लेखक खुशी-खुशी इस विकल्प को अपनाने लगे। इससे अधकचरी लघुकथाओं का प्रतिशत तो बढ़ा, पर साहित्य के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। ऐसा हर विधा के साथ होता रहा है।
लघुकथा आंदोलन जब तक सिर्फ लघुकथा को समर्पित रहा, उसके पहरुओं के अपने हित, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ लघुकथा से बड़ी नहीं थीं।उस समय तक आंदोलन अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करने में सफल रहा। इस दौर में लघुकथा को विधा के रूप में स्थापित करने, उसके लिए नया समीक्षाशास्त्रा गढ़ने पर गंभीर कार्य हुआ। जो साहित्यकार-समीक्षक इस काम में लगे थे, उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली। ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाओं ने लघुकथा विशेषांक प्रकाशित कर इस नवविकसित विधा का सम्मान किया। लघुकथा केंद्रित पत्रिकाओं की शुरुआत हुई। प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ लघुकथाओं को ससम्मान प्रकाशित करने लगीं। लघुकथा के स्वतंत्र समीक्षाशास्त्र और रूपविधान को लेकर बड़ा काम इसी दौर में संपन्न हुआ। आज भी लघुकथा के पास जो कुछ सार्थक है, खासकर इसके रूप-विधान को लेकर लिखा गया समीक्षात्मक साहित्य, वह उसी दौर का है। उसके बाद आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं में श्रेय लेने की होड़ ऐसी बढ़ी कि वह ‘तू-तू। । । मैं-मैं’ के स्तर तक आ गया। इससे साहित्यकारों का नुकसान तो हुआ ही, लघुकथा की प्रगति जहाँ थी, वहीं ठहर गई।
परिणाम यह हुआ कि लघुकथा-समीक्षा के क्षेत्र में इधर कोई गंभीर काम नजर नहीं आता। हाँ , रचनात्मक क्षेत्र में इसने जरूर तरक्की की है। लघुकथा के समर्थक खुद को यह कहकर तसल्ली देते हैं कि जो तलछट था, वह तूफान के साथ किनारे लग चुका है। अब सिर्फ गंभीर लघुकथाकार इस क्षेत्र में हैं। इसलिए शोशेबाजी गायब है। असली काम तो इन्हीं दिनों हो रहा है। उनकी बात यहाँ तक तो ठीक ही है कि लघुकथा आजकल एक स्थापित विधा है। वह अस्तित्व से संघर्ष से बाहर आ चुकी है। तो भी यह असंभव है कि कोई विधा अपना सबकुछ एक साथ प्राप्त कर आदर्शरूप हो जाए। मेरे दृष्टि में इससे खतरनाक बात तो दूसरी कोई हो ही नहीं सकती। कहानी को ही लें। समय के साथ उसमें परिवर्तन के न जाने कितने दौर आए हैं, न जाने कितने आंदोलनों से वह गुजरी है, तब जाकर उसका रूप कुछ-कुछ निर्धारित हो पाया है, जबकि लघुकथा के क्षेत्र में यह कार्य शुरुआती प्रयासों से आगे न बढ़ सका। समीक्षकों के दबाव की कमी तथा रूप-विधान के बारे में सहमति न बन पाने के कारण बड़ी पत्रिकाएँ भी लघुकथा के नाम पर ऐसी रचनाएँ प्रकाशित करती हैं, जो इस क्षेत्र में अब तक स्थापित मान्यताओं पर खरी नहीं उतरतीं।
