आज लघुकथा एक लोकप्रिय विधा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है। लघुकथा की लोकप्रियता या पाठक का इसमें रूचि लेने का कारण मात्र समयाभाव ही नहीं है बल्कि इस विधा की स्वाभाविकता और रोचकता भी उसे सहज रूप से बाँधे रखती है। लघुकथा सीधे–सीधे यथार्थ से साक्षात्कार कराती है।
‘साँझा हाशिया’ ऐसी ही लघुकथाओं का संकलन है जिसमें सामाजिक घात–प्रतिघात, राजनीतिक कुचक्र आर्थिक विषमता के साथ–साथ सामान्य जन की अभिव्यक्ति करती नब्बे लघुकथाऐं संकलित की गई हैं। इसमें तीस लघुकथाओं की तीन–तीन चुनी हुई लघुकथाएँ शामिल की गई हैं! सम्पादक कुमार नरेन्द्र ने ‘लघुकथा : आवश्यकता एवं तात्त्विक विवेचन रूप में भूमिका में लघुकथा को कथा–जाति की तीसरी विधा कहा है। उन्होंने –रचनाकारों को सचेत करते हुए स्पष्ट लिखा है कि लघुकथा को साहित्य के क्षेत्र में घुसने का प्रवेश–द्वार न समझा जाए।
‘साँझा हाशिया’ में संकलित लघुकथाओं में प्रचलित राजनीतिक व्यंग्य या पुलिस के आतंक को उजागर करती लघुकथाएँ नगण्य हैं, जो एक सुखद बात कही जा सकती है। इसमें मानवीय मूल्यों, अवमूल्यन व मानव–मन को झकझोरने वाली लघुकथाओं का समावेश है। संकलित रचनाओं में अशोक भाटिया की ‘ रंग’, कमल चोपड़ा की ‘किराया’, ‘ कुमार नरेन्द्र की ‘व्यापारी’, बलराम अग्रवाल की ‘नाग–पूजा’, मधुदीप (गंदगी), विक्रम सोनी (अजगर), सुभाष नीरव (बीमार) व श्यामसुंदर दीप्ति की ‘गुब्बारा’ निश्चय ही लघुकथा विधा में विश्वास जगाने वाली लघुकथाएँ कही जा सकती हैं। इसमें कुछ नए रचनाकारों सतीश शुक्ल, विजयनंद अंशुक, घनश्याम पोद्दार व अशोक शर्मा भारती को भी अवसर दिया गया है।
पुस्तक का मुखपृष्ठ व प्रकाशन आकर्षक है। अंत में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कुछ महत्त्वपूर्ण लघुकथाकार छूट गए हैं, उन्हें भी शामिल किया जाता तो ‘साँझा हाशिया’ नौवें दशक के लघुकथाकारों का प्रामाणिक दस्तावेज बन जाता।