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दस्तावेज़- डॉ. अशोक भाटिया
दलित समाज, साहित्य और ये लघुकथाएँ
डॉ. अशोक भाटिया
भारत का इतिहास एक दृष्टि से कठोर जातिवाद का इतिहास रहा है, जिसे ब्राह्यणवाद के द्वारा प्रारंभ किया गया। हिंदुओं के प्रमुख धर्म–ग्रंथों–ऋग्वेद, गीता, पुराणों आदि में जाति को ईश्वर का विधान बताया गया, जो अवैज्ञानिक बात है। वर्ण–व्यवस्था शक्तिशाली लोगो द्वारा अपने निहित स्वार्थों के लिए बनाई गई और बनाए रखी जा रही है। इस वर्ण–व्यवस्था में शूद्रों को निचले पायदान में रख दिया। इन्हें अछूत माना गया, जबकि उत्पादन के हर क्षेत्र में इन्हीं के हाथों की छाप अंकित है।
‘दलित’ शब्द का प्रयोग समाज के किन वर्गों/जातियों के लिए हो, यह अभी पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं है। प्रमुख दलित चिंतक लेखक कँवल भारती ने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य की अवधारणा’ में लिखा है–‘‘वास्तव में ‘दलित’ वही व्यक्ति हो सकता है, जो सामाजिक तथा आर्थिक–दोनों दृष्टियों से दीन–हीन हो, जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया, जिसे कठोर और गंदे कर्म करने के लिए बाध्य किया गया, जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतंत्र व्यवाय करने से मना किया गया और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और सिर्फ़ वही दलित है। (पृ. 25)’’ जबकि डॉ. शरण कुमार लिंबाले अपने पुस्तक ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ में कहते हैं–‘दलित’ शब्द की व्याख्या में केवल अछूत जाति का उल्लेख करने से नहीं चलेगा। इसमें आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों का भी समावेश करना होगा।’’ (पृ.38) डॉ. लिंबाले का दृष्टिकोण अधिक व्यापक और खुला है।
जिस देश के आधे से कम लोग आधे से अधिक लोगों पर सदियों से सवार हों, उस देश की किस संस्कृति और सभ्यता और संस्कृति का क्या अर्थ है? देश–भक्ति का क्या अर्थ है? सुख का क्या अर्थ है? विकास का क्या अर्थ है? और ये सब अवधारणाएँ वास्तव में देश का कितना प्रतिनिधित्व करती हैं? ऐसी स्थिति में देश की दबी–कुचली जातियों की सभ्यता व संस्कृति क्या होगी? उनकी सोच का स्वरूप क्या बनेगा? वास्तव में यह सदियों से चला आ रहा सुनियोजित छल और पाखंड है। सदियों से भारत दलितों के लिए एक खुला यातना–शिविर रहा है, जहाँ असभ्यता और अपसंस्कृति के साम्राज्य पर मोक्ष, पुण्य, देवता, भाग्य, धर्म आदि का मीठा लेप चस्पा किया हुआ है। यह आज भी जारी है। शिक्षित मध्यवर्ग में जातिवाद का ज़हर अब सूक्ष्म रूपों में बहता है, यह स्थिति और भी भयावह है।
दलित–समाज का मुख्य प्रश्न सामाजिक समानता और आत्म–सम्मान का है, जिससे इन्हें सदियों से वंचित रखा गया। शरण कुमार लिंबाले ने दलित को ‘बहिष्कृत समाज का नायक’ कहते हुए अपने लेख ‘दलित साहित्य और अमेरिकन नीग्रो साहित्य’ में स्पष्ट किया है कि दलितों की सामाजिक स्थिति नीग्रो से भी बदतर है। (पुस्तक : दलित और अश्वेत साहित्य : कुछ विचार सं. चमन लाल, पृ.24)
