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‘मिन्नी कहाणी दा संसार’: मूल्यवान व सार्थक प्राप्ति
 

‘मिन्नी कहाणी’(लघुकथा) अब पंजाबी साहित्य की एक स्थापित विधा है। इस के रूप-आकार सबंधी विशेषताएँ अथवा रूप-वैधानिक परख-कसौटियाँ निश्चित की जा चुकी हैं। इसकी परिभाषा, प्रकृति व स्वरूप संबंधी दर्जनों खोज-निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। लघुकथा संकलन ‘मिन्नी कहानी दा संसार’(संपादक: डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल व बिक्रमजीत ‘नूर’) में विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली लघुकथाएँ शामिल हैं। इस संकलन में पंजाबी के 81, हिन्दी के 85, अन्य भारतीय भाषाओं के 44 तथा विदेशी भाषाओं के 55 लेखकों की रचनाएँ सम्मिलित हैं। लघुकथा साहित्य में यह एक मौलिक एवं महत्वपूर्ण वृद्धि है। इस संकलन में शामिल कुल रचनाओं में से लगभग आधी रचनाओं को लघुकथा के मॉडल के रूप में देखा जा सकता है। इन रचनाओं से हमारे नौजवान लघुकथा लेखक बहुत कुछ सीख सकते हैं। इन रचनाओं में प्रमुख हैं– ‘मजबूरी’(बलबीर परवाना), मेंढ़कों के बीच’(सुकेश साहनी), ‘जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई’(युगल), ‘बीज बनने की राह’(रामधारी सिंह दिनकर), ‘उसकी भेंट’(पीटर ग्रे), ‘ईसा की वापसी’(दोस्तोयवस्की), ‘पुराना कोट’(नंद हांगखिम), ‘जूते’(ल्यू च्येनह्वा), ‘मेरी कहानी’(टोंबो गवरोंग), ‘चिंता’(डॉ. इकबाल हसन आज़ाद), तारों की छाँव’(चूड़ामणि) इत्यादि शामिल है। इन में तथा इन जैसी अन्य रचनाओं में आवश्यक ‘कथा’ भी है व ‘कथा रस’ भी। एक मॉडल लघुकथा का प्रारंभ झट-पट होता है, कोई भूमिका अथवा पृष्ठभूमि देने की जरूरत नहीं होती। शुरुआत के बाद मध्य की ओर बढ़ती हुई रचना तनाव व टकराव को प्रस्तुत करती हुई ऐसे अंत की ओर बढ़ती है ,जो कुछ ऊँचा सोचने व अच्छा करने के लिए मन-मस्तिष्क को झकझोरता है। ध्यान देने योग्य नुक्ता यह है कि तनाव बना रहना चाहिए।
लघुकथा में प्रस्तुत घटना स्वाभाविक, विश्वसनीय तथा संभव-संभाव्य के दायरे में होनी चाहिए। रचना को अधिक प्रभावशाली बनाने के मोह के तहत ही अतिकथनी अथवा बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की प्रवृति सनसनीखेज प्रस्तुति की ओर अग्रसर करती है। यह लघुकथा की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई सभी मान्य संभावनाओं को भी लाँघ जाती है। इस संकलन की रचनाओं– ‘बंसरी’( प्रीत महिंदर कलसी), ‘एक गदर और’(जगदीश राय कुलरियाँ) तथा ‘चौधर’(भीम सिंह गरचा) को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
लघुकथा बहुत नाज़ुक, कोमल व सूक्ष्म साहित्यिक विधा है। यह एक भी अनावश्यक चिह्न, शब्द, वाक्य अथवा वाक्य-समूह सहन नहीं कर पाती। लघुकथा में दोहराव अथवा विस्तृत विवरण संभव नहीं। डॉ. मनजीत सिंह बल्ल की लघुकथा ‘आठ आने का भूसा’ के अंतिम वाक्य के बिना भी रचना उद्देश्य एवं प्रस्तुति के पक्ष से सफलता ग्रहण कर चुकी थी। इंजी. संजीव सलिल की रचना ‘कमाई’ तथा रूप देवगुण की लघुकथा ‘प्रोढ़’ भी इसी श्रेणी में आती हैं।