तो भी यह मान लेना कि लघुकथा के क्षेत्र में गंभीर काम नहीं हो रहा है, गलत होगा। इकीसवीं शताब्दी का शुभारंभ ही लघुकथा के आदिविद्रोही जगदीश कश्यप के ‘बीसवीं शताब्दी की श्रेष्ठ लघुकथाएँ ’ के द्वारा हुआ था। उसके बाद कई लघुकथा संकलन, एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्होंने इस विधा के चाहने वालों में नया जोश पैदा किया है। इंटरनेट पर यह सर्वाधिक लिखी-पढ़ी जा रही रचनाओं में है। हाल ही में लघुकथा का नया संकलन कालीचरण प्रेमी और पुष्पा रघु द्वारा संपादित ‘अंधा मोड़’ शीर्षक से ‘अमित प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित हुआ है। संपादकद्वय में से एक कालीचरण प्रेमी नवें दशक में लघुकथा से जुड़े थे और इसी के होकर रह गए। लघुकथा आंदोलन के प्रणेताओं में फूट पड़ी देख उस समय अनेक साहित्यकारों ने खेमा बदला। लघुकथा को डूबता जहाज मानकर वे इसे छोड़ दूसरी विधाओं की ओर पलायन करने लगे। अशोक भाटिया की अच्छे लघुकथाकार के रूप में पहचान थी, पर शोध के लिए उन्होंने कहानी को चुना। ऐसा ही कई और साहित्यकारों ने भी किया। मगर कालीचरण प्रेमी उन थोड़े-से लघुकथाकारों में से हैं, जो किसी भी प्रकार की खेमे बाजी से परे, लघुकथा से नेह लगाए, लगातार लिखते जा रहे हैं। अपनी सहृदयता के दम पर उन्होंने मित्र -साहित्यकारों का बड़ा वर्ग खड़ा किया, जिसके सदस्यों का साहित्यिक राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है।
कालीचरण प्रेमी का क्षेत्र रचनात्मक लेखन का रहा। पर लघुकथा को लेकर उनकी चिंताएँ कभी कम नहीं हुईं। वे यहाँ तक तो आश्वस्त हैं कि लघुकथा आज विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हिंदी की शायद ही कोई बड़ी पत्रिका हो जो इसे प्रकाशित करने से बचती हो। पर वे यह भी मानते हैं कि लघुकथाकारों तथा लघुकथा प्रेमियों की चुनौती अभी पूरी नहीं हुई है। एक चुनौती का जिक्र तो उन्होंने अपने संपादकीय में ही किया हैμ‘लघुकथा को कुछ भी कहकर छाप दिया जाता है। कोई प्रेरक प्रसंग, कोई खरी-खोटी, कोई चुटुकला, तो कोई कटाक्ष लिखकर लघुकथा को स्थान दे रहा है। ’ आगे वे हिंदी की एक पत्रिका का नाम लेकर लिखते हैं कि उसमें, ‘जो लघुकथाएँ छापी जा रही हैं, वे केवल बॉक्स बनाकर छापी जा रही हैं। उन्हें लघुकथा नाम से नहीं छापा जाता है, जबकि इसी पत्रिका में अन्य रचनाएँ विधा का नाम देकर छापी जाती हैं। ’
उस पत्रिका को लघुकथा के तेवर और उसके पाठक तो चाहिए, पर नाम नहीं। उल्लेखनीय है कि लघुकथा के नाम को पहले भी मतांतर रहे हैं। आरंभिक दिनों में उसको छोटी कहानी, लघुकहानी, लघु व्यंग्य, कथिका, कणिका, मिनीकथा आदि नामों से पहचानने की कोशिश की गई थी। स्वयं जगदीश कश्यप के दिमाग में ‘मिनीकथा’ नाम के प्रति गहरा आकर्षण रहा होगा, तभी तो उन्होंने अपनी पत्रिका को ‘मिनीयुग’ नाम दिया था। उनकी ‘मिनीयुग’ अनियमित होकर भी लघुकथाकारों तथा उसके पाठकों के बीच लोकप्रिय बनी रही। कालांतर में जगदीश कश्यप भी ‘लघुकथा’ के पक्ष में आ गए, जो उन दिनों करीब-करीब आम सहमति प्राप्त कर चुका