रतिवाद या विरोध करनेवाले अच्छी निगाह से नहीं देखे जाते। ‘दुमवाला आदमी’ में दिखाया गया है कि व्यवस्था के नियामकों को ‘कुत्ते ’ जैसा आज्ञाकारी व्यक्ति पसंद है। ‘नाटक’ लघुकथा का शीर्षक बहुत कुछ व्यंजित कर देता है। कैसी भी नियुक्ति हो, ईमानदारी, योग्यता, ज्ञान, मेहनत का कोई मूल्य नहीं है। ‘नाटक में एंट्री बैकडोर’ से ही होती है–यह वाक्य अनेक आशयों से संपन्न हैं। दहशत का समापन वाक्य भी बहुत कुछ कह गया है–‘किंतु छोटी–छोटी मछलियाँ मगरमच्छ की दहशत से और गहरे पानी में पैंठने लगी थीं। लेकिन कथाकार इस नग्न वास्तविकता का अंकन करके चुप नहीं बैठा है। उसने कई लघुकथाओं में व्यवस्था–विरोध के विभिन्न रूपों को अपना समर्थन दिया है। ‘शिखंडी’ और ‘दोजख’, में उसने कायरता और दब्बूपन की मुखर भत्र्सना की है। मरने के बाद बुरा न देखने, बुरा न सुनने और बुरा न कहनेवाले व्यक्ति को प्रभु ने दोजख की आग में झोंक दिया है–‘‘....तुम लगातार जीवन से भागते रहे, दब्बू और कायर की तरह। मेरी रचनात्मक शक्ति का उपहास किया है तुमने। इसकी यही सजा है।’’
औरत ’ और ‘तुम्हारे लिए’ में संघर्ष और प्रतिवाद के हर हालत में अहिंसक होने से असहमति जताई गई हैं पुलिसवाले के बलात्कार की शिकार औरत अपनी असहायता से उबरकर एक के सीने में चाकू घोंप देती है। ‘तुम्हारे लिए’ में सूअर अपने दाँतों की दराँती तेज कर रहा है, क्योंकि उसे लग रहा है कि भविष्य में ‘हिंसा’ का विकल्प ही बचना है। ‘अंतर्द्वन्द्व’ में एक स्वप्न दृश्य है, जिसमें नपुंसक बनाए जाने का प्रतिवाद हिंसा के माध्यम से हुआ है। ‘संगठित कार्यवाही’ में इस सत्य का रेखाकंन है कि मुक्ति अगर है तो वह सबके साथ है। अकेली लड़ाई मूल्यवान् होते हुए भी बहुत दूर तक नहीं चलती। ‘अफसर’ में भी संगठन के माध्यम से परिवर्तन की चेतना है। ‘आग’ रचना आश्वस्त करती है कि शोषित संगठित होकर अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं। ये सभी रचनाएँ भगीरथ के इस विश्वास को व्यक्त करती है कि संगठित संघर्ष के द्वारा ही इस व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को बदला जा सकता है।