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दस्तावेज़- हस्ता़क्षर : डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
पंजाबी लघुकथा : चार दशकों का सफर
:डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
 

साहित्य की संक्षिप्त–सी परिभाषा देनी हो तो, वह होगी मानव की अभिव्यक्ति। यह संचार भाषा के अस्तित्व से भी पहले का है। इसे संकेतों से,बोली से और धीरे–धीरे भाषा के माध्यम से लिखने तक का सफर तय करना पड़ा है। साहित्य में मानव–मन की बात कविता, लघुकथा व लेखों से होती आई है। कविता में विचारों के साथ संवेदनाओं का पुट ज्यादा होता है। कहानी में कल्पना और यथार्थ की बराबर भूमिका है और लेखों में तथ्यों की भरमार अधिक होती है। साहित्य के रूप कविता और लघुकथा एक–से लोकप्रिय रहे हैं ओर आज भी हैं। समय के साथ–साथ कभी किसी रूप को ज्यादा श्रेय, प्राप्त हो जाता है।
लघुकथा की बात करें तो प्रत्येक व्यक्ति का जीवन, प्रतिदिन की घटनाओं में कहानी ही बुन रहा होता है। कुछ ‘कहना’ ही चाहे कहानी है, पर साहित्य की बात कहने की कला ही उसे निश्चित ही, कहने का विशेष ढंग है। कहानी में बनाए रखना, पाठक को रचना के अंत तक बांधे रखना, कहानी के विशेष गुण हैं। साहित्य का अंश बनने के लिए यह बात अलग से जरूरी हैं कि वह लघुकथा पाठक को क्या सम्प्रेषित कर रही है? लेखक का उद्देश्य क्या है?
‘लघुकथा’ विधा मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ी विधा है। अनेक पड़ावों से होते हुए उपन्यास, नाटक, कहानी और लघुकथा सभी कहानी के घेरे में आते हैं, यह विधाएँ कहानी ही बयान कर रही होती हैं, जिस में सामाजिक घटनाएँ, लेखक की चेतना और प्रस्तुति का ढंग (शैली व पेशकारी) व कल्पना का अत्यन्त सूक्ष्म मिश्रण होता है।
लघुकथा को हम इस युग की विधा कह सकते हैं। इस विधा का इतिहास ढूँढते हुए, हम भारतीय परम्परा में मौजूद जातक कथाएँ, हितोपेश की कथाएँ व पंचतंत्र की बात करते हैं। यह ठीक है कि परम्परा से कुछ हासिल करना एक बात है, परन्तु उस विधा को साहित्य की कसौटी पर परखना अलग बात। इसी प्रकार पंजाबी में बात करते हुए ‘पुरातन जन्म साखियों’ का जिक्र होता है। परन्तु इन सभी रचनाओं में कम शब्दों में बात करने की कला तो है, परन्तु साहित्य के उद्देश्य उन से अलग है। ये सारी रचनाएँ मानवीय नैतिकता व धार्मिक क्रिया कलाप का वर्णन करती हैं और रचना के अन्त में एक स्पष्ट उपदेश भी अंकित किया जाता है। इन रचनाओं में ज्यादातर जानवर व अन्य अमानवीय पात्रों के माध्यम से मनुष्य को नैतिक नियम अपनाने के लिए प्रेरित किया जाता है, जबकि साहित्यिक रचना में सजीव पात्र–चित्रण करके समाज का प्रतिबिम्ब उभारा जाता है।