दलित लेखक कौन हो सकता है?–इस विषय में पिछले दस–पंद्रह वर्षों में बहुत विमर्श हुआ है। चिंतकों का एक वर्ग मानता है कि केवल दलित ही दलित’–लेखन कर सकता है, क्योंकि सामाजिक अपमान, अन्याय शोषण का वह भुक्तभोगी है। इस वर्ग ने स्व–अनुभूति (स्वानुभूति) और सह–अनुभूति (सहानुभूति) के अंतर को स्पष्ट कर बताया कि सवर्णों द्वारा दलितों के जीवन पर लिखा गया साहित्य सहानुभूति और करुणाजन्य साहित्य हो सकता है, और कुछ नहीं। वास्तव में दलित चिंतक लेखकों के इन वक्तव्यों व दृष्टिकोण के पीछे सदियों से हुए अन्याय के प्रति आक्रोश की ध्वनि भी सुनाई देती है। चिंतकों का दूसरा वर्ग मानता है कि संवेदनशील लेखक अपनी संवेदना के बल पर किसी भी वर्ग अथवा जाति की पीड़ा को समझकर उसे व्यक्त करने में समर्थ है। उनके इस तर्क में वनज भी है। प्रेमचंद का उदाहरण हमारे सामने है। आलोचक धर्मवीर ने प्रेमचंद को सामंत का मुंशी कहकर उनकी दलित संदर्भ की रचनाओं को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है। किंतु किसी लेखक के लेखन की बात करते हुए उनके युग और तत्संबंधी सामाजिक–राजनीतिक स्थितियों को अवश्य ध्यान में रखना आवश्यक हो जाता है। ‘कफन’ कहानी में प्रेमचंद ने यदि लिखा है–‘घीसू एक दिन काम करता तो चार दिन आराम,’ तो इसी से या केवल ऐसे वाक्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि प्रेमचंद ने ‘चमार’ शब्द का प्रयोग क्यों किया या उन्हें कामचोर क्यों कहा? लेखक ने इस स्थिति को तत्कालीन व्यापक सामाजिक संदर्भ में रखकर देखा है, क्योंकि इसके फौरन बाद वे लिखते है–‘जिस समाज में रात–दिन काम करने वालों की हालत उनकी हालत से कोई बहुत अलग नहीं थी, उस समाज में ऐसी मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अस्वाभाविक बात न थी।’
वास्तव में लेखन को वर्गों या वर्णों में विभाजित करना कोई स्वस्थ सामाजिक प्रवृत्ति नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दलितों द्वारा लिखे गए दलित साहित्य में अधिक प्रामाणिकता, पीड़ा, आवेश और विद्रोह होगा।
प्रमुख दलित चिंतक व लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित लेखक के लिए डॉ. अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले के जीवन–दर्शन को समझना और दलित चेतना की अस्मिता के अनुरूप एक सोच और एक दृष्टिकोण का विकास आवश्यक माना है। कुछ आलोचक इसमें बुद्ध के चिंतन को भी जोड़ते हैं, जबकि इसके ठीक विपरीत आलोचक डॉ. धर्मवीर मानते हैं कि ‘दलित चिंतन को सबसे पहला और भारी धक्का ढाई हजार साल पहले बुद्ध के चिंतन के रूप में लगा था।’ (पुस्तक : दलित और अश्वेत साहित्य : कुछ विचार, पृ 59) दलित साहित्य के विषय के कंवल भारती का मत है कि ‘दलित साहित्य इन दलितों की व्यथा की अभिव्यक्ति है। वह स्थापित सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह का साहित्य है। वह डॉ. अंबेडकर की सामाजिक क्रांति को अभिव्यक्ति देता है, जिसका उद्देश्य है समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों का निर्माण करना और व्यवस्था को बदलना।’
