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दस्तावेज़- सूर्यकान्त नागर
रमेश बतरा की लघुकथाएँ
-सूर्यकान्त नागर
एक अरसे से लघुकथाओं के संबंध में काफी–कुछ कहा–सुना तथा पढ़ा व लिखा जा रहा है। संगोष्ठियों में लंबी–लंबी बहसें हो रही है। लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर जमकर चर्चाएँ भी हो रही है। लघुकथाओं के संकलन पर संकलन आ रहे हैं। छोटी–बड़ी अधिकांश पत्रिकाएँ लघुकथाओं को सम्मानजनक स्थान दे रही हैं। स्पष्ट है कि लघुकथा विधा प्रतिष्ठित हो चुकी है और उसे मान्यता मिल चुकी है। लघुकथा के दूसरे पक्षों की बहस में फिलवक्त न भी जाएँ तो भी यह बात काफी साफ है कि लघुकथाओं की आती बाढ़ का एक कारण यह भी है कि कई लोगों ने इसे एक सरल विधा मान लिया है। अत: ऐसे लोग भी जिनका लेखन से कभी कोई सरोकार नहीं रहा, आज लघुकथा पर हाथ आजमाने लगे हैं। कई रचनाकार इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। यही वजह है कि कई बार इस विधा को आलोचना के स्वर झेलने पड़ते हैं। कोई विचार, अनुभूति या प्रतिक्रिया तो चलते–चलते आ सकती है, पर रचना के रूप में उसका रूपांतरण चलते–चलते नहीं हो सकता। चीजों को जज्ब कर धैर्य के साथ उन्हें कागज पर उतारने की जरूरत होती है। खास तौर पर तब, जबकि हमें कोई गहरी–बड़ी बात प्रभावशाली ढंग से संक्षेप में कहनी हो। लघुकथा में अलग से चरित्र–चित्र आदि के अवसर कम ही होते हैं। उसके छोटे फलक में जीवन के एक पक्ष विशेष को पूरी समग्रता के साथ उतारना होता है। इसके लिए आवश्यक है एक खास दृष्टि, ऐतिहासिक समझ, समर्थ भाषा और उन्नत शिल्प। कला और कल्पना वांछित तत्त्व हैं। इसीलिए यह रचनाकार पर निर्भर करता है कि वह अपनी बात इस तरह प्रस्तुत करें कि रचना पाठक पर वांछित प्रभाव छोड़ सके और उसे सोचने पर मजबूर कर सके। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह लघुकथा की शक्ति और सीमा को पहचाने। रमेश बतरा ने इस संदर्भ में कहा था कि ‘लघुकथा लिखना कहानी लिखने से भी अधिक कठिन है।’
लघुकथा के संदर्भ में रमेश बतरा के कुछ अन्य विचार जानना प्रासंगिक होगा। उनके अनुसार–‘लघुकथा को जरूरत आत्मलोचना की है। जब पाठक वर्ग ने लघुकथा को समर्थन दे दिया है तो लघुकथा लेखकों पर जिम्मेदारी और भी ज्यादा आयद हो जाती है कि लघुकथा–लेखन को और भी बारीकी से जानें, सलीके से बुने और करीने से सजाएँ।’ एक अन्य जगह वे कहते हैं कि ‘लघुकथा–लेखन में विषय का चुनाव कठिन होता है। जिस पर उसे निभा ले जाना तो सचमुच सीधी उंगली से घी निकालने जैसा है।’ बतरा का यह कथन इस बात की ओर इशारा करता है कि इस अच्छी बात को शुरू करना अलग बात है और प्रभावी ढंग से अंत तक उसका निर्वाह कर पाना दूसरी बात। कई लघुकथा लेखकों के पास विषय अच्छे होते हैं, उनका सोच अच्छा है, पर कभी विचार, कभी दृष्टि, कभी समझ, कभी भाषा और कभी शिल्प के अभाव के कारण लघुकथा का अंत भोथरा हो जाता है। बतरा ने एक और खतरे की तरफ संकेत किया था–‘लघुकथाओं को लघुपत्रिकाओं ने न केवल चुटकुलों या हवाई बातें करनेवाली चीजों की तरह छापा, बल्कि बेहतरीन लघुकथाओं को इन (हलकी) चीजों के बीच परोसकर उनकी पहचान भी घूमिल कर दी।’ बतरा का यह मत भी था कि लघुकथा में छोटे फलक तथा जटिल अनुभवों के तनावों की अभिव्यक्ति की समस्या की पूर्ति व्यंजना की तीक्ष्ण धार से की जा सकती है।
