जब हम भारतेन्दु हरिश्चंद्र या किसी अन्य पूर्वोदित साहित्यकार की लघुकथा–रचनाओं या कथा जैसी प्रतीत देती लघु–रचनाओं पर विचार करते हैं, तब इसका तात्पर्य शिल्प, शैली अथवा कथानक के अर्थ में परंपरा–विशेष की तलाश करना ही होता है। इसका तात्पर्य सिर्फ़ यह खोजना और स्थापित करना होता है कि इतिहास में हम कहाँ और किस रूप में अपना अस्तित्व रखते हैं। अलग–अलग कालखंडों के इतिहास की प्रवृत्तियाँ क्योंकि अलग–अलग ही होती हैं, अत: किसी एक कालखंड से रचना–विधा के उत्स को खोजा और स्वीकार कर लिया जाए, यह तो उचित है, परंतु उसको रचना–विधा की आधुनिक–अवधारणा के मानक–स्वरूप स्वीकार कर लिया जाए, यह सर्वथा अनुचित और अव्यावहारिक है। लघुकथा, अगर हम सही अर्थों में इसके विकास की व्याख्या करें, तो ऐसी विलक्षण कथा–विधा है, जिसके बीज कहीं हैं, अंकुर कहीं, पौधा कहीं और फूल कहीं, लेकिन इस समस्त बिखराव के बावजूद इसकी सुगंध हर काल में समान रूप से प्रभावी रही है।
‘दिल्लगी की बातें,’ ‘ज्ञान चरचा’ और ‘दुआ माँगना’ भारतेंदु की रचनाओं के ऐसे शीर्षक है, जिनके तले उनकी दो–दो तीन–तीन रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है। उनके द्वारा परिहास को रेखांकित करने के उद्देश्य से लिखी गई ये रचनाएँ वस्तुत: परिहास मात्र नहीं हैं और न ही केवल व्यंग्य। इनमें से कुछ तीक्ष्ण कटाक्ष भी प्रस्तुत करती हैं। इनके अध्ययन के माध्यम से भारतेंदु की व्यंग्य–विनोद और हास–परिहास के प्रति आस्था का प्रमाण मिलता है।
अगर आज की दृष्टि से देखें तो भारतेंदु की प्रस्तुत लघुरचनाओं में से अनेक विशुद्ध चुटकुला हैं। वे न तो कथा के वर्तमान स्तर तक परिष्कृत हैं और न आधुनिक व्यंग्य के स्तर तक। इनमें से अनेक तो आज चुटकुलों के रूप में प्रचलित भी हैं। इन रचनाओं का सबसे अधिक महत्त्व तो इस अर्थ में है कि भारतेंदु ने विस्मृत करने योग्य समझे जानेवाले न्यून एवं सूक्ष्म क्षणों को भी लेखनीबद्ध किए जाने की महत्ता को जाना है। यही नहीं, भाषा के स्तर पर भी पूर्व प्रचलित बंधनों को तोड़ते हुए वे आम बोलचाल में प्रयुक्त भाषा में साहित्य को प्रस्तुत करते हैं। उनके इस प्रयास से साहित्य और भाषा दोनों का परिष्कार हुआ। विषय के स्तर पर वह सामान्य लगनेवाले सामाजिक यथार्थ का ऐसा चित्रण हमारे सामने करते हैं कि तत्कालीन क्षुद्र मान्यताएँ अपने नग्न रूप में प्रस्तुत होने को बाध्य हो जाती हैं।
हमारे रूढि़ग्रस्त समाज का एक सच यह है कि छोटों को बड़ों की बात का कोई जवाब नहीं देना चाहिए। अर्थात् उनकी बात के प्रतिकूल कोई तर्क–वितर्क प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। अनुशासन के नाम पर यह व्यवस्था का न सिर्फ़ परिवार में बाल–वयस्क और वयस्क–वृद्ध के बीच बल्कि समूचे समाज में धनी–निर्धन, बली–निर्बल, स्वामी–सेवक और दाता–प्रापक सभी के बीच कायम रहती है। भारतेन्दु बुरी आदतोंवाले बुजुर्गों के सापेक्ष निश्छल बालकों पर यह व्यवस्था थोपने के घोर विरोधी नजर आते हैं। अत: ‘मुँहतोड़ जवाब’ का लड़का अपने बारे में बुजुर्गो की राय के खिलाफ चुप रहने की इस (कु) व्यवस्था को भंग कर डालता है। वह चट से न सिर्फ़ बोल उठता है, बल्कि उनमें बुरी आदतों की बहुतायत की ओर भी इंगित कर डालता है : ‘‘बहुत ठीक है, क्योंकि हमने आपसे बुरी आदतें पाई होतीं तो आप में बहुत–सी कम हो जातीं।’’
