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दस्तावेज़- हस्ता़क्षर : बलराम अग्रवाल
‘नींव के नायक’: पारम्परिक लघुकथा, विचार और शोध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संकलन
बलराम अग्रवाल
लघुकथा संकलन: नींव के नायक संपादक : अशोक भाटिया प्रकाशक : इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, के-71, कृष्णनगर, दिल्ली-110051 प्रथम संस्करण:2010 मूल्य : रु0 350/-
 

समकालीन हिन्दी लघुकथा का महत्वपूर्ण संकलन ‘पेंसठ हिन्दी लघुकथाएँ’(2001) तथा पूर्व व वर्तमान पीढ़ी के लगभग 150 कथाकारों की लघुकथाओं का चर्चित संकलन ‘निर्वाचित लघुकथाएँ’(2005) कथा-क्षेत्र को देने के बाद अशोक भाटिया द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन ‘नींव के नायक’(2010) प्रकाश में आया है। ‘नींव के नायक’ का प्रस्थान-बिन्दु क्योंकि सन् 1901 को रखा गया है इसलिए हिन्दी गद्य का जनक कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र(1850-1886) ‘नींव’ में इतने गहरे चले गए कि प्रकाश में न आ सके। पुस्तक में माधवराव सप्रे(1), प्रेमचन्द(10), माखनलाल चतुर्वेदी(2), पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’(3), जयशंकर प्रसाद(11), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी(1), छबीलेलाल गोस्वामी(1), जगदीशचन्द्र मिश्र(13), सुदर्शन(14), रामवृक्ष बेनीपुरी(1), अयोध्या प्रसाद गोयलीय(12), यशपाल(1), कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’(17), रामधारी सिंह ‘दिनकर’(4), उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’(8), रावी(9), विष्णु प्रभाकर(13), जानकीवल्लभ ‘शास्त्री’(1), रामनारायण उपाध्याय(3), हरिशंकर परसाई(12), दिगंबर झा(4), आनन्द मोहन अवस्थी(8), शरद कुमार मिश्र ‘शरद’(11), ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’(4), श्यामनन्दन शास्त्री(8), पूरन मुद्गल(1), युगल(2), सुरेन्द्र मंथन(1) तथा सतीश दुबे(1) यानी 29 कथाकारों की कुल 177 लघुकथाएँ संगृहीत हैं। पुस्तक में ‘भूमिका-सा कुछ’ शीर्षक से अशोक भाटिया का शोधपूर्ण लेख ‘सन् 1970 तक की लघुकथाएँ’ भी है।
रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित ‘गद्यकाल’(सन् 1900 से अद्यतन) की लघुकथा पर शोधपरक दृष्टि डालने वाले जिज्ञासुओं तथा शोधपरक कार्य करने वालों के ‘नींव के नायक’ एक आवश्यक पुस्तक है। आश्चर्य नहीं कि इसमें संकलित अनेक कथाकारों के लघुकथा-लेखन से बहुत-से पाठक पहली बार परिचित हों, लेकिन यह भी सही है कि अनेक महत्वपूर्ण नाम इसमें संकलित होने से छूट गए हैं। ऐसे कथाकारों में शिवनारायण उपाध्याय(रोज की कहानी, 1955), शान्ति मेहरोत्रा(खुला आकाश मेरे पंख,1962 संपादक:अज्ञेय) व भृंग तुपकरी(पंखुड़ियाँ, 1956) का नाम मुख्यरूप से लिया जा सकता है। वस्तुत: शोध एक अन्तहीन प्रक्रिया है और यह मानकर चलना कि अकेला व्यक्ति बिना किसी बाहरी सहयोग के पहली बार में ही उसे पूरा कर दिखाएगा, न्यायसंगत नहीं है। अशोक भाटिया का यह प्रयास इस अर्थ में अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि इससे सन् 1970 से पूर्व प्रकाशित लघुकथाओं व लघुकथा संग्रहों/संकलनों की खोज का एक रास्ता खुलता है।
पुस्तक में संकलित लघुकथाओं के अन्त में उनके प्रकाशन का वर्ष तथा स्रोत भी संपादक ने दिया है, लेकिन कुछेक में वह छूट गया है। प्रकाशन वर्ष व स्रोत का प्रकाशित होने से छूट जाना संकलन की चमक को कुछ हद तक कम करता है। ऐसी पुस्तकों की मूल्यवत्ता उनकी शोध-संबंधित पूर्णता में ही निहित होती है। रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, रामधारी सिंह दिनकर, रावी, विष्णु प्रभाकर, जानकीवल्लभ शास्री, दिगंबर झा, श्यामनन्दन शास्त्री की लघुकथाओं के न तो सन् लिखे जा सके हैं न स्रोत। कुछेक कथाकारों की लघुकथाओं के अन्त में प्रकाशन वर्ष तो दिया है लेकिन स्रोत नहीं दिया जा सका। माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ के स्रोत की खोज काफी महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।