चुस्त वार्तालाप अथवा संवाद लघुकथा का सबसे सफल माध्यम प्रतीत होता है। इस संकलन की रचनाएँ विश्व का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन लघुकथाओं के अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है कि संवाद शैली लघुकथा के लिए सर्वोत्तम शैली है। इस का यह अर्थ कदाचित् नहीं है कि वृत्तांत शैली में श्रेष्ठ लघुकथाएँ नहीं लिखी जा सकती। लेकिन तुलनात्मक रूप से अधिक श्रेष्ठ लघुकथाएँ वार्त्तालाप शैली में ही हैं। सरल और सादी शब्दावली प्रत्येक साहित्यिक विधा की आवश्यकता है और कलात्मक मानदंड भी। संप्रेषण के लिए बोली-शैली का सरल होना अति आवश्यक है। परंतु यहाँ ‘सरल’ का भाव सपाट बयानी नहीं है। उदाहरण हेतु सिंधी लघुकथा ‘सेवा’( वासुदेव ‘सिंधुभारती’) सपाट बयानी ही प्रस्तुत कर रही है। यह साहित्यिक विधा के नियमों के विपरीत है। जहाँ सपाट बयानी अथवा सीधा-सीधा उपदेश साहित्य नहीं होता, वहीं जटिल प्रस्तुति भी ,जो अर्थ-संचार अथवा लेखक के मनोभावों या उद्देश्य के संप्रेषण में बाधा बनती है, साहित्य नहीं है। इस संकलन की कुछ रचनाएँ बाद वाले दोष की शिकार हैं। उदाहरण हेतु– ‘मेरा पड़ोसी’(एडवर्ड उस्पेंस्की), ‘इसे गिरफ्तार कर लो’(ओ. हेनरी), ‘अगुआ’(भूपेन हज़ारिका), ‘पत्रकार पर हमला’(के.वी नागेश्वर राव), ‘नुक्कड़वाला खेत’(टी. नागेश्वर राव), ‘रेगिस्तान’(कुसुमाग्रज), इत्यादि। ‘हिम्मत’(मार्क ट्वेन) के अर्थ-भाव स्पष्ट नहीं हैं। लेखक को प्रचलित व स्पष्ट प्रतीकों का उपयोग करना चाहिए। मन माफिक प्रतीकों के उपयोग से अर्थ-संचार में बाधा उत्पन्न होती है।
लघुकथा, कहानी और उपन्यास के बीच का अंतर कथानक के चुनाव पर निर्भर करता है। लघुकथा एक क्षण की प्रस्तुति है। ऐसी घटनाएँ व मानसिक परस्थितियाँ, जिन्हें अकसर नज़रअंदाज कर दिया जाता है, लघुकथा का कथानक बननी चाहिए। कहानी वाले समय, स्थान व कार्य की एकता का फार्मूला लघुकथा पर अधिक सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है। समय के लंबे अंतराल में घटित घटनाओं के जमघट की प्रस्तुति लघुकथा में संभव ही नहीं। जब कोई लघुकथा लेखक ऐसा करता है तो उस पर ही आवश्यक परिश्रम व साधना करके कहानी, लंबी कहानी, लघु उपन्यास अथवा उपन्यास न लिखने का दोष लगता है। उदाहरण के लिए राजिंदर कौर वंता की लघुकथा ‘खामोश ज्वालामुखी’ देखें। चार-पाँच बड़ी घटनाओं को इस लघुकथा में प्रस्तुत कर दिया गया है। समय, स्थान व कार्य की एकता कहाँ गई? ये तो एक बड़े उपन्यास के कथानक का भाग बन सकती हैं।
तेजतर्रार व हर पक्ष से जटिल ज़िंदगी में घटित अनेक घटनाओं में से कुछ अपवादी अथवा अलौकिक किस्म की हो सकती हैं। लेकिन इन घटनाओं की प्रस्तुति वाली साहित्यक रचनाएँ प्रतिनिधि-यथार्थ के प्रति धुँधलका पैदा करने की दोषी हो जाती हैं। प्रतिनिधि-यथार्थ की विकृत प्रस्तुति साहित्य की कल्याणकारी भूमिका को नज़रअंदाज कर देती है। सार्थक उद्देश्य की प्रस्तुति के लिए घटना और उसकी पेशकारी मानने योग्य होनी चाहिए। सुरिंदर कैले की लघुकथा ‘सबक’ इस प्रवर्ग में होने के कारण साहित्य के क्षेत्र से बाहर हो जाती है। विक्रम सोनी की लघुकथा ‘मुआवजा’ अतिकथनी की सूचक है, संभव-संभाव्य की सीमा को लाँघती हुई यह रचना गैर यथार्थक लगती है। कल्पना व्यापक वास्तविक यथार्थ पर ही आधारित होती है। दूसरा- कल्पना की यथार्थ - प्रस्तुति उच्च कलात्मकता की माँग करती है ;जो इकबाल सिंह की रचना ‘आग नहीं बसंतर’ में गायब है।
