सआदत हसन मंटो उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार रहे हैं। अपने बेबाक लेखन के कारण वह ज्यादा जाना गए। पंजाब के लुधियाना जिले के समराला कस्बे में जन्में इस लेखक ने अपने 42 वर्ष के जीवन में सैकड़ों कहानियाँ, रेड़ियो नाटक, रेखा-चित्र तथा पत्र लिखे। दिल्ली व बंबई जैसे महानगरों में रहते हुए, उन्होंने विभिन्न धर्मों व वर्गों के लोगों की मानसिकता को समझा। वर्ष 1947 में देश के धर्म आधारित विभाजन ने देश को भारत और पाकिस्तान, दो भागों में बाँट दिया। उस समय समस्त भारत में और विशेषकर उत्तर भारत में रह रहे मुसलमान पाकिस्तान अधीन आए इलाकों की ओर पलायन कर गए। मुस्लिम बहुल पाकिस्तान के क्षेत्र में से हिन्दू भारत की ओर आ गए, अपना सब कुछ छोड़ कर। ऐसा राजनीतिज्ञों की ओर से एक-दूसरे के विरुद्ध उगले गए ज़हर के कारण ही हुआ। उस समय के राजनैतिक माहौल ने दोनों धर्मों व संप्रदायों के लोगों के मनों में अँधा वैर पैदा कर दिया। लोग वहशी हो गए। भारत और पाकिस्तान दोनों क्षेत्रों में दूसरे धर्म के लोगों को न केवल बुरी तरह लूटा गया, बल्कि उन्हें बेदर्दी से कत्ल भी कर दिया गया। मासूम बच्चों, बूढ़ों तथा औरतों तक को नहीं बख्शा गया। जवान लड़कियों व औरतों को बेआबरू किया गया। ऐसे माहौल में भारत से पाकिस्तान गए मंटो ने जो कुछ देखा, उसका उसके लेखक मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव के कारण ही वहशियाना-दरिंदगी व पागलपन के दौर की कुछ घटनाओं को मंटो ने छोटी-छोटी रचनाओं के रूप में लिखा। बाद में ऐसी 32 रचनाएँ ‘सियाह हाशिये’ नामक संग्रह में प्रकाशित हुईं।
पाकिस्तान के उर्दू लेखकों की ओर से यद्यपि ‘सियाह हाशिये’ की रचनाओं को नकारा गया, परंतु भारत में ये रचनाएँ बहुत मकबूल हुईं। इन रचनाओं का बहुत सी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। देश का बँटवारा हुए को 60 वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर भी ये रचनाएँ कहीं न कहीं छपती रहती हैं।
मंटो की इन रचनाओं में कई बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं। मंटो का किसी भी घटना को देखने का नज़रिया पूरी तरह निष्पक्ष है। लेखक के रूप में वह न हिन्दू हैं न मुसलमान। उनकी इन रचनाओं में पात्रों के नाम नहीं हैं। जिससे यह पता नहीं लगता कि पात्र किस धर्म का है। एक-दो रचनाओं में ही धर्म या सम्प्रदाय का नाम आता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण रचनाओं का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक होता है। यदि इन रचनाओं को किसी एक धर्म के लोगों से जोड़ दिया जाता, तो जहाँ इन रचनाओं में दिए गए तथ्यों पर सवालिया निशान लग जाता, वहीं रचनाओं का प्रभाव-क्षेत्र भी संकुचित हो जाना था।