कहने का तात्पर्य यह कि लघुकथाएँ अधकचरेपन और सतही सोच के साथ नहीं लिखी जानी चाहिए। चीजों के अंदर तक प्रवेश कर उसकी बहुआयामी चीर–फाड़ जरूरी है। रमेश बतरा ने खुद कहा है–‘लघुकथा घटना नहीं, बल्कि उसकी घटनात्मकता में से प्रस्फुटित विचार है, जो उपयुक्त बातों के माध्यम से उभरता है।’ स्वर्गीय बतरा ने अधिक लघुकथाएँ नहीं लिखीं, मगर जितनी भी लिखीं, वे उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए पर्याप्त हैं, क्योंकि लेखन में महत्त्व संख्या का नहीं, उसकी गुणात्मकता का है। वे मन–मस्तिष्क पर स्थाई प्रभाव छोड़नेवाली तो हैं ही, उनकी चिंताओं और सरोकारों को भी रेखांकित करती हैं। बतरा को जितनी चिंता समाज के लिए थी, उतनी ही लघुकथा विधा के लिए भी थी। वे चाहते थे कि अभिव्यक्ति के इस सशक्त माध्यम का सही ढंग से उपयोग हो। वे समाज की आलोचना को समाज–सुधार का कारगर उपाय मानते थे। यही नहीं, वे अधिकाधिक लोगों को लघुकथाएँ नहीं लिखी थीं, बतरा की प्रेरणा और प्रोत्साहन से लघुकथा लेखन की ओर प्रवृत्त हुए और इस विधा को समृद्ध किया। एक संपादक के रूप में भी रमेश ने इस विधा की संवृद्धि के लिए भरसक प्रयास किए–चाहे वे फिर ‘सारिका’ में रहे हों तब या ‘संडे मेल’ में या अन्यत्र। लेकिन वे जब भी किसी से लघुकथा लिखने की माँग करते तो उनकी पहली शर्त होती कि लघुकथा सशक्त होनी चाहिए। इस मामले में वे कोई समझौता नहीं करते थे। कई लोग झंडाबरदारी कर अपने को लघुकथा का पुरोधा साबित करने में लगे रहते हैं, किंतु बतरा ने कभी अपने पद या अपनी क्षमता का उपयोग स्वयं को स्थापित करने के लिए नहीं किया। न ही कभी उन्होंने स्वयं को किसी विवाद या आंदोलन में उलझाया। उनका मानना था कि आंदोलनात्मक आवेश सृजनात्मकता को विपरीत रूप से प्रभावित करता है।
रमेश बतरा की लघुकथाएँ यादगार व उल्लेखनीय हैं तो इसलिए कि उनकी ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक समझ काफी विकसित थी। वे उन तमाम वजहों से वाकिफ थे, जिसने समाज और राजनीति को प्रदूषित कर नैतिक मूल्यों को खंडित किया था। उन्होंने उन गलत ताकतों की भी शिनाख्त की, जो समाज को दीमक की भांति अंदर ही अंदर चाट रही हैं। उनका सोच सतही नहीं था। उनकी विचारधारा स्पष्ट थी, लेकिन विचारधारा को उन्होंने ताँगे के घोड़े की आँखों के आसपास लगे पट्टे की तरह नहीं बांध रखा था कि बाहर की रोशनी अंदर ही न आ सके और जीवन के श्रेष्ठ पक्षों से मुँह मोड़कर केवल एक ही दिशा में चलना पड़े।
सांप्रदायिक विद्वेष के वे सख्त खिलाफ थे। उनकी आस्था सांप्रदायिक सौहार्द में थी। सांप्रदायिक सद्भाव और धर्म निरपेक्षता में उनका अटल विश्वास था। सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ उन्होंने अनेक लघुकथाएँ लिखीं। बतरा ने सदैव यह बताने की कोशिश की कि धर्माध होकर मनुष्य पशुवत व्यवहार करने लगता हें ‘सूअर’, ‘राम–रहमान’, ‘दुआ’, ‘अपना–खुदा’, और ‘वजह’ लघुकथाएँ उनकी इसी चिंता का प्रतिफल हैं।