दलित संदर्भों का साहित्य बीसवीं सदी में सामने आया है। समकालीन दौर में दलित–समाज पर रचित हिंदी साहित्य मुख्य रूप से कविताओं और आत्मकथाओं के रूप में आया है। उपन्यास और कहानियाँ भी ध्यान खींचती हैं। चारों ही रूपों में दलित–साहित्य के प्रमुख लेखकों में ओमप्रकाश, वाल्मीकि, कुसुम मेघवाल, मोहनदास नैमिशराय, रतन कुमार साँभरिया, जय प्रकाश कर्दम, सूरजपाल चौहान, विपिन बिहारी आदि आते हैं। आलोचना क्षेत्र में कंवल भारती, डॉ.धर्मवीर, श्यौराज सिंह बेचैन, शरण कुमार लिंबाले, रमणिका गुप्ता आदि ने दलित–विमर्श के विभिन्न पक्षों पर काम किया है। हिंदी दलित आत्मकथाओं में ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा’ ‘जूठन’ गहरे में झकझोर देने वाली रचना है। सूरजपाल चौहान की आत्मकथाएँ ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’ नाम से मिलती हैं। मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने–अपने पिंजरे’ दो भागों में प्रकाशित हुई है। इधर भगवानदास की आत्मकथा ‘मैं भंगी हूँ’ भी चर्चा में है। इन्हें पढ़कर भारतीय समाज में फैली घोर अमानवीयता के त्रासद उदाहरण सामने आते हैं। ये आत्मकथाएँ जीवंत उदाहरणों के माध्यम से मानो हम सबसे अनेक सवाल कर रही हैं और हमारी सामाजार्थिक व्यवस्था पर धन से चोट कर रही है। दलित–विमर्श के उपन्यासों में जयप्रकाश कर्दम का ‘करुणा’ (1986) तथा इधर प्रकाशित ‘छप्पर’ (2003) काफी चर्चित रहे हैं। इनसे पूर्व हिंदी–उपन्यासों में सबसे पहले प्रेमचंद ने ‘कर्मभूमि’ (1932) में गाँधी और अंबेडकर के प्रभाव से अछूतों के मंदिर–प्रवेश व उन्हें मकान दिलाने के लिए किए आंदोलन का विस्तृत वर्णन हुआ है। लेकिन यह डॉ. अम्बेडकर की वैचारिक भूमि को छोड़ देता है। इसी प्रकार जगदीश चंद्र ने ‘धरती धन न अपना’ (1972) तथा गिरिराज किशोर ने ‘परिशिष्ट’ (1984) में दलित–विमर्श को केन्द्र बताया है। किंतु गैर दलित लेखक होने के कारण इनका अंतर दलित लेखकों के उपन्यासों से स्प्ष्ट ही देखा जाता है। कर्दम के दोनों उपन्यास जीवन के कटु अनुभवों का दस्तावेज हैं। मोहनदास नैमिशराय का ‘मुक्ति पर्व’ (2002) दलितों के प्रति सवर्णों की नफरत का भंडाफोड़ करता है। डॉ. धर्मवीर, रमणिका गुप्ता, प्रेम कपाडि़या आदि ने भी इस क्षेत्र में हाथ आजमाए हैं।
लेकिन दलित–विमर्श की कहानियाँ इन उपन्यासों से कहीं आगे हैं। इनमें दमन और अपमान के विभिन्न रूप तो मिलते ही हैं, साथ ही दलित–पात्रों में स्वाभिमान और संघर्ष का स्वर भी उभर रहा है। इन कहानियों से स्पष्ट होता है कि दलित अपनी सामाजिक स्वीकृति और सम्मान के प्रति सजग हैं और यही दलितों की पहली सामाजिक जरूरत भी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के ‘घुसपैठिए’ (2003) और ‘सलाम’ संग्रह, कुसुम मेघवाल के ‘जुड़ते दायित्व’ (1996) ओर ‘अंगारा’ संग्रह, मोहनदास नैमिशराय के ‘आवाजें’ (1998) और ‘हमारा जवाब’ संग्रह, रतनकुमार साँभरिया के ‘हुकुम की दुग्गी’ (2003) तथा ‘काल तथा अन्य कहानियाँ’ संग्रह, रमणिका गुप्ता के ‘बाहूजठाई’ (1998) सूरजपाल चौहान का ‘हैरी कब आएगा’ संग्रह के रूप में कहानी–लेखन भी पिछले कुछ वर्षों में पर्याप्त हुआ है, साथ ही दलित–वर्ग की बेचैनी और पीड़ा का साक्षात्कार कराते हुए प्रतिरोध और विरोध के स्वर को उभारता है। जाति का दंश और अपमान के विविध रूप इन कहानियों में पूरे असर के साथ देखे जा सकते हैं।