लघुकथा के इतिहास को समझते हुए यह बात पूरी तरह समझने की जरूरत है कि साहित्य, नीतिशास्त्र व धर्म का इतिहास सभी भिन्न–भिन्न विषय हैं। यह बात ठीक है कि यह सब एक ही सामाजिक प्राणी ‘मनुष्य’ के विभिन्न पहलुओं को अपने ढंग से देखते–समझते हैं। इसीलिए साहित्य के इतिहास में किसी अन्य क्षेत्र को मिलाना ठीक नहीं है और लघुकथा को साहित्यिक विधा मानते हुए, इसे भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।
पंजाबी लघुकथा का साहित्यिक रूप चाहे 1944 में जसवंत सिंह कँवल की पुस्तक ‘जीवन कणीयाँ’ और फिर 1956 में बिशन सिंह उपासक की पुस्तक ‘चोभाँ’ में देखने को मिलता है, परन्तु यह रचनाएँ किसी विशेष नाम से प्रकाशित नहीं हुई। यह तो 1972 में रोशन फूलवी व ओम प्रकाश गासो का सम्पादित संग्रह ‘तरकस’ व सतवंत कैंथ का मौलिक संग्रह, पहली बार लघुकथा के नाम से प्रकाशित हुए। इस प्रकार इस का साहित्यिक सफर चार दशकों का बनता है।
हर विधा की तरह लघुकथा भी अपने रूप और विषय चुनाव को लेकर कई पड़ावों से गुजरी है।लघुकथा का पहला पड़ाव इसके शब्द ‘लघु’ पर अधिक केन्द्रित रहा। लघुकथा को कितना ‘लघु’ किया जा सकता है, लेखक का सारा जोर इसी पर रहता था। एक–एक वाक्य की रचनाएँ भी इस दौर में आई। इसी तरह विषय को लेकर रिश्वतखोरी, पुलिस, प्रशासनिक धक्केशाही, भ्रष्टाचार, धर्म व राजनीति में दोगलापन–भाव कहानी–कथनी में अन्तर की रचनाएँ ही लिखी जाती रहीं। एक तर से यह प्रभाव ही बन गया कि लघुकथा के लिए यही कुछ विषय ही हैं। विषयों के चुनाव से भी ज्यादा अहम था, उन की प्रस्तुति। कम शब्दों में, टिप्पणीनुमा वाक्यों में बात कहना, रचना को सतही और अखबारी बनाता था।
बीसवीं सदी के आखरी दशक के आरम्भ में लघुकथा की समझ में कई बदलाव आए। इसी दौरान 1988 में महिताब–उद–दीन ने पहली आलोचनात्मक पुस्तक ‘पंजाबी लघुकथा प्राप्तीयाँ ते सम्भवनावां।‘ लिखी। इसी वर्ष ही ‘मिन्नी’ त्रैमासिक का निरन्तर प्रकाशन भी आरम्भ हुआ और डॉ. अनूप सिंह ने लघुकथा आलोचना की दो पुस्तकें दीं, जिससे लघुकथा विधा में संभावनाओं के नए द्वार खुले।
इसी दौरान लेखकों को एक मंच भी मिला, जिससे विधा को समझने के लिए कुछ संगठनात्मक कार्य भी हुए। निरन्तर वार्तालाप और कार्यशालाओं जैसे ‘जुगनुओं के अंगसंग’ के आधार पर जो तब्दीलियाँ देखने को मिलीं, वह कुछ इस तरह गिनी जा सकती हैं।
विषयों के चुनाव से बात शुरू करें तो हम पाएँगे कि जिस तरह लघुकथा के शुरुआती दौर में, यह प्रभाव सामने आने लगा था कि कुछ खास विषय ही ऐसे हैं जिन पर लघुकथा लिखी जा सकती है तथा गम्भीर सामाजिक पहलुओं और मनोवैज्ञानिक तनावों को पेश करने की इस में सामर्थ्य नहीं है। इसने एक तरह से लघुकथा विधा को नाजुक विधा के तौर पर उभारा, जबकि विश्व साहित्य के खलील जिब्रान, लियो तालस्ताय, चेखव, आस्कर वाइल्ड, मैक्सिम गोर्की व प्रेमचन्द ने चाहे लघुकथा के वर्तमान रूप में नहीं लिखा, परन्तु उन्होंने लघुकथा के आकार की और उसी तर्ज की कई रचनाओं का सृजन किया