‘दुआ’ कहानी जहाँ एक ओर सांप्रदायिकता के नंगे नाच को उजागर करती है, वहीं दूसरी ओर वह मनुष्य की बेबसी और मुफलिसी को भी उजागर करती है। जरा गहराई से देखा जाए तो यह एक बहुआयामी कथा है, जिसमें मनुष्य–स्वभाव को भी रेखांकित किया गया है। इन पंक्तियों पर गौर फरमाइए : ‘पिछली बार वह स्कूटर में कब बैठा था, उसे याद नहीं। वह हमेशा बस में सफर करता है। दफ्तर पहुँचने में देर हो रही हो या कोई कितना ही जरूरी काम हो, न तो बस की प्रतीक्षा से उसे ऊब होती है और न लाइन तोड़ने में जिंदगी का कोई आदर्श टूटता नजर आता है।’ अभाव से उपजी विवशता को इससे बेहतर तरीके से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। यही व्यक्ति दंगाग्रस्त क्षेत्र में स्थित अपने घर से कुछ पहले स्कूटर से उतरता है तो जेब में पैसे न होने के कारण स्कूटर वाले से कहता है–‘‘तुम्हें पैसों की पड़ी है और मेरी जान पर बनी हुई है।....सवारियों से बदतमीजी करते हो, तुम्हें शर्म आनी चाहिए।’’ कहते हुए वह अपने घर की ओर भाग खड़ा होता है। परिस्थिति व्यक्ति को कितना चालाक और दुस्साहसी बना देती है, यह बात यहाँ बड़ी शिद्दत से चित्रित हुई है। उलटा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत चरितार्थ हुई है। बात यहीं खत्म नहीं होती। आगे भी जाती है। किराए के लिए स्कूटरवाला कुछ दूर तक उसके पीछे भागता है, पर दंगाग्रस्त क्षेत्र में पहुँचते ही दहशत के कारण रुक जाता है और प्रतिशोध की आग में झुलसते हुए शाप–सा देता है : ‘साला हिंदू है तो मुसलमानों के हाथ लगे और मुसलमान है तो हिंदुओं में जा फँसे।’’
इस लघुकथा में रमेश बतरा की प्रतिभा, दृष्टिसंपन्नता और कल्पनाशीलता के दर्शन होते हैं। कोई भी कहानी, घटना का सीधा–सीधा विवरण नहीं होती। स्मृति, व्यापक अनुभव और कल्पनाशीलता ही लेखक की वैयक्तिक अनुभूति को समष्टिगत बनाती है, यह लघुकथा इसका प्रमाण है। गाय या सूअर कभी मंदिर नहीं जाते। उन्हें धर्म, खुदा या ईश्वर के बारे में भी कुछ मालूूम नहीं, लेकिन मनुष्य अपनी संकीर्ण सोच के कारण इन चीजों को लेकर झगड़ते हैं। भीष्म साहनी का ‘तमस’ उपन्यास इस पर अच्छी रोशनी डालता है। बतरा ने अपने अलग अंदाज में इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है। कहानी का अंतिम वाक्य तो सोच की पूरी श्रृंखला ही बदल देता है–‘‘तो यहाँ क्या कर रहे हो? (मुझे क्यों मार रहे हो?) जाकर सूअर को मारो (वह जो मस्जिद में घुस आया था)।’’ (‘सूअर’ लघुकथा)
‘राम–रहमान’ लघुकथा लोगों की इस नादान सोच पर केंद्रित है कि मात्र नाम या धर्म बदल देने से क्या आस्थाएँ बदल जाती हैं? जान बचाने के लिए राम ने रहमान होना कबूल कर लिया तो क्या वह काफिर नहीं रहा? जिस व्यक्ति को हम काफिर कहकर मौत के घाट उतारना चाहते थे। उसका काफिरपना धर्म बदलने के लिए तैयार हो जाने मात्र से समाप्त हो गया? संकीर्ण सोच और धर्मांधता मनुष्य को विवेकहीन बना देती है। जरूरत इस बात की है कि मनुष्य, मनुष्य को इंसानी रिश्ते से देखे, ने कि नफरत की निगाह से। धर्मांधता की संकुचित सोच पर आधारित यह लघुकथा दूर तक सोचने पर विवश करती है। ‘अपना खुदा’ और ‘वजह’ भी सांप्रदायिकता के विरुद्ध आग उगलती लघुकथाएँ हैं।
बतरा की कुछ लघुकथाएँ गहरी मानवीय संवेदना से ओत–प्रोत हैं। संवेदना किसी भी रचना का जरूरी हिस्सा है। विचार हो और संवेदना न हो तो कोई भी रचना मन को नहीं छू पाती। ‘माँएँ और बच्चे’ तथा ‘हालात’ लघुकथाएँ अभाव और निर्धनता से जूझते लोगों के संघर्ष को रेखांकित करने के साथ–साथ मानवीय त्रासदी को उजागर करती हैं। भूख से विचलित बच्चे को माँ बहलाने–समझाने की कोशिश करती है, लेकिन बच्चे की एक ही जिद है–रोटी। आखिर वह पूछता है :
‘‘पर मुझे भूख लगी है, मैं क्या खाऊँ?’’