हिंदी में लघुकथा–लेखन बीसवीं सदी के आठवें दशक में तेज़ी से उभरकर आया। वर्तमान में इसकी स्थिति यह है कि इसकी शक्ति को पहचान कर स्थापित कथाकार भी लघुकथाएँ लिख रहे , बेशक उन्हें इसके नाम से परहेज हो। कुछ कथाकार इसे लघुकहानी, तो कुछ छोटी कहानी भी कह रहे हैं। किंतु लघुकथा नाम इस प्रकार की कथा–रचनाओं के लिए प्रचलित हो चुका है। 1973 में कमलेश्वर ने ‘सारिका’ का लघुकथा विशेषांक निकाला, जो युवा पीढ़ी की कलम के लिए कारगर सिद्ध हुआ। नवें दशक में विक्रम सोनी द्वारा लगभग 12 वर्षों तक संपादित ‘लघु आघात’ पत्रिका ने इसका स्वरूप तय करने में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक भूमिका निभाई। इस बीच विभिन्न दृष्टियों, प्रवृत्तियों के आधार पर हिंदी लघुकथाओं के संकलन संपादित किए गए, जिसकी लंबी सूची है। प्रस्तुत संकलन डॉ. रामकुमार घोटड़ द्वारा दलित–समाज पर लिखी गई हिंदी लघुकथाएँ सामने ला रहा है जो हिंदी में अपनी तरह का पहला प्रयास है। यह प्रयास इसलिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है कि सदियों से एक उपेक्षित समाज को न संस्कृति, न सभ्यता, न साहित्य में ही समुचित प्रतिनिधित्व दिया गया। साहित्य में भी वह लगभग हर विधा में ही गुम है। उसकी उपस्थिति ही दर्ज नहीं है, कैसी उपस्थिति है–यह तो बाद का सवाल है।
प्रस्तुत संकलन ‘दलित समाज की लघुकथाएँ’ में हिंदी की 118 लघुकथाएँ संकलित हैं। पहली दृष्टि में इनकी पड़ताल करें तो कोई बहुत उत्साहजनक परिणाम सामने नहीं आता। किंतु कुछ लघुकथाओं का उल्लेख करना जरूरी है। ‘खार–खखार’ अमरसिंह में सवर्ण जाति के स्वार्थ पाखंड और दलितों के प्रति अंधी नफ़रत को दृढ़ता से उभारा गया है। गाँव के पुजारी पंडित रामरतन का जीवन माला, मंदिर, शिवलिंग पर केंद्रित है, पर उन्हें चिंता है कि मनुस्मृति से चलने वाला कर्म–भ्रष्ट हो रहा है। हालाँकि उनका बेटा पोल्ट्री फॉर्म खोलता है, बेटी बिल्ली पालती है, जो उनकी मान्यताओं के लिहाज से संस्कार भ्रष्ट और मलेच्छ होने चाहिए। लेकिन यहाँ उसकी मान्यता बदल जाती है। पर ‘छोटी जात के लोगों’ के बारे में वह नहीं बदलता। जातिवादी संकीर्णता का रूप पंडित रामरतन के शब्दों में देखिए–‘अछूत कितनी भी डिग्रियाँ ले ले, अछूत ही रहेगा। अँगूठा टीपने वाला बामन तो बामन ही कहलाएगा। यह ब्रह्या का विधान है।’ यह संवाद तुलसीदास की चौपाई की याद दिलाता है, जो तुलसी को कटघरे में खड़ा करता है–
पूजिए विप्र ज्ञान गुन हीना।
सूद्र न गन गुन ग्यान प्रबीना।।
इसके बाद लेखक लघुकथा को कठोर धरातल पर ले जाता है। रामरतन की मुर्गियाँ बुधुआ भंगी की खखार–बलगम को दनादन चट कर जाती हैं। रामरतन और उसका लड़का दोनों उन मुर्गियों के अंडे बेचते भी हैं और खाते भी हैं। लेखक प्रकारांतर से सवाल करता रहता है–‘बुधुआ तो अछूत है, पर उसकी खखार?’....पाखंडी हिंदू समाज के पास इसका केाई जवाब नहीं।
‘सोशल इक्विटी’ (अमित कुमार) देखने में सरल रचना है, पर हिंदू–समाज के पाखंड और नफ़रत को सहजता से उघाड़ देती है। बैंक–काउंटर पर खड़े लोग जब देखते हैं कि काम बड़ी धीमी गति से हो रहा है, तो कोई कह देता है’–‘कोटे से आया लगता है।’ कैशियर उठकर बाहर आ जाता है, पूछता है कि किसने यह कहा? उसके साथी कहते हैं–‘जाने दीजिए मिश्रा जी।’ भीड़ को उसके सवर्ण जाति का होने का पता चल गया, अब वे लाइन में शांत खड़े थे। पढ़े–लिखे मध्यवर्गीय कहते हैं कि अब कहाँ है नफ़रत, वे प्रमाण देख ले। यह केवल रचना नहीं, भारतीय समाज का घृणित सच है। ‘कपों की कहानी’ (अशोक भाटिया) में विवेक और संस्कारों के बीच द्वन्द्व को दिखाकर स्पष्ट किया है कि जातिगत भेद–भाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। ‘अंधी’ (चित्रेश) में शोषण का व्यावहारिक विरोध है, जो रचना को कलात्मक बनाता है। ‘हरिजन’ (दुर्गेश) सतह पर सरल रचना है, लेकिन जातिगत घृणा और भेदभाव को इसकी एक ही पंक्ति स्पष्ट कर देती है–‘पंडितपुर में किसी व्यक्ति को तो नहीं, एक हरिजन को ज़रूर जलाया गया था।’