कथाकार का उद्देश्य कितना भी ऊँचा व सच्चा हो, साहित्यिक रचनाओं में मौका-मेल की रूढ़ि के प्रयोग की मनाही है। अपवादी घटनाओं की तरह मौका-मेल जैसी घटनाएँ भी समाज में घटित होती हैं। कई बार एक साथ कई खुशियाँ भी मिलती हैं और एक के बाद एक समस्याओं से सामना भी होता है। लेकिन इनकी साहित्यिक कृतियों में प्रस्तुति वास्तविक यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करने के कारण असाहित्यिक विधि है। पंजाबी के सशक्त लघुकथा लेखक प्रीत नीतपुर की रचना ‘आटा’ इसी दोष के कारण साहित्यिक नहीं रही। इसी तरह डॉ. हरजीत सिंह सद्धर की रचना ‘काला कुत्ता’, विवेक की रचना ‘मौका’ व मलयालम लघुकथा ‘शहीद’ मौका-मेल की रूढ़ि के प्रयोग के कारण गैर साहित्यिक हो गई हैं।
साहित्य की कल्याणकारी दृष्टि माँग करती है कि प्रत्येक साहित्यिक रचना का कोई स्पष्ट उद्देश्य हो और वह पीड़ित पक्ष का योग्य पथ-प्रदर्शन करे। इस लिए अन्य साहित्यक विधाओं की तरह लघुकथा सृजन का उद्देश्य भी स्पष्ट हो, यह सार्थक संदेश का संचार करे। यह अमानवीय श्रेणी-व्यवस्था के विरुद्ध नफरत के भाव संचारित करे। निम्नलिखित कुछेक रचनाओं के अतिरिक्त संकलन की अधिकतर रचनाएँ मानवता के पक्ष में सार्थक व सकारात्मक संदेश देती हैं। ‘थकावट’(तृप्त भट्टी), ‘पुण्य’(अणिमेश्वर कौर) , ‘लिपस्टिक’(अव्वल सरहद्दी), ‘जूठ-सुच्च’(सुलक्खन मीत), ‘पुत्र का प्यार’(लियो तोलस्तोय), ‘सबसे बड़ा कौन’(रमेश नीलकमल), ‘कव्वे…जा…जा…जा’(विनोदिनी गोयनका) और ‘पहिचान’(वेद प्रकाश अमिताभ), ‘फुर्सत से आइए’(प्रफुल्ल दत्त), ‘कुत्ता’ (एन. उन्नी) इत्यादि रचनाओं में उद्देश्य स्पष्ट नहीं है; कुछेक मंतवहीन लगती हैं; कुछेक में संदेश तो है, पर वह सार्थक नहीं और कुछेक में तो पता ही नहीं चलता कि कथाकार कहना क्या चाहता है। विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार लियो तोल्स्तोय की लघुकथा ‘पुत्र का प्यार’ चुस्त फिकरेबाजी तो प्रस्तुत करती है, पर उद्देश्यहीन लगती है।
कुछ लघुकथाओं में कथाकार का उद्देश्य तो स्पष्ट है, लेकिन अन्य कारणों से उनकी रचना साहित्यिक नहीं रह जाती। उदाहरण के लिए पाश सिंह सिद्धू की लघुकथा ‘मिट्टी के मोर’ में लेखक स्वयं बोलने लग जाता है। इसी तरह नूर संतोखपुरी की लघुकथा ‘जूठ’ में भाषण को कथा-रूप दिया गया है। भाषण लघुकथा नहीं होता। चुस्त फिकरेबाजी की तरह ही चुटकले, टोटके अथवा मित्रों में चलती गपशप को लघुकथा की वस्तु नहीं बनाना चाहिए। ऐसा करने वाले कथाकारों को आरंभ में दी गईं कुछ मॉडल लघुकथाओं के साथ-साथ गुरबचन भुल्लर की लघुकथा ‘भाँज’ और खलील जिब्रान की रचना ‘लालसा’ देखनी चाहिए। एकमात्र स्पष्ट उद्देश्य को बिना किसी एक भी फालतू शब्द के नज़र अंदाज किए गए क्षणों को कितनी कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन रचनाओं में कहीं भी प्रचार अथवा उपदेश की झलक दिखाई नहीं देती। सब कुछ सहज-स्वाभाविक रूप में सरल और सादी बोली-शैली में पाठकों के मन-मस्तिष्क को छू जाता हैं।
व्यंग्यात्मक प्रस्तुति लघुकथा के लिए आवश्यक नहीं है। लेकिन व्यंग्य, चोभ और कटाक्ष से लघुकथा अधिक प्रभावी और हृदय को छू जाने वाली हो सकती है। मिसाल के लिए अनवंत कौर की लघुकथा ‘रेडीमेड’ हमारे समाज में फैले धार्मिक अंधविश्वासों पर तीखा व्यंग्य करती एक सफल लघुकथा है।
लघुकथा संकलन ‘मिन्नी कहाणी दा संसार’ में तुलनात्मक अध्ययन हेतु बड़े स्तर पर विश्व की लघुकथाओं को प्रस्तुत किया गया है। पंजाबी भाषा में इतने बड़े स्तर पर सामग्री भेंट करने के लिए यह संकलन प्रशंसनीय भी है और पठनीय भी।
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