था। धीरे-धीरे लघुकथा आंदोलन साहित्यिक राजनीति का शिकार बनता गया और लघुकथाकारों के मतभेद निजी स्तर पर आने के कारण आखिरकार बड़े और प्रतिभाशाली लेखक उससे दूर होते चले गए। तो भी लघुकथा आंदोलन और ‘मिनीयुग’ जैसी पत्रिकाओं की इतनी उपलब्धि तो रही कि नई विधा के ‘लघुकथा’ नाम को लेखकों-पाठकों ने अपना लिया तथा इस बारे में उठने वाली बहसों को करीब-करीब विराम लग गया। तब से लघुकथा इतनी लंबी यात्रा कर चुकी है कि किसी एक पत्रिका का उसके नाम से परहेज करना उसके स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं डाल सकता। उसपर जिस पत्रिका का नाम प्रेमीजी ने उद्धृत किया है, उसकी गंभीर पाठकों में वैसे ही कोई पहचान नहीं है। इसलिए प्रेमीजी जैसे लघुकथा के प्रति समर्पित-सक्षम साहित्यकार को चिंता नहीं करनी चाहिए। असल में लघुकथा क्षेत्र में बड़ा संकट इस विधा के आलोचनात्मक साहित्य का अभाव है। छिटपुट आलेख तक तो बहुत-से साहित्यकारों ने काम किया है और कर रहे हैं, परंतु एक ठोस, सर्वमान्य और गंभीर काम की कमी इस विधा में अर्से से बनी हुई है। जगदीश कश्यप, भगीरथ, सुकेश साहनी, रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ आदि ने यद्यपि इस क्षेत्र में काफी काम किया है, तथापि बहुत कुछ करना अभी भी बाकी है। हाँ रचनात्मक स्तर पर काम करने वाले बहुत से लघुकथाकार हैं।
‘अंधा मोड़’ की विशेषता है कि इसमें लघुकथा के भारी-भरकम या स्थापित नामों की होड़ से बचा गया है। प्रायः इस तरह के जो संकलन प्रकाशित किए जाते हैं, उनमें कुछ स्थापित लघुकथाकार उनकी महत्ता को बढ़ाने के लिए जोड़ दिए जाते हैं। इस संकलन में भी जगदीश कश्यप, भगीरथ, सतीश दुबे, सुकेश साहनी, पृथ्वीराज अरोड़ा, कमल चोपड़ा जैसे लघुकथा के जाने-माने स्थापित नाम हैं, जो लघुकथा आंदोलन के ध्वजवाहक बन चुके हैं। पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें बीस से भी अधिक नाम उन रचनाकारों के हैं। जो इससे पूर्व पूर्व शायद ही किसी लघुकथा संकलन में शामिल हुए हों। ऐसे रचनाकारों में श्रीमती सुलोचना शर्मा ‘लोचन’, बाबा कानपुरी, रत्ना मिश्र, नैहा वैद्य, मोहन द्विवेदी, श्रद्धा आदि हैं। निश्चय ही इन लघुकथाकारों में से अधिकतर के कालीचरण ‘प्रेमी’ के निजी और आत्मीय संबंध रहे हैं। तो भी प्रेमीजी की तारीफ करनी होगी कि वे लघुकथा विधा के इन नए सारथियों से उनका सर्वश्रेष्ठ निकालने में कामयाब रहे हैं। एक श्रेष्ठ संपादक का यह गुण भी है कि वह रचनाकार से अपना मनोनुकूल और उसका सर्वश्रेष्ठ काम निकालने की क्षमता रखता है। हालाँकि सुश्री रत्ना मिश्र, नेहा वैद्य, मोहन द्विवेदी जहाँ काव्यजगत के स्थापित नाम हैं, वहीं डॉ लाल रत्नाकर ने चित्र कला के क्षेत्र में कई ऊँचाइयों को छुआ है। वे गँवई सौंदर्य और जिजीविषा के अनूठे चितेरे हैं। इन सबसे लघुकथा लिखवाना ही मुश्किल काम था। कालीचरण प्रेमी अपनी सदाशयता के कारण इस कार्य में यदि सफल रहे हैं तो इसके पीछे इस विधा के प्रति उनका समर्पण भी झलकता है। संपादक मंडल की दूसरी सदस्या पुष्पा रघु का भी इस विधा में खासा दखल रहा है। कविता, कहानी, बालसाहित्य आदि कई विधाओं पर बराबर पकड़ रखने वालीं पुष्पा रघु ने पारिवारिक संबंधों पर आधारित कई अच्छी-संवेदनशील लघुकथाएँ लिखी हैं ; इसलिए पुस्तक की सार्थकता में उनका भी योगदान है।