है। जैसी कि आजकल चेतन रूप से लिखी जा रही हैं और इनकी रचनाओं ने सभी विषय शामिल हैं। लघुकथा विधा के रूप विधान पर चर्चा करने के बाद एक बात स्पष्ट हुई कि विषय के चुनाव से सम्बन्धित है, कथानक का चुनाव। अर्थात् उस घटना को लघुकथा में बयान करना जो लघुकथा के घेरे में समाती है। उस एक पल की पेशकश जो जिन्दगी का महत्त्वपूर्ण क्षण है। यह पल कहानी, नावल या नाटक में भी कई बार आता है, परन्तु वह इतना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी बहुत बार उस बड़े कलेवर में कहीं खो जाता है। जब यह समझ आई तो फिर विषयों के चुनाव में भी एक तबदीली आई। लघुकथा लेखकों ने परिवारिक जीवन, बचपन, बुढ़ापे के कई पहलू, समाज की अन्य संस्थाओं जैसे शिक्षा, सामाजिक असमानता, औरत की स्थिति आदि अनेक–अनेक विषयों को छुआ और सफलता से निभाया। पंजाबी में ‘मिन्नी’ त्रैमासिक के सम्पादन में ‘अक्स पंजाब’ (पंजाब दुखान्त पर)’, ‘कुख दा दर्द व मरद की माँ’ (औरतों पर ), ‘पिछले पहर’ (वृद्ध–अवस्था पर), ‘खुरदीयां कन्धा’ (सामाजिक असमानता पर), ‘रिश्तियाँ दी दास्तान’ (मानव रिश्तों पर) आदि विषय आधारित कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
विषयों के चुनाव के साथ, जो विशेष गुण लघुकथा से जुड़ा था, वह था रचना में व्यंग्य का होना। यह भी एक बात पूर्ण प्रभाव छोड़ रही थी कि लघुकथा में व्यंग्य अनिवार्य है। इसलिए बहुत सी रचनाएँ चुटकलेनुमा हो जाती थीं और हास्य–व्यंग्य का प्रभाव देती थीं। कटाक्ष की प्रस्तुति भी अगर सँभलकर न की जाए तो उसमें भी हास्य पैदा होने का खतरा बना रहता है। धीरे–धीरे जब विषयों के चुनाव में गम्भीरता व विभिन्नता आई तो व्यंग्य के सीधे प्रभाव वाली भूमिका में भी बदलाव आया।
इसी बात से जुड़ा पहलू है, रचना का विस्फोटक अंत। यह बात भी बहुत समय तक बनी रही कि रचना का आकार छोटा है, इसलिए इस की गति तेज हो। रचना में आरम्भिक भूमिका, वातावरण चित्रण की गुंजाइश कतई नहीं है। रचना शुरू से ही पूरी गति से आगे बढ़े, सौ मीटर की रेस में भाग लेने वाले खिलाड़ी की तरह, और रचना को रहस्यमय बनाए रखना है तो अन्त में विस्फोट हो, इसलिए सनसनी पैदा करने की प्रवृत्ति भारी रही। पाठक को रचना पढ़ते हुए, अन्त में वह महसूस हो कि ‘‘हैं! ऐसा भी हो सकता था।’’
इस बात को दूसरी स्थिति से जोड़ते हैं कि लेखक के सामने जो घटा, वह ‘घटित यथार्थ’। घटित यथार्थ जो हुआ वह है। जैसे शरीफ व्यक्ति को पीटा जा रहा है, एक असहाय व्यक्ति को परेशान किया जा रहा है, एक लड़की से दुर्व्यवहार हो रहा है। लेखक चाहता है कि कोई आए, इनकी मदद हो या इन्हीं घटनाओं का पात्र ही साहस बटोरे और कुछ कर दिखाए। यह लेखक का ‘इच्छित यथार्थ’ है।
