यह संयोग ही है कि जिस प्रकार आठवें दशक के प्रारम्भिक वर्षों में लघुकथा की दशा और दिशा के लिए म.प्र. के रचनाकारों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया इसी प्रकार से नौवें दशक के प्रारम्भ में अंगुली की पौरों पर गिने जाने वाले रचनाकारों के बीच विक्रम सोनी एक ऐसे रचनाकार के रूप में उभरे जिसने पूरे देश में अपने लेखन तथा लघुकथा की रचना प्रक्रिया और रचनाशीलता के संदर्भ में महत्वपूर्ण पहचान बनाई।
लघुकथा लेखकों पर कुछ घटिया मानसिकता वाले आलोचक यह आरोप लगाते पाए जाएंगे कि इस लेखन में सफलता नहीं मिली। विक्रमसोनी ऐसे आरोपो का जबड़ा–तोड़ जवाब है। विक्रम की कहानियाँ राष्ट्रीय स्तर की पत्र–पत्रिकाओं में न केवल प्रकाशित हुई हैं बल्कि एक बड़े पाठक समूह द्वारा उसे सराहा भी गया है। जहाँ तहाँ ‘धर्मयुग’ या अन्य राष्ट्रीय स्तर की पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानी की बात चलती है रिश्तों की कहानी की याद करते हुए विक्रम की ‘सुख के प्रत्याशी, कहानी बरबस जुबान पर आ जाती है। इस रूप में विक्रम सोनी एक उल्लेखनीय कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। इसकी पृष्ठभूमि व्यक्तिगत रिश्तों से नहीं रिश्तों के कथानक को महीन शिल्प की बुनावट से जुड़ी है।
विक्रम सोनी,एक कवि तथा गजलकार के रूप में तो जाने जाते थे, किंतु एक अच्छे कथाकार भी है, यह उनके मित्र समूह में बहुत कम लोग जानते थे, लेकिन अब जाना तो पता लगा कि वे बहुत ऊँचाई पर खड़े हैं।
‘‘सब कुछ समेटने की लालसा और लघुकथा की विराटता’’ ने विक्रम सोनी को संभवत: लघुकथा क्षेत्र की ओर आकर्षित किया। धीरे–धीरे यह आकर्षण इतना बढ़ता गया कि वे स्वयं आकर्षण के केन्द्र बन गए। लघुकथा की बातचीत के साथ विक्रम सोनी का नाम किसी एक वजह से नहीं आता वे एक रचनाकार, आलोचक तथा सम्पादक के रूप में लघुकथा संसार के सम्मुख उपस्थित हैं। जीवन का सही मूल्य स्थापित करने के लिए विक्रम सोनी लघुकथा को एक महत्वपूर्ण विधा मानते हैं। यदि उनके द्वारा परिभाषित लघुकथा को उद्धृत किया जाए तो उसकी शब्दावली इस प्रकार होगी, ‘‘जीवन का सही मूल्य स्थापित करने के लिए व्यक्ति और उसका परिवेश युगबोध को लेकर कम से कम स्पष्ट सारगर्भित शब्दों में असरदार ढंग से कहने का विधा का नाम लघुकथा है’’– वे लघुकथा को पूरी ताकत और क्षमता के साथ अपने समय की असरदार अभिव्यक्ति का माध्यम मानते हैं। करीब एक सौ पच्चीस लघुकथाकारों की रचनाओं को ‘मानचित्र’ एवं ‘पत्थर से पत्थर तक’ संकलनों के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए उन्होंने नौवेंद शक के रचनाकारों के प्रति आशा जनक निगाह से देखा। आठवें दशक के ‘तपस्वी कलमों’ के परख से जीवन्त लघुकथाओं की स्थापना को एकाएक नौवें दशक के प्रारम्भ में आई बढ़ने गंदला करने का प्रयास जरुर किया था, किन्तु यह प्राकृतिक सत्य है कि बाढ़ जल्दी उतर जाता है। आज की लघुकथाएँ बाढ़ उतरने के बाद की जायज लघुकथाएँ हैं....। रचनाकारों के प्रति उनकी यह धारणा कोई मसीहाई घोषणा नहीं, पीठ पर हाथ रखने की प्रोत्साहन–मानसिकता है जिसकी अपेक्षा प्राय: हर नया रचनाकार करता है। सम्पादक की केवल यही प्रोत्साहन प्रवृत्ति कितने प्रतिभाशाली रचनाकारों की प्रतिभा को उजागर करने में सही साबित होती है, इससे सभी परिचित हैं। ‘लघुआघात’ का पहिया इसी दृष्टिकोण की परिधि पर घूमता रहा है, और यही कारण है कि पत्रिका–परिवार किसी संयुक्त–परिवार की बड़ी से बड़ी सीमा को लाँघ गया है। ‘आघात के नियमित प्रकाशन के सही हकदार विक्रम सोनी एक पत्रिका निकालने की योजना लेकर जब मेरे पास आए थे तब यह कल्पना नहीं थी कि वे आर्थिक परेशानियों का गढ़ जीतने के लिए अपना ढेर सारा पसीना बहाकर एक अभूतपूर्व विजय प्राप्त कर सकेंगे। लघुआघात को छठे वर्ष में प्रवेश करा कर बड़ी ईमानदारी से वे यह स्वीकारते हैं कि ‘यह सब मात्र दो तीन सौ पाठकों रचनाकारों सहयोगियों की वजह से संभव हुआ।’ लघुआघात की महत्वपूर्ण भूमिका, लघुकथा जगत में सर्वविदित है। इस पत्रिका ने न केवल लघुकथा लेखकों को मंच दिया बल्कि लघुकथा के संबंध में अनेक आलोचनात्मक लेख देकर लघुकथा के समालोचनात्मक पक्ष को निरतंर पाठकों लेखकों के सामने लाकर, उस दिशा में कुछ कार्य हो पाने कि सम्भावना व्यक्त की।
आम आदमी पर लघुकथा की सम्प्रेषण क्षमता सिद्ध करने के लिए विक्रम सोनी ने कुछ अभिनव प्रयोग किए। मसलन, किसी नाई, धोबी, चमार या अन्य सेवा कार्यों में लगे सामान्य आदमी के सम्मुख लघुकथा–पाठ तथा उसकी प्रतिक्रिया। ऐसी प्रतिक्रियाएँ ‘आघात’ के कुछ अंकों में निरन्तर प्रकाशित हुई हैं। एक सम्पादक के नाते नए लेखकों को मार्गदर्शन उन्होंने खतों के माध्यम से तो दिया ही है पर सम्मेलनों में हिस्सेदारी के रूप में उनकी भागीदारी ज्यादा महत्वपूर्ण रही है। जगदलपुर, जबलपुर तथा अन्य स्थानों पर आयोजित लघुकथाकार सम्मेलनों में उन्होंने लघुकथा के रचनाशिल्प तथा उसकी संभावना पर सार्थक बहस करके कुछ महत्वपूर्ण तथ्य लघुकथा जगत को दिए हैं, इससे उनकी लघुकथा के प्रति अन्वेषक दृष्टिकोण से परिचित होने का मौका मिला है। लघुकथा का विकास, शिल्प तथा रचना कौशल पर प्रचलित मान्यताओं से परे अपने मूल्य स्थापित कर अपने कहने और जुबान के प्रति अनेक लोगों को उन्होंने आकर्षित किया है।
एक रचनाकार के नाते विक्रम सोनी की लघुकथाएँ किसी भी संग्रह का वैशिष्टय है। उनकी लघुकथाओं में समकालीन परिवेश के बेवाक चित्र मिलते हैं। सामाजिक, राजनैतिक पारिवारिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ी उनकी लघुकथाएँ, निर्मिष के महत्व को इस ढंग से चित्रित करती है कि पाठक लघुकथा के चरम बिन्दु तक पहुँचते हुए अद्भुत प्रभावक क्षमता से चमत्कृत हो उठता है। ‘भूख किस है’ लघुकथा को ही लें, ये राहत कार्य से जुड़े तमाम लोगों से घिरी होने के बावजूद बेनकाब करती है, बड़े साहब को, जो अमला के तमाम लोगों की तुलना में मेहनतकश व्यक्ति के शोषण के लिए जिम्मेदार है। ‘रोजी–रोटी रिश्तों की सही जमीन को केवल कुछ शब्दों में व्यक्त कर अंदर तक हिला देती है। ‘नई लुगड़ी, बनैले सुअर, अंतहीन सिलसिला, बही के आंकड़े, भूमिका, दाग, फैसला, कोढ़ का पेड़, बड़ी मछली का आहार, जैसी लघुकथाएँ विक्रम सोनी की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक तो हैं ही पर इनमें मानवीय रिश्तों, व्यवस्था तथा आर्थिक खोललेपन की सटीक, सजीव तथा प्रभावशाली शैली में प्रस्तुत किया है। ये रचनाएँ ऐसी हैं जो हर उस भाषा की अभिव्यक्ति है, जहाँ शोषण, उत्पीड़न के साथ रिश्तों की संवेदनात्मक त्रासदी मौजूद है। मानव–मन के सूक्ष्म–पक्ष को गहराई से उजागर कर छोटे आकार की ये बड़ी रचनाएँ किसी भी साहित्य की धराहर मानी जा सकती है।
साहित्य की किसी विधा के प्रति समर्पण भाव जिस रचनाकार में हो वह इतिहास के पृष्ठों का तो होता ही है, अपने समय के रचनाकारों के हृदय में भी उसी आत्मीयता के साथ उसके लिए जगह होती है। विक्रम सोनी ने यह जगह हासिल कर ली है या नहीं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि यह ऐसे प्रसंगों से जुड़ जाने के लिए अब तक उन्होंने कोई योजनाबद्ध तरीका नहीं अपनाया है।
-0-
|