हिंदी के शीर्षस्थ कथाकार प्रेमचंद ने लगभग पच्चीस लघुकथाएँ लिखी हैं (हालाँकि तब ‘लघुकथा’ शब्द प्रचलित नहीं था) और ये सभी रचनाएँ यथार्थ परंपरा को स्थापित करती हैं। ‘राष्ट्र का सेवक’ ,बाबाजी का भोग’, ‘बद दरवाजा’ आदि इनकी प्रतिमानक लघुकथाएँ हैं। ‘राष्ट्र का सेवक’ रचना एक नेता द्वारा हरिजन युवक के सरेआम राजनीतिक इस्तेमाल को दिखाती हुई उत्तरार्द्ध में उसके पाखंड को सहजता से उघाड़कर रख देती है। यह रचना अंग्रेजी कहावत ‘ब्यूटी इज रिमूवल ऑफ सरप्लस’ शब्द–प्रयोग की मितव्ययिता कोई प्रेमचंद से सीखे।
बाबूराव बागुल ने एक लेख में लिखा है–‘अस्पृश्यता हरेक नव अंकुर, महत्वाकांक्षा, स्वप्न को नष्ट कर देती है।’ इस संदर्भ में ‘शक्ति बिखर गई’ (प्रताप सिंह सोढ़ी) रचना विचारणीय है। सवर्ण लड़की अपने हरिजन प्रेमी के समक्ष दृढ़तापूर्वक जात–पाँत भी मानती है और पर–जाति में शादी को न मानने की बात भी कहती है। लड़का अंत में स्प्ष्ट कहताहै–‘मैं हरिजन जाति का हूँ और जाति के इसी तूफान ने मुझे ध्वस्त कर मेरी शक्ति को बिखेर दिया है।‘इस सत्य को भारत के दो हजार वर्षों के सामाजिक इतिहास पर लागू करके कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
‘सुरक्षित सीट’ (डॉ.पूरन सिंह) सवर्णों द्वारा जाति व राजनीति के मेल से गाँव में अपना वर्चस्व बनाए रखने की सरल व सशक्त रचना है। गाँव में सवर्ण अवर्णों की तुलना में एक प्रतिशत होने पर भी प्रधानी सवर्णों के पास ही रहती है। सुरक्षित सीट घोषित होने के बाद भी सरपंच संतो चमारिन पंडित जी के घर झाड़ू–पोंछा ही कर रही है। गाँव में हर हाल में जाति ही सर्वोच्च है–यह रचना इस तथ्य को सामने लाती है।‘माध्यम’ (बलराम) ग्रामीण दलित यथार्थ की सशक्त रचना है। दिनुवा साँसी को गाँव के ‘बड़े लोगों’ का नेटवर्क मिलकर अपने शिकंजे से मुक्त नहीं होने देता। इसलिए वह चौधरी की मजूरी से मुक्त नहीं हो पाता। ‘रामभरोसे’ (बलराम अग्रवाल) रचना में इस ऐतिहासिक सत्य को उभारा गया है कि धर्म, स्वर्ग–नरक जैसी बातें दलित–समाज को आगे बढ़ने से रोकती हैं। ‘जिस पंडित ने बहना को छुआ है काका–अपनी बिरादरी के सामने आज वह चमार बनेगा.....या परलोक जाएगा।’ यह वाक्य ‘गोदान’ उपन्यास की वह घटना याद दिलाता है, जिसमें सिलिया चमारिन और मातादीन के दैहिक संबंधों के होने पर सिलिया का पिता हरखू चौधरी मातादीन को किसी एक जाति बदलने की बात कहता है और इन्कार करने पर उसके मुहँ में ही घुसेड़ देता है। लघुकथा के अंत में समाधान का भी कलात्मक संकेत मिलता है। ‘अदला–बदली’ (मालती बसंत) रचना भारतीय समाज में सवर्ण (ब्राह्यण) और हरिजन के जातिगत और चरित्रगत अंतर को तर्कपूर्ण संवादों के रूप में शक्तिशाली ढंग से उभारने के कारण महत्वपूर्ण बन गई है। ‘अछूत’ (मोहन राजेश) में एक दृढ़ दलित स्त्री–चरित्र को उभारा गया है। रचना की केंद्रीय पंक्ति है–जब भंगन ब्राह्यण की रजाई में घुस सकती है, तो रसोई में क्यों नहीं!’ लेखक रमिया को बाबू राम सहाय की न केवल रसोई में ले जाता है, बल्कि इस स्थिति का संतुलन के साथ निर्वाह करते हुए बाबू रामसहाय की हालत पतली कर देता है। थैकरे की पंक्ति ‘आई डोण्ट कन्ट्रोल माई करेक्टर्स, आई एम इन देयर हैण्डस’ यहाँ लागू होती है। ‘सज्जागृह’ (युगल) लघुकथा एक कला–सजग रचना है। ड्रामे में अर्जुन का रोल करने के बाद अर्जुन पासवान जब उसी ड्रामे में कृष्ण का रोल करने वाले राजनीतिज्ञ को बताता है कि उसकी जवान बेटी को गुंडे उठा ले गए हैं, तो उसका उत्तर देखिए–‘‘वहाँ का सारा मेकप मैं उतार चुका हूँ।’’ अब तो वह राजनीतिज्ञ के ‘मेकअप’ में है, इसलिए मदद का सवाल ही नहीं। इतनी बड़ी सांस्कृतिक भूमिका ने भी उसके भीतर न्याय के प्रति कोई दायित्व नहीं जगाया। रतनकुमार साँभरिया की लघुकथाएँ दलित संदर्भ की दृष्टि से आश्वस्त करती हैं। इनकी ‘कोड़ा’ लघुकथा में दलितों द्वारा किए जाने वाले काम के महत्त्व को तर्क के द्वारा उभारा गया है। दलित स्त्रियों में स्वाभिमान जगाती ये पंक्तियाँ आज बेशक अव्यावहारिक लगें, पर सिर्फ़ आधी तनखाह मिलने पर आक्रोश फूटना स्वाभाविक है–‘बीबी जी, हम तुम्हें अपने पूरे महीने की तनख्वाह दे देती हैं, पर तुम एक दिन हमारे घर पोंछा बरतन कर आओ।’ इन्हीं की ‘पचास पैसे’ महत्वपूर्ण शीर्षक वाली लघुकथा में मोची को पचास पैसे न दे पाने के लिए व्यक्ति आचरण पर शर्मिदा तो होता है, पर उसके पास से कई दिन गुजरने पर भी पचास पैसे नहीं देता। ‘द्रोणाचार्य जिंदा है’ (रतनकुमार साँभरिया) रचना बताती है कि घृणा के कारणों में जाति सबसे ऊपर है। इसी कारण दूसरों को मूल्य सिखाने वाला अध्यापक स्वयं मूल्य तोड़ता है। ‘गाँव थूककर आँट लेगा मुझे कि गुरुजी के लड़के से मोची का लड़का ज्यादा होशियार है।’ इसलिए रामदीन की सभी उत्तर–पुस्तिकाओं में से अंक कम कर उसे प्रथम आने से रोक दिया जाता है। ‘रक्तभिषेक’ (डॉ. रमेश प्रसाद गर्ग) रचना उभारती है कि गाँवों में जातिवाद किस कदर पसरा पड़ा है। शानदार शीर्षक की यह रचना दलित स्त्रियों को अपनी भूमिका आगे बढ़ाने को प्रेरित करती है।
इस संकलन के संपादक डॉ. रामकुमार घोटड़ की पाँच लघुकथाएँ इसमें शामिल हैं। ‘एक युद्ध यह भी’ रचना दलित संदर्भों में संघर्ष–चेतना को प्रतीक रूप में उभारते हुए सवर्णों की संकीर्ण मानसिकता पर छींटाकशी करती है। इनकी ‘कुजात’ लघुकथा में गाँवों में व्याप्त जातिगत संकीर्णता को उभारा गया है, तो ‘जज्बात’ में जातिगत अन्याय और शोषण को कुत्ते व चमगादड़ के प्रतीक से और भी प्रभावशाली बना दिया है। ‘समय–समय की बात’ रचना इस महत्वपूर्ण तथ्य को कथा द्वारा बेहतर ढंग से उभारती है कि दलित वर्ग को ठाकुरों आदि के अन्याय से लड़ने के लिए स्वयं ऊँचे पदों तक पहुँचना होगा।
विक्रम सोनी की दो सशक्त लघुकथाएँ यहाँ संकलित की गई हैं। ‘बनैले सुअर’ नामक शानदार शीर्षक रचना में दो अनपढ़ ब्राह्यण मजबूरी में चमार के बेटे से खत पढ़वाते हैं। पढ़वाने के बाद पोता होने की खबर से खुश होकर चले ही थे कि चौबे जी बोले–‘अरे, पंडित जाति की चिट्ठी चमार पढ़े–इसकी इतनी हिम्मत....?’’ और दोनों बिसुआ के बेटे को लोटों से ही मार–मारकर खत्म कर देते हैं। वे (उनकी नज़र में) अच्छी खबर के बीच भी नफरत को नहीं भूलते। खबर सामयिक है, पर नफरत तो सदियों से जमी है, उनकी सत्ता और वर्चस्व का अचूक हथियार है, ‘जूते की जात’ में रमोली चमार जब जूता लेकर पं. सियाराम मिसिर की गर्दन का ‘हूल’ दूर करने लगा, तो उसकी आँखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरंतर सहे जुल्मो–सितम और अपमान के दृश्य साकार हो उठे।’ आगे का दृश्य रचना में पढि़ए। दोनों रचनाओं की कुछ खूबियाँ हैं। पहली यह कि इनमें लेखक का कहीं भी हस्तक्षेप नहीं है, सब कुछ पात्रों से कहलवा दिया है। दूसरी रचना व्यर्थ वर्णन के उलझाव में नहीं पड़ती, क्योंक लेखक अपनी ‘घनीभूत पीड़ा’ का चित्रण करता है।