ऐसे लघुकथा संकलनों की विशेषता होती है कि प्रतिभागी साहित्यकार आमतौर पर अपनी श्रेष्ठ लघुकथाएँ देते हैं। इसलिए उनके पूर्व प्रकाशित होने की भी पर्याप्त संभावना होती है। इस संकलन की लघुकथाएँ भी पाठकों को पहले से पढ़ी हुई लग सकती हैं। किंतु जगदीश कश्यप की ‘चतुर प्रेमिका’, मनोज सोनकर की ‘महाभारत नंबर दो’, भगीरथ की ‘बंदा’ आदि लघुकथाएँ ऐसी हैं जिन्हें बार-बार पढ़ा जा सकता है। लघुकथा के क्षेत्र में नई-नई आईं सुश्री रत्ना मिश्र और नेहा वैद्य की रचनाएँ भी उनके भीतर छिपे दक्ष लघुकथाकार का परिचय देती हैं। इस संकलन पर एक सामान्य आरोप जो लगने वाला है, उसका कुछ-कुछ पूर्वाभास मुझे है। कुछ विद्वान कह सकते हैं कि पुस्तक तैयार करते समय संपादक-द्वय ने अनेक स्थापित लघुकथाकारों को छोड़ दिया है। यह आरोप इतना सामान्य है कि किसी भी बड़े से बड़े संकलन पर सही सिद्ध हो सकता है। पुस्तक का शीर्षक जिस अनुभूति से प्रेरित है, उसका उल्लेख भी प्रेमीजी ने अपने संपादकीय में किया है। बावजूद इसके यदि इसे सामान्य कमजोरी मान लिया जाए तो पुस्तक को संतुलित करने के लिए एक खूबी इसकी यह है कि इसमें अनेक नए नामों को लिया गया है। इसलिए यदि कुछ स्थापित नामों के छूटने पर संपादकद्वय की आलोचना की जा सकती है तो नए नामों को, खासकर लघुकथा के क्षेत्र में अपरिचित नामों को लेने पर इसके उनकी प्रशंसा भी की जानी चाहिए। रवींद्रकांत त्यागी, रत्ना मिश्र, नेहा वैद्य आदि की रचनाएँ नए कथ्य और स्फूर्ति के साथ पाठकों का स्वागत करने को तैयार हैं।
किसी भी साहित्यिक कृति का मूल्यांकन इससे भी किया जाता है कि उसने साहित्य की श्रीवृद्धि में कितना योगदान दिया है। कितना अपनी विधा को समृद्ध किया है। नई राह गढ़ने में उसकी कितनी भूमिका है। इस कसौटी पर देखा जाए तो ‘अंधा मोड़’ की रचनाओं से निराशा हो सकती है। इसमें न तो लघुकथा के इतिहास को समझने की कोशिश की गई है, न वर्तमान में लघुकथा लेखकों को दखल दी गई है। इसके बावजूद यह कृति नएपन का संदेश देती है तो इसलिए कि इसमें नई ऊर्जा और स्फूर्ति लिए अनेक लघुकथाकार मौजूद हैं जो नए होने के बावजूद आशान्वित करते हैं कि बिना किसी आंदोलन के भी विधा के पक्ष में कुछ रचनात्मक, कुछ मौलिक किया जा सकता है।
ओमप्रकाश कश्यप
अंधा मोड़ (लघुकथा -संग्रह) प्रकाशकःअमित प्रकाशन, केबी-97 कविनगर गाजियाबाद-201002 संस्करणः2010 मूल्य : 300 रुपये मात्र ,पृष्ठ संख्याः 280
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