मंटो की इन रचनाओं से यह बात फर स्पष्ट होती है कि रचना आकार में कितनी भी छोटी हो, उसकी अपनी अहमियत होती है। छोटी रचनाओं को उनके आकार के कारण नहीं नकारा जाना चाहिए।
मंटो की इन रचनाओं को आकार के पक्ष से तीन भागों में बांटा जा सकता है। एक वे रचनाएं जिनकी शब्द-संख्या 70 तक है, दूसरी वे जिनकी शब्द-संख्या 300 तक है तथा तीसरी वे जो 700 शब्दों तक की हैं।
मंटो की इन रचनाओं की बात लघुकथा के संदर्भ में की जा रही है। इसलिए सब से पहले उन रचनाओं का वर्णन करना बनता है जिन में 71 से 300 तक शब्द हैं। मेरे विचार में जहाँ तक समकालीन लघुकथा का संबंध है, इसके लिए 100 से 500 तक की शब्द-संख्या अधिक अनुकूल है। मंटो की इस श्रेणी की कई रचनाओं में से लघुकथा की खुशबू आती है।
‘करामात’ मंटो की अंधविश्वासी लोगों पर कटाक्ष करती संतुलित रचना है। सांप्रदायिक दंगों के दौरान एक दुकान से चीनी की दो बोरियाँ लूटने वाला व्यक्ति पुलिस के छापे के भय से उन्हें कुएँ में फेंकने जाता है। दूसरी बोरी फेंकते वक्त वह स्वयं भी कुएँ में गिर जाता है। अगले दिन कुएँ का पानी मीठा हो जाता है। लोग इसे उस व्यक्ति की करामात समझते हैं। आजकल भी ऐसी कई घटनाएँ घटती हैं, जिन्हें लोग अपने घर्म से जोड़ लेते हैं। इस रचना में लघुकथा के लगभग सभी गुण दिखाई देते हैं। रचना सुसंगठित है और तीव्र गति से गंतव्य की ओर बढ़ती है। रचना का शीर्षक व समापन प्रभावशाली हैं।
‘बेखबरी का फायदा’ भी मंटो की चर्चित रचना रही है। इस रचना में एक दंगाई कई गोलियाँ चलाने के पश्चात पिस्तौल एक बच्चे पर तान लेता है। उसका साथी उसे बताता है कि पिस्तौल में गोली नहीं है। तब वह कहता है– ‘इतने से बच्चे को क्या पता।’ इससे यह बात स्पष्ट होती है कि दहशत दंगाइयों व आतंकवादियों का मुख्य हथियार होता है। दहशत के हथियार से ही वे अपने कुछ कार्य व मकसद पूरे कर लेते हैं। इस रचना की भाषा बहुत सजीव है। लघुकथा के लिए ऐसी ही भाषा की आवश्यकता होती है।
‘मुनासिब कारवाई’ मंटो की एक अन्य रचना है जो लघुकथा के बहुत करीब है। इस रचना में मंटो ने उन धार्मिक लोगों पर व्यंग कसा है जिन के धर्म में जीव-हत्या करना पाप है। दंगों के दौरान अपनी जान बचाने के लिए छिपे हुए पति-पत्नी भूख से बेहाल हो गए। तब उन्होंने बाहर आकर स्वयं को लोगों के हवाले कर दिया और कहा कि उन्हें मार दिया जाए। वे लोग जैन धर्म के थे। उनके धर्म में जीव-हत्या करना मना था। विचार-विमर्श के पश्चात वे योग्य कारवाई के लिए पति-पत्नी को दूसरे मुहल्ले के लोगों के सुपुर्द कर आए। धार्मिक मान्यताओं को अकसर लोग उनके शाब्दिक अर्थों में लेते हैं, भावना के अर्थों में नहीं।