‘रीढ़’ (डॉ. सतीश दुबे) सवर्णों की सदियों से चली आ रही मानसिकता की दस्तावेजी रचना है। ठाकुर पिता अपने पुत्र को दलितों के बारे में कहते हैं–‘गरीब और गरीबी गाँव की रीढ़ है।...इन लोगों से इनकी प्रगति की बात कहो, पर होने मत दो।’ ‘यथार्थ का एहसास’ (डॉ. सतीशराज पुष्करणा) कल, आज और कल–तीनों कालों से जुड़ी दृढ़ चरित्र को रचने वाली लघुकथा है जिसका केंद्रीय वाक्य है–‘‘हुजूर! जब कल आज नहीं रहा तो फिर आज कल कैसे रहेगा?’’ ‘आधे–अधूरे’ (सुकेश साहनी) लघुकथा में सहजता से तीन बिंदु उभरकर सामने आते हैं। इसकी ध्वनि यह निकलती है कि सवर्णों में जातिगत संकीर्णता और इसका अहंकार बड़ा गहरे पैठ किए हुए है। नीची जात? के लोगों का ही कुआँ सूखे से बचता है, तो ऊँची जात (?) के लोगों ने कुएँ के निकट सभा कर कहा–‘हम सब एक हैं......छुआछूत ढकोसला है।’ सवर्णों का यह छलावा उनके द्वारा दलितों के शोषण और उन्हें काबू में रखने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों में से एक है और इस रचना में तीसरा बिंदु है–युवकों द्वारा कुएँ के बँटवारे के विरुद्ध आवाजें उठाना। हालाँकि इसमें ध्वनित समाधान डॉ. अम्बेडकर के दर्शन से मेल नहीं खाता। ‘संस्कार’ (हरनाम शर्मा) सहज रूप में इस तथ्य को सामने ला देती है कि हमारे समाज में जाति की जड़ें बहुत गहरी हैं।
कुछ और लघुकथाओं का जिक्र ज़रूरी है। ‘परंपरा (कमलेश भारतीय) में गाँव के कटु यथार्थ को उभारा गया है कि दलित वर्ग को जीवन में कई बार अपमान के कड़वे घूँट पीने पड़ते हैं। यह दलित–विमर्श के साथ स्त्री विमर्श की रचना भी है। ‘पत्थर से पत्थर तक’ (कमल चोपड़ा) में लेखक की पसक्षधरता धुँधली पड़ गई है, क्योंकि पाठक इस रचना का उलटा अर्थ भी लगा सकता है। ‘अछूत’ (रामयतयन यादव) में एक विडम्बना को सहज रूप में उभारा गया है। जिस कलाकार ने अपने हाथों व हृदय से कृष्ण–मूर्ति रची, उस मूर्ति को तो सवर्ण पूजते हैं। पर उस कलाकार को मंदिर प्रवेश की भी अनुमति नहीं। कुछ लघुकथाओं में मध्यवर्गीय कमजोरियाँ उजागर हुई हैं, जैसे ‘अमानत’ और ‘आत्म।निर्भरता’ में। आत्मनिर्भरता’ लघुकथा में दलितों को लेकर मध्यवर्ग में जो संकीर्ण सोच बनी है वह उभरकर आती है। लेखक हरिजन लड़कों को सरकार द्वारा मिलने वाले वजीफे का विरोध करता है। वह आरक्षण के नाम पर सरकारी नौकरी लेने वाले के बारे में कहते हैं–‘वह केवल कुर्सी तोड़ रहा है।’ ‘लेखक अपनी संकीर्णता को स्पष्ट व्यक्त करते हुए एक पात्र से कहलवाता है–वह (दलित) सदा ही दूसरे पर निर्भर रहा है, और रहेगा भी।’ ऐसी सोच गतिशील इतिहास के संदर्भ से किसी स्थिति को काटकर देखने पर बन जाती है। यहाँ कुछ वाक्य उद्धृत हैं, जिनमें लेखक ने सवर्णों की दलितों के संदर्भ में संकीर्णता, घृणा, यथास्थितिपरक सोच को रेखांकित किया है–
1.जिनमें सदियों से मैला ढोया, आज हम पर शासन करेंगे, हमारी बराबरी करेंगे। (युगों–युगों का मैल, इंदिरा खुराना)