‘‘तो मुझे खा ले, राक्षस!’’ माँ कहती है।
‘‘मगर कैसे?’’ बच्चा पूछता है।
उसमें भूख, मासूमियत और लाचारी सब मूर्त्त हो उठे हैं। ‘राक्षस’ और ‘मगर कैसे’ शब्द बिना कहे बहुत कुछ कह जाते हैं। इसी प्रकार ‘हालात’ लघुकथा का अंतिम वाक्य–‘‘खुशनसीब हो यार, मैंने तो आज भी कुछ नहीं खाया।’’ के बाद कहने को और कुछ रह नहीं जाता। कथा के अंत में स्पष्टीकरण देने या पाठक को चमत्कृत करने के लिए कथा के अप्रत्याशित अंत में बतरा का कतई विश्वास नहीं था।
‘खोज’ इसी क्रम की अगली कड़ी है, जिसमें बूढ़ी माँ अपनी कोठरी में खो गई सुई को ढूँढ़ते हुए सड़क तक आ गई है। यह सुई उसकी बेटी के फटे दुपट्टे को सीते समय कोठरी में गिरी थी। जब उससे कहा जाता है कि कोठरी में गिरी हुई सुई को वह यहाँ सड़क पर क्योंकर ढूँढ़ रही है, वह तो वहीं मिलेगी, तो उसका जवाब है : ‘‘वहाँ अंधेरा भर गया है।’’
‘‘रोशनी ढूँढ़ रही हूँ....है तुम्हारे पास?’’
कलात्मकता और प्रतीकात्मता रमेश बतरा की कथाओं की बड़ी शक्ति रही है। उनकी यह विशेषता उपर्युक्त तीनों लघुकथाओं के अतिरिक्त उनकी प्राय: हर कथा में दिखाई देती है। वे भली प्रकार जानते थे कि कि बिंब और प्रतीकों की भाषा में वह ताकत है, जो चीजों को सीधे कह देने में नहीं। इसलिए उनकी किसी कहानी के अंत में गाँठ खोलने का प्रयास नहीं होता। बतरा को जितना भरोसा अपनी लेखकीय सामर्थ्य पर था, उतना ही पाठक की क्षमता पर भी। उनका मानना था कि विश्वास देकर ही विश्वास पाया जा सकता है।
विश्वास–अविश्वास की बात आई है तो ‘चलोगे’ कहानी की चर्चा भी कर लेनी चाहिए। मोल–भाव करनेवाला तथाकथित शिक्षित व्यक्ति कितना शंकालु और भयग्रस्त होता है, यह इस लघुकथा में तीक्ष्णता से रेखांकित हुआ है। उसकी तुलना में अशिक्षित या अल्पशिक्षित रिक्शेवाले की नैतिक मूल्यों में जो आस्था है, उसके इस संवाद से स्पष्ट होती है–‘‘आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे मैं साला कोई ‘मुहर’ ही माँग लूँगा। आइए बैठिए, मैं उधर ही जा रहा हूँ....आप वहाँ उतर जाइएगा, बस्स।’’ इस प्रकार की उदारता एक निश्छल व्यक्ति ही दिखा सकता है। एक अलग कोण से परखा जाए तो यह पढ़े–लिखों के मुँह पर करारा तमाचा है ताकि वे अपने अंदर झाँककर देखें कि वे कहाँ खड़े हैं। आत्म–बोध से वे अपनी टुच्ची मानसिकता को नियंत्रित कर सकते हैं।
‘सिर्फ़ हिंदुस्तान में’ एक अलग किस्म की लघुकथा है, जिसमें इस विधा की सामर्थ्य को देखा जा सकता है। यह कथा विदेश से आए एक भारतीय को भारतीयता के दर्शन कराती है और बताती है कि भारतीय संस्कृति क्या है। जहाँ विदेशों में लोग आत्मकेंद्रित हैं, वहाँ भारत में आज भी मानवीयता एवं सदाशयता मौजूद है।