’जूता’, ‘घाटे का सौदा’, ‘सफाई पसंद’, ‘निगरानी में’ तथा ‘इसलाह’ लगभग एक जैसे स्तर की रचनाएँ हैं। ‘जूता’ में दंगाई गंगाराम के बुत पर तारकोल पोत देते हैं तथा जूतों का हार उसके गले में डालना चाहते हैं। फिर पुलिस की गोली से जख्मी दंगाई को मरहम-पट्टी के लिए ‘सर गंगाराम अस्पताल’ में ही ले जाया जाता है। इस से मंटो यह बात कहने में सफल रहे हैं कि भीड़ व दंगाई समझ से कभी काम नहीं लेते। सभी बिना सोचे-समझे किसी के पिछलग्गू बन जाते हैं। रचना ‘घाटे का सौदा’ में धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों पर तीखा व्यंग किया गया है। उनके लिए अपने धर्म की लड़की को खरीद कर उसकी बेहुरमती करना बुरी बात है, लेकिन दूसरे धर्म की लड़की के साथ ऐसा करना जायज है। ‘सफाई पसंद’ के दंगाई रेलगाड़ी में दूसरे धर्म के लोगों का कत्ल इसलिए नहीं करते कि डिब्बा गंदा हो जायेगा। उन्हें बाहर निकाल कर मारते हैं। इन तथा इन जैसी अन्य रचनाओं में मंटो ने लोगों व विशेषकर दंगाइयों की अमानवीय सोच पर अपने ही ढंग से कटाक्ष किया है। लेकिन इन रचनाओं में लघुकथा विधा के तत्व दिखाई नहीं देते। अधिकतर रचनाएँ घटनाओं के संक्षिप्त वर्णन तक सीमित हैं।
‘हैवानियत’ मंटो की वह रचना है, जिस पर विशेष चर्चा करनी बनती है। ‘सियाह हाशिये’ की दूसरी रचनाओं की तरह इस रचना में भी सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुई एक घटना की गाथा है। एक परिवार की जवान लड़की गायब हो जाती है। परिवार में पति-पत्नी व उनकी छोटी बच्ची ही है। परिवार की भैंस को बलवाई हांक कर ले गए। गाय बच गई, पर उसका बछड़ा कहीं चला गया। परिवार रात में दंगाइयों से बचने के लिए एक जगह छिपा हुआ है, गाय भी उनके साथ है। छोटी बच्ची अँधेरे से डर कर रोती है तो माँ उसके मुँह पर हाथ रख देती है ताकि दुश्मन को पता न लग जाए। कुछ देर बाद दूर से किसी बछड़े की आवाज आती है तो गाय के कान खड़े हो जाते हैं। वह बिना किसी डर के पागल हुई दौड़ पड़ती है तथा किसी भी तरह नहीं रुकती। गाय का शोर सुन कर दुश्मन आ जाते हैं। तब पत्नी पति से कहती है, ‘तुम क्यों इस हैवान को अपने साथ ले आए थे?’ रचना की अंतिम पंक्ति द्वारा मंटो ने मानवीय सोच पर कटाक्ष किया है कि एक गाय तो अपने बछड़े की आवाज सुन, अपनी जान की परवाह किए बिना दौड़ पड़ी, लेकिन आदमी ने अपनी जवान बेटी को ढूँढने के लिए कुछ नहीं किया। उल्टा वे गाय को ही हैवान बता रहे हैं। मेरे विचार में इस मामले में मनुष्य की तुलना पशु से करना ठीक नहीं है। मनुष्य के पास अपना भला-बुरा सोचने की शक्ति होती है, जबकि पशु के पास यह शक्ति नहीं होती। लघुकथा की कसौटी पर परखें तो रचना ठीक लगती है।
‘सियाह हाशिये’ के तहत मंटो की लगभग सात सौ शब्दों वाली रचनाएँ ‘मजदूरी’ तथा ‘तआवुन’ में लघुकथा विधा के गुण नज़र नहीं आते। ‘मजदूरी’ में एक से अधिक तथा असंबंधित घटनाओं का वर्णन है जो कि लघुकथा के लिए उचित नहीं है। ‘तआवुन’ में घटना यद्यपि एक ही है, लेकिन बहुत अधिक विस्तार लिए हुए है।