यह निर्विवाद है कि 1970 से पूर्व लघुकथा मुख्यत: आम आदमी के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सरोकारों से भिन्न भाव और बोध की लघुकथा है। उसका स्वर आदर्शपरक अधिक है, यथार्थपरक कम। स्वर में यथार्थपरकता की चमक यद्यपि प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’ और ‘बाबाजी का भोग’ तथा परसाई की 1950 के आसपास प्रकाशित व्यंग्यपरक लघुकथाओं में दिख जाती है लेकिन उस काल में वह विलीन भी हो जाती है। स्थिर नहीं रह पाती। सहस्रों वर्ष से चली आ रही उपदेशपरकता की अपनी जमीन को तोड़ नहीं पाती। इस संकलन की लघुकथाओं के अध्ययन से हम हिन्दी लघुकथा के उस संघर्षकाल को रेखंकित कर सकते हैं जब वह पुरातन कथ्यों को त्यागकर नवीन कथ्यों को अपनाने की ओर अग्रसर हो चली थी। अशोक भाटिया ने पुस्तक के प्रारम्भ में संकलित अपने लेख ‘सन् 1970 तक की हिंदी लघुकथाएँ’ को यों शुरू किया है—“हिन्दी लघुकथा की आज जो एक शक्तिशाली धारा और गति है, उसके पीछे पूरी बीसवीं सदी का रचनात्मक अवदान रहा है।” हिंदी लघुकथा के उन्नयन में पुरातन कथा-साहित्य के अवदान को ‘बीसवीं सदी’ तक सीमित करने पीछे सम्भवत: यह कारण रहा हो कि आज का आलोचक हिंदी कहानी का सफर 1901 से प्रारम्भ हुआ मानता है और हिंदी लघुकथा को अपने अवचेतन में वह हिंदी कहानी से अलग नहीं देख पा रहा है। वस्तुत: तो हिन्दी लघुकथा ही नहीं किसी भी नवीन विधा के उन्नयन में उसके पूर्ववर्ती साहित्य का रचनात्मक अवदान रहता ही है। यह बात मानव-सभ्यता पर भी लागू होती है। मनुष्य प्रारम्भ से ही परम्परा के सकारात्मक पहलुओं को ग्रहण करता और गल-सड़ चुके रिवाज़ों-चलनों को त्यागता आया है। आश्चर्यजनक यह है कि उपर्युक्त पंक्ति लिखने के बाद लेख के तीसरे ही पैरा में अशोक भाटिया यह लिखने लगते हैं कि—“…एक तो इसे किसी बड़े नाम का अनावश्यक-अतार्किक सम्बल लेने से बचना होगा।” अगर इस वाक्य का अनुसरण करें और हिंदी लघुकथा के समकालीन पैरोकारों की दृष्टि से देखने लगें तो ‘नींव के नायक’ एक अनावश्यक संकलन सिद्ध हो जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। शोध एक अलग कार्य है। वह शान्त और धैर्यशील मनोमस्तिष्क का कार्य है। न तो पूर्वगृह और न ही आग्रह उसकी गति को रोक पाते हैं। यह शोध ही है कि गुलेरी ने जिन दृष्टांतों को अपने निबंधों में प्रयुक्त किया था और कुछेक संपादकों ने जिन्हें काट-छाँटकर लघुकथान्तर्गत प्रस्तुत कर दिया था, उन्हें लघुकथा से आज हटा दिया गया है। परसाई के विशुद्ध व्यंग्य भी उक्त धैर्यशीलता और आग्रहहीनता के कारण ही ‘लघुकथा’ स्वीकारे जा रहे हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘परिहासिनी’ भी मुक्त मनोमस्तिष्क की अपेक्षा रखती है।
“सन् 1970 तक की लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करने पर कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। एक यह कि हिंदी में बीसवीं सदी में निरंतर लघुकथाएँ लिखी जाती रही हैं।” वस्तुत: तो लघुकथाएँ नहीं, लघु-आकारीय कहानियाँ अथवा परम्परा का अनुसरण करती भाव-बोध-उपदेश-आदर्श-दृष्टांत प्रस्तुत करती कथाएँ लिखी जाती रही हैं जिन्हें ‘लघुकथा’ के समकालीन उन्नयन के मद्देनजर विधान्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है। स्वीकार्यता की इस शालीनता को अपनाना अवगुण नहीं है, बशर्ते कि विचार एवं कथ्य-प्रस्तुति के स्तर पर हम पुराने कथ्यों पर ही न चकराते रहें। ‘लघुकथा’ का सफर इसी दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इसने आकार के अतिरिक्त पुरातनता के लगभग सभी भावों से मुक्ति पाकर आधुनिक मानव से जुड़कर अपने-आप को ‘समकालीन’ सिद्ध कर दिखाया है।
कुल मिलाकर ‘नींव के नायक’ 1970 तक की लघुकथाओं की एकजुट प्रस्तुति की दृष्टि से ही नहीं, विचार और शोध की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण संकलन है।
सम्पर्क:एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
ई-मेल:2611ableram@gmail.com

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