लघुकथा छोटी होकर भी कितनी प्रभावी हो सकती है, यह देखना हो तो ‘कहूँ कहानी’ को पढ़ना चाहिए। यह लघुकथा उन लोगों के लिए दिशा–निर्देश का काम कर सकती है, जो लघुकथा को दर्जी के फीते से नापते हैं और लंबे समय तक लघुकथा की लंबाई–चौड़ाई को लेकर निरर्थक बहस करते रहे हैं। निस्संदेह कहानी और लघुकथा में फर्क होना चाहिए, लेकिन पंक्तियों के साँचे में सजाने का प्रयास लघुकथा–लेखन के सहज प्रभाव को बाधित करने जैसा है। कोई लघुकथा दो पंक्तियों की हो सकती हैं और कोई बीस पंक्तियों की भी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा करते समय लघुकथा की शक्ति और सीमा की पहचान होनी चाहिए। हाँ, दो पंक्तियों की इस कथा के प्रथम वाक्य की भाषा को लेकर मतभेद व्यक्त किया जा सकता है, मसलन एक कारखाने में काम करने वाला श्रमिक यह भाषा कैसे बोल सकता है–‘‘सुनो, उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए....’’
‘‘नौकरी’ लघुकथा सरकारी कार्यालयों में मौजूद चापलूसों और अवसरवादी कर्मचारियों की मानसिकता को उजागर करती है। हालाँकि इसमें वह कलात्मकता नजर नहीं आती, जिसके लिए रमेश बतरा जाने जाते हैं। ‘सारिका’ में प्रकाशित ‘लड़ाई’ लघुकथा भावनात्मक लगाववाली मनोवैज्ञानिक कथा है। यह नारी–मन के साथ–साथ देश के प्रति समर्पण की कथा भी है। इसे स्त्री–पुरुष संबंधों की कहानी कहना, इसके कद को छोटा करके आँकने जैसा है। ‘स्वाद’ भी मनोविज्ञान आधारित कथा है। अभाव और संघर्ष में जीनेवाला व्यक्ति स्वाभिमान की ओर बेखबर हो किस सहजता से यथार्थ को स्वीकार कर लेता है, यह तथ्य लघुकथा में बड़ी शिद्दत से प्रकट हुआ है। रिक्शा खींचनेवाले दो भाइयों हीरा–मोती की यह कथा बड़ी मार्मिक है। यहाँ बात भूख की नहीं, स्वाद की है, अभाव–पूर्ति की है। इसी के समांतर ‘अनुभवी’ लघुकथा को रखा जा सकता है। जहाँ ‘स्वाद’ नहीं, भूख महत्त्वपूर्ण है। भूख आदमी को क्या–क्या सिखा देती है। भीख माँगने को विवश कर दिए गए बालक को नजरअंदाज करते हुए वह दाता के पूछने पर कहता है–‘‘बापू?....बाप मर गया है बाबू साब।’’ जीवन के एक बड़े सच को इतनी सहजता से कहने का साहब बतरा जैसे रचनाकार ही कर सकते थे। तरस खाकर लोग बच्चों को भीख दे देते हैं। बच्चों से भीख मँगवाने की कुप्रकृति पर भी इसमें संकेत है। भाषा के साथ भी ‘अनुभवी’ में अच्छे (खुले) प्रयोग हुए हैं। जैसे, ‘उसकी बीमार पत्नी और बेटा धूप में लेटे रात–भर–रग–रग में जमती रही सर्दी को पिघला रहे थे।’ अथवा ‘सुबह–सुबह उसने बड़े प्रयास के बाद किसी भले घर की–सी दिखाई दे रही औरत से भीख मांगने पर, उसने फटकार दिया था–‘‘साँड़–सी देह है, मेहनत करके क्यों नहीं कमाता, भड़वे!’’