2.नीची जात का जीव खंडित होना शुभ होता है। (भ्रूण हत्या, कमल चोपड़ा)
3.बात–व्यवहार की दमड़ी–भर अकल नहीं। (आँधी)
4.पंडित मरि गवा तो ब्रह्यहत्या अलग, बदनामी अलग, फाँसी अलग। (रामभरोसे, बलराम अग्रवाल)
5.बच्चों को धरती पर लाकर तुमने पाप किया है। (फीस माफी, मधुकांत)
दलित पात्रों या लेखक द्वारा कहे कुछ वाक्य भी यहाँ विचारणीय हैं–
1.सवर्ण बड़े तमीजदार बनते हैं। हमें तो इंसान समझते ही नहीं। (मिठास, कमल चोपड़ा)
2.उस परंपरा को तोड़ो जो आदमी को भेडि़ए और औरत को जिंदा गोश्त में बदलती है। (परंपरा, कमलेश भारतीय)
3.जब भंगन ब्राह्यण की रजाई में घुस सकती है, तो रसोई में क्यों नहीं? (अछूत,मोहन राजेश)
4.वाह, राया साहब वाह, फुलवा अछूत है, पर इसकी जवानी?.....अब तो आपकी सारी चीजें फुलवा से छूआकर नापाक हो गई। (अछूत कौन, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज)
5.निश्चित रूप से रामानंद ने कबीर तथा द्रोणाचार्य ने एकलव्य की भावनाओं को अपमानित कर ऐसे ही आहत किया होगा। (शिष्यत्व, डॉ.सतीश दुबे)
क्या इन लघुकथाओं में दलित–समाज का पूरा चित्र सामने आ सका है? ‘हाँ’ में उत्तर देना बड़ा कठिन है। सदियों से समाज के हाशिए से बाहर बहिष्कृत बस्तियों में रहने वाला समाज आज भी कमोबेश वैसी ही भयावह स्थितियों में जी रहा है। उनके अपमान और व्यथा के कुछ स्वर (रूप)इन लघुकथाओं में अवश्य मिलते हैं। इन लघुकथाओं में कहीं विरोध–प्रतिरोध मिलता है, तो कहीं–कहीं दृढ़ चरित्रों की रचना के जरिए विद्रोह के स्वर भी सामने आए हैं। किंतु एक तो सरलीकरण की प्रवृत्ति से बचे की जरूरत है, दूसरे दलित समाज की अपनी खूबियों को उभारे जाने की जरूरत है, ऐसा न हो कि ये लघुकथाएँ सवर्ण समाज के विरुद्ध ‘आरोप–पत्र’ बनकर ही रह जाएँ।
दलित समाज पर लिखे उपन्यासों, कहानियों व कविताओं की भाँति इन लघुकथाओं में भी अधिकतर परंपरागत मूल्यों का अस्वीकार मिलता है। इसलिए इनका मूल्यांकन भी परंपरागत सौंदर्यशास्त्र के आधार पर नहीं किया जा सकता। शरण कुमार लिंबाले ने ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास़्त्र’ नामक अपनी पुस्तक में सत्य, शिव और सुंदर की नई परिभाषा दी है–
मनुष्य सर्वप्रथम मनुष्य है, यही सत्य है।
मनुष्य की स्वतंत्रता ही शिव है।
मनुष्य की मनुष्यता ही सौंदर्य है।
इन लघुकथाओं में अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध स्वर मुखरित हुआ है। आक्रोश की अनिवार्यता के कारण इनमें शिल्पगत बारीकियों और कलात्मक प्रतिमानों को ढूँढ़ना बेमानी है। इतना जरूर है कि दलित–समाज संबंधी लेखन में बनी बनाई संवेदनाओं से आगे जाने की जरूरत है। जहाँ ऐसा हुआ है, वहाँ रचना अधिक असरदार बनी है। ऐसा करते हुए लघुकथा के बारे में बनी बनाई सोच व साँचे को तोड़कर नई सोच की दुनिया में प्रवेश करना संभव होगा, जिसमें अभिव्यक्ति की संभावनाएँ अधिक होंगी।
फिर भी, काले हाशिए पर डाल दिए गए समाज की इन लघुकथाओं में जातिवाद की काली सुरंगें हैं, जिनमें यातना की काली परछाइयाँ हैं, पिंजरे हैं : यहाँ तिरस्कार और अभिशाप के अंगारे हैं, किल्लत और जिल्लत में जीने वाले संतप्त समाज की घुटन है, जो मुक्ति पथ की तलाश में है। जब चेतना के ये स्वर तीनों आयामों में विस्तार पाएँगे तो मुक्ति–पर्व का रास्ता भी मिल जाएगा।

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