भारतेंदु की इन रचनाओं के बारे में कथा के वर्तमान स्तर तक परिष्कृत न होने का मत प्रकट करने के पीछे मेरा मंतव्य यह है कि तकनीकी तौर पर आधुनिक लघुकथा–लेखन हेतु इन्हें मानक अथवा आदर्श नहीं माना जा सकता। यही नहीं, इनमें गुलेरी की ‘पाठशाला’ जैसी मनोवैज्ञानिक और प्रक्रियायुक्त कोई रचना नहीं है, सो अलग बात, उनकी ‘शक्कर का चूर्ण’ जैसी शुद्ध सांकेतिक हास प्रस्तुत करती रचना की टक्कर की भी केवल एकाध ही रचना है। इसका एक कारण दोनों रचनाकारों के काल में लगभग तीस वर्षों का लंबा अंतराल भी हो सकता है। गुलेरी के काल तक आते–आते लेखन में अनेक स्तरों पर आए परिष्कार की संभावना को झुठलाया नहीं जा सकता। साथ ही दोनों की रचनाओं के आधार पर आकलित उनकी प्रकृति और स्वभाव के बारे में कहा जा सकता है। कि आसपास की दुनिया से गुलेरी की तुलना में भारतेन्दु का जुड़ाव अधिक है। दोनों ही विनोदी स्वभाव के हैं, परंतु भारतेन्दु अपनी उस प्रकृति का उपयोग आम जन की चेतना को प्रकट करने में करते हैं और गुलेरी मात्र विनोद के लिए। वैचारिक घनत्व की दृष्टि से भारतेंदु की ‘जादूगरनी’ काफी गंभीर रचना है। यह प्रेम और समर्पण के सिद्धांत को प्रतिपादित करती एक ऐसी रचना है, जिसमें यह दार्शनिक सांस्कृतिक, विचारक, ठिठोल और पता नहीं क्या–क्या एक साथ नजर आते हैं। इस रचना की जितनी व्याख्या की जाए, कम है। इनके भावों और मंतव्यों को लिखने से कहीं अधिक अपने भीतर सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। छोटे फलक पर लिखी गई एक बड़ी रचना है।
इन रचनाओं के माध्यम से हम भारतेंदु की एक और प्रवृत्ति का भी अध्ययन कर सकते हैं, मुखर और वाचाल पात्रों के रूप में उन्होंने मुख्यत: लड़कों, नौकरों, दिल्लगीबाजों, फकीरों और खिदमतगारों को चुना है। जिस रचना में दो पात्र एक ही स्तर के हैं, उनमें धनी की तुलना में निर्धन को (मेहमान), बेईमान के मुकाबले ईमानदार को (दुआ माँगना) तथा बड़ेबोले के मुकाबले समझदार को (बात की धुन) मुख्य पात्र बनाया है।
पंद्रह शीर्षकों तले प्रस्तुत भारतेंदु की बीस लघु रचनाओं से बहरहाल यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि हमारे पूर्ववर्ती लेखक अभिव्यक्ति की किसी सीमा के समर्थक नहीं थे, न इधर, न उधर। वे ‘कम से कम’ से लेकर ‘अधिक से अधिक’ हर प्रकार से अभिव्यक्त होने में विश्वास करते थे। देखने में यही आता है कि भारतेन्दु स्वयं और उनके युग के अन्य लेखक, यहाँ तक कि द्विवेदी और उत्तर–द्विवेदी युग के लेखक भी, रचना–विधा की दशा–दिशा और विचार–वैविध्य के प्रति अधिक चैतन्य रहते थे, न कि उनके रूप–आकार के प्रति।
विधाओं की दृष्टि से वर्गीकृत साहित्य का युग रहा होता तो नि:संदेह आज के हमारे तथाकथित महान् लेखक और स्वनामधन्य आलोचक आकार की दृष्टि से छोटी रचनाओं के अर्थ–गांभीर्य एवं प्रभाव पर विचार किए बिना उन पर नाक–भौं न सिकोड़ रहे होते और आज की नवीन विधाओं को अपनी स्थापना हेतु इतना कड़ा संघर्ष न करना पड़ता, परंतु यह भी सच है कि सभी कुछ अगर पूर्ववर्ती ही कर जाते तो हममें कुछ नवीन प्रस्तुत करने और उसकी स्थापना हेतु संघर्ष हेते लेखक की रचनात्मक सृजनशीलता और चना की गुणात्मकता के अतिरिक्त आलोचनात्मक स्तर पर भी स्वयं ही संघर्ष करना पड़ा है। अपनी विधागत स्थापना और स्वीकृति हेतु लघुकथा को भी अगर वैसा ही संघर्ष करना पड़ा है तो यह हताश होने की बजाए गर्वित होने का विषय है।
जहाँ तक आलोचकों की बात है, उन्हें अधिक दोष नहीं दिया जा सकता। हिंदी में यों भी स्वतंत्र आलोचकीय दृष्टि का अकाल–सा ही रहा है, तिस पर कथा के प्रति इसमें प्रवर्धन शायद बहुत बाद में हुआ। उस समय, जबकि निबंध और उपन्यास लेखक को किनारे करके कहानी (short story) ने साहित्य के केंद्र ने अपनी पैठ बना ली थी और इस प्रकार की लघुकथा–रचनाओं का दौर समाप्तप्राय हो गया था। उस दौर में जबकि नाटक और एकांकी, कविता और नयी कविता तथा कहानी और नयी कहानी के मैदान में आलोचक अपनी–अपनी तलवारें भांज रहे हों, इतने छोटे आकारवाली कथा–रचनाओं पर अपना वक्त कौन बरबाद करता? लेकिन आज तो वैसी आपाधापी का दौर नही हैं कोई भी विधा आज साहित्य के केंद्र में होने का दावा नहीं कर सकती। फिर हम आज क्यों दुराग्रहपूर्ण और संकुचित रवैया अपनाते हैं? हिंदी साहित्य कुछ नवीन विधाओं के जरिए भी अगर प्रवर्तित होने की राह पर है तो हमें खुले हृदय और खुले मस्तिष्क के स्वीकार करना चाहए। भारतेन्दु की पुस्तिका ‘परिहासिनी’ की लघुकथा रचनाओं से यह सीख तो हम ले ही सकते हैं।
00