‘खोया हुआ आदमी’ तो लगता है जैसे खुद रमेश बतरा की कहानी है, जो जिंदगी की भीड़ में, उसकी आपाधापी में कहीं खो गया है–नितांत अकेला। अब जिसे ‘मकान’ की नहीं, एक ‘घर’ की तलाश है। आखिरी दिनों में वह अस्वस्थता अकेलापन और घर से बेदखल व्यक्ति की तरह यहाँ–वहाँ भटकता रहा और लगता रहा कि उसे असमय मार दिया गया है।
भौतिकवादी युग में भौतिक सुख के लिए व्यक्ति कितना निर्लज्ज और स्वार्थी हो जाता है, इसे बड़ी खूबसूरती से ‘जरूरत’ कहानी में व्यक्त किया गया है। इसे बलराम ने बतरा की पहली लघुकथा बताया है, जबकि महावीर प्रसाद जैन और जगदीश कश्यप द्वारा संपादित ‘छोटी–बड़ी बातें’ के अनुसार ‘दीपशिखा’ में प्रकाशित ‘सिर्फ़ एक’ उनकी प्रथम लघुकथा है, लेकिन यह विवाद का मु्द्दा नहीं होना चाहिए। इससे अंतर नहीं पड़ता कि रचनाकार की प्रथम रचना कौन–सी है। ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि उसने क्या महत्त्वपूर्ण लिखा है। एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के साथ पुलिस कैसा बर्ताव करती है, इसका सटीक चित्रण ‘नागरिक’ में हुआ है। यह कहानी पुलिस की सोच और उसकी कार्य–शैली पर प्रहार करती है।
‘बीच बाजार’ रमेश बतरा की अत्यंत महत्त्वपूर्ण लघुकथा है। यह व्यक्ति की दोहरी और दोगली मानसिकता का सच्चा खाका प्रस्तुत करती है। यह बदलते जीवन–मूल्यों पर भी रोशनी डालती है। भौतिक सुख के लिए मनुष्य उन्हीं चीजों को अपना लेता है, जिनकी कल तक वह आलोचना करता था। विद्या की बेटी लक्ष्मी होटल में डांसर बन जाती है तो गली–मोहल्ले की औरतें इस बात के लिए विद्या की निंदा व आलोचना करती हैं, लेकिन कुछ समय पश्चात् विद्या और लक्ष्मी की सुदृढ़ होती आर्थिक स्थिति को देख वे इस ओर प्रवृत्त होने लगती हैं और लक्ष्मी की प्रशंसा करते हुए यह जानना चाहती हैं कि लक्ष्मी ने कैसे और कहाँ डांस सीखा और होटल में नाचने की नौकरी कैसे पाई जा सकती है।
इन तमाम लघुकथाओं को पढ़कर एक दृष्टि–संपन्न और प्रतिबद्ध रचनाकार से हमारा साक्षात्कार होता है। बतरा के सामाजिक सरोकार बिलकुल स्पष्ट हैं। सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक विषमताओं के विरुद्ध उनका आक्रोश और उनकी बेचैनी साफ नजर आती है। उनकी रचनाओं में हलके व्यंग्य तथा मजबूत अस्वीकृति के साथ गंभीर आक्रोश दिखाई देता है। सांप्रदायिक विद्वेष के वे सख्त खिलाफ थे। उनमें गहरी समय–चेतना थी । उनकी राजनीतिक–सामाजिक समझ इतनी विकसित थी कि वे इन क्षेत्रों में फैले छल–छद्म को पकड़ लेते थे और फिर अपनी सधी भाषा और शिल्प के सहारे कथा को इस तरह गूँथते थे कि पाठक कथा में निहित उद्देश्य को पकड़, उस पर विचार करने को बाध्य हो जाता है। वे रेशे–रेशे की पड़ताल करते थे। लघुकथा विधा के उत्थान के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहे। उनका असमय चले जाना लघुकथा साहित्य की अपूरणीय क्षति है।
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