अब प्रश्न है इच्छित यथार्थ की प्रस्तुति कां जिस तरह घटित यथार्थ के पीछे एक सम्पूर्ण प्रक्रिया होती हे, उसी प्रकार इच्छित यथार्थ के लिए भी पूरा परिप्रेक्ष्य होता है। लेखक की इच्छा है कि लड़की के साथ छेड़छाड़ हो तो वह हाथ उठाए। पर वह ऐसा नहीं करती। इस न करने के पीछे कई पहलू हैं। उस लड़की के अतीत का, उसके पूरे लालन–पालन का, उसके आस–पास फैले वातावरण का, लेखक खुद ऐसा चित्रण करता है, जहाँ लड़की का हाथ उठाना अपवाद लगाने लगता है। यहीं पर विस्फोटक व सनसनीखेज अंत, रचना को असहज बना देता है। लेखक एक सीमा में रहकर रचना में इच्छित यथार्थ को पेश करे, उसे चमत्कारिक न बनाए।
यह बात सही है कि ‘कथा’ का यह गुण है कि पाठक की रोचकता रचना में बनी रही। रचना का अंत अविश्वसनीय व असहज न होकर, आज यह प्रवृत्ति उभरी है कि रचना के अन्त में कुछ अनकहा छोड़कर, पाठक को सोचने के लिए मजबूर किया जाए। कुछ इस तरह से रचना को बुना जाए कि रचना लेखक की कलम से जहाँ मुकम्मल हो, उससे आगे यह पाठक के मन में चलनी शुरू हो।
आरम्भिक दौर में लघुकथा को जहाँ लघुआकारीय बनाने की प्रवृत्ति रही, वहाँ यह बात भी उठी कि इसलिए शब्द सीमा निर्धारित की जाए। इस के लिए 250 शब्दों की सीमा तय करने का प्रश्न भी उठा। परन्तु यह एक मशीनी कार्य लगा। पाँच–दस बीस शब्दों की हेर फेर से तो रचना को विधा से बाहर नहीं फेंका जा सकता।
इन सब पहलुओं का एक केन्द्र सबसे शक्तिशाली लगा कि कथानक का सही चुनाव ही लघुकथा को अलग पहचान दे सकता है। यह तय होने के बाद देखा गया कि अगर लघुकथा लेखक कथानक के चुनाव में सक्षम हो तो रचना स्वयं ही ज्यादा शब्दों की माँग नहीं करेगी।
लघुकथा, क्योंकि एक पल की प्रस्तुति है, एक ऐसे विशेष क्षण की, एक ऐसी प्रक्रिया की, जो कि बहुत बार रचना का अन्तिम वाक्य होता है। परन्तु उस प्रतिक्रिया को एक वाक्य या उस वाक्य से पहले एक दो अन्य वाक्यों में पेश नहीं किया जा सकता। लेखक सामाजिक परिस्थितियों को समझता है, मानसिक उतार–चढ़ाव के पड़ावों से भली–भाँति परिचित है, अगर किसी स्थिति में कोई पात्र, अपने आप में ऐसी प्रतिक्रिया करता है, जो को किसी भी तरह ‘अजीब’ लगती है,तो यह समझना चाहिए कि व्ह प्रतिक्रिया ‘अचानक’ नहीं थी। उसे अतीत में घटित परिस्थितियों का कुल जोड़ कहना चाहिए। उसके मन में फैले तनावों का कुल जोड़ है -वह प्रतिक्रिया । तात्पर्य यह है कि प्रस्तुत घटना के साथ ‘समर्थक घटनाएँ’ भी जरूरी हैं। यह बात तय की जा सकती है कि जरूरत के मुताबिक वह एक हो या दो। उस घटित एक पल को बनने में जो समय लगा वह अवश्य ही रचना का हिस्सा बनना चाहिए।
लघुकथा का आकार, जहाँ वह इस विधा की शक्ति है और विलक्षणता भी, वहीं नया लेखक विशेष तौर पर और मानव–विज्ञान के विभिन्न पहलुओं से अनभिज्ञ लेखक भी इस में मात खा सकता है। लघुकथा का आकार ,लघुकथा के कथानक के चुनाव व उसकी सहज प्रस्तुति पर निर्भर करता है। वह अपने आप में स्वतंत्र नहीं है।
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