अब हम ‘सियाह हाशिये’ की उन रचनाओं पर विचार करें जिनकी शब्द संख्या 70 तक ही है। ‘आराम की जरूरत’ तथा ‘इस्तेकलाल’ आकार के पक्ष से संग्रह की सबसे छोटी रचनाएँ हैं। ‘इस्तेकलाल’ में सिर्फ एक ही वाक्य है–‘मैं सिख बनने के लिए हरगिज तैयार नहीं, मेरा उस्तरा वापस कर दो मुझे।’, ‘आराम की जरूरत’ में दो वाक्य हैं–‘मरा नहीं, देखो अभी जान बाकी है।’/ ‘रहने दो यार, मैं थक गया हूँ।’। ये दोनों रचनाएँ उस वक्त के हालात की ओर स्पष्ट संकेत करती हैं। लेखक अपनी बात कहने में पूरी तरह सफल है। फिर भी इन्हें कथा-साहित्य का अंग कहना उचित नही होगा, लघुकथा के संदर्भ में तो बिल्कुल भी नहीं। ‘उलेहना’ भी मंटो की ऐसी ही एक वाक्य की रचना है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि किसी भी लेखक का मूल्यांकन उसके समूचे लेखन के आधार पर होता है, किन्हीं एक या दो रचनाओं के आधार पर नहीं। यह बात भी साफ है कि बड़े लेखकों की हलकी रचनाएँ भी संपादकों व आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। उस वक्त के हालात में इन रचनाओं की अहमियत रही होगी। आज अगर मुझ जैसा साधारण लेखक ऐसी कोई रचना लिखे तो उसे कोई उस ओर ध्यान नहीं देगा, जैसे–
डाकघर के स्पीड-पोस्ट वाले काउंटर पर बैठे बाबू को एक लिफाफा पकड़ाते हुए उसने पूछा, “बाबू जी, यह दो दिन में दिल्ली पहुँच जाएगा न?”
बाबू बोला, “ मैं तो इसके एक हफ्ते में पहुँचने की भी कोई गारंटी नहीं दे सकता।”
यह रचना वर्तमान डाक-व्यवस्था का सत्य है। लेकिन कोई भी संपादक कथा-कहानी के तौर पर इसे प्रकाशित करने के लिए तैयार नहीं होगा। मंटो के विचाराधीन संग्रह की अनेक रचनाएँ ऐसे ही रूप में समय का सच है। सांप्रदायिक-दंगों के दौर की कड़वी हकीकत है।
‘साअतेशीरी’ व ‘दावते-अमल’ अख़बारी ख़बरों सरीखी रचनाएँ हैं। समकालीन लघुकथा लेखकों को ऐसी रचनाओं की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, उनसे चाहे किसी भी लेखक का नाम जुड़ा हो।
‘पठानिस्तान’ मेरी नज़र में वार्तालाप- शैली की एक सरल रचना है। इस रचना में बहुत कुछ उभर कर सामने नहीं आता। हाँ, यह नतीजा निकाला जा सकता है कि प्रत्येक धर्म में कुछ उप-धर्म भी होते हैं और वे एक-दूसरे के विरोधी होते हैं।
‘जायज इस्तेमाल’ व ‘ख़बरदार’ चुटकलों जैसी रचनाएँ हैं। संभव है ‘जेली’ रचना में मंटो ने कोई विशेष बात कहने का प्रयास किया हो, लेकिन साधारण पाठक की समझ में कोई बात नहीं आती।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ‘सियाह हाशिये’ की अधिकाँश रचनाओं की भाषा प्रभावशाली है तथा साहित्यक भी। मंटो ने वार्तालाप- शैली का प्रयोग बहुत ही सफलतापूर्वक किया है। अधिकतर वह अपनी बात कहने में सफल रहे हैं, चाहे इसके लिए मात्र एक ही वाक्य का प्रयोग किया हो। लेकिन वर्तमान लघुकथा की परख-कसौटी पर उनकी रचनाएँ खरी नहीं उतरतीं।