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दस्तावेज़- राज थापर
‘सहयात्री’में संकलित लघुकथाओं पर एक दृष्टि
 

लघुकथा नवीनतम साहित्यिक विधा है जो अपने लघुकलेवर के कारण सामान्य पाठक के आकर्षण का बिन्दु बन गई है। संक्षेप में झटके के साथ कही गई बात हृदय को गहराई तक भेद जाती है। लघुकथा के प्रचार–प्रसार में लघु का भी विशिष्ट योगदान रहा है। कागज की महँगाई का प्रभाव लघुपत्रिकाओं की संख्या पर इतना नहीं पड़ा, जितना उनकी पृष्ठ संख्या पर। सीमित पृष्ठ संख्या के कारण लघु पत्रिकाएं कहानी की अपेक्षा लघुकथा को अधिमान देने लगी हैं। लघुपत्रिकाओं की संख्या इस कारण कम नहीं हुई ;क्योंकि नए लेखक के लिए स्थापित होने का यह एक बढ़िया माध्यम था। ‘तू मुझे छाप मैं तुझे छापूँ’ के आधार पर लघुपत्रिकाओं के संपादक कुछ दिनों में ही स्थापित लघुकथाकार बन गए। लघुकथा आमदनी का साधन भी बन गई। सहयोगी आधार पर लघुकथा संकलन निकाले जाकर, उन्हीं कथाकारों में वितरित किए जाने लगे। प्रवेश–शुल्क लेकर लघुकथा प्रतियोगिताएं आयोजित की जाने लगीं और संचित धन में से चहेतों को पुरस्कृत करके अपने–अपने गठजोड़ स्थापित किए जाने लगे। इस पाखंडबाजी के दौरान लघुकथा संबंधी गंभीर कार्य भी निरंतर होता रहा। कुछ–एक व्यवसायिक पत्रिकाओं ने इसका प्रयोग ‘फिलर’ के रूप में किया तो कुछ–एक ने इस विधा को गंभीरता से भी लिया। आज लघुकथा का जो रूप निखर कर आया है, वह लेखकों, संपादकों व समीक्षकों के गंभीर परिश्रम का द्योतक है।
लघुकथा संकलनों की भीड़ में ‘सहयात्री’ भी एक गंभीर प्रयास है, जिसमें बारह लेखकों की चर्चित लघुकथाएं प्रस्तुत की गई हैं। संकलन में आने से पूर्व ये लघुकथाएं प्रकाशन की सहयोगी पत्रिका ‘साहित्य वन्दना’ के अंकों में प्रकाशित हो चुकी हैं, और उसी क्रम में ‘सहयात्री’ में संकलित कर ली गई हैं। एक लेखक को दस बारह लघुकथाएं जहाँ लेखक क्षमता को पहचानने में सहायक है, वहीं लघुकथा की बारीकियाँ भी उभर कर सम्मुख आ जाती हैं।
प्रस्तुत संकलन ‘सहयात्री’ के संपादक डॉ. सुरेन्द्र मंथन सातवें दशक से लघुकथा लेखन से जुड़े हुए हैं। इनकी पहली लघुकथा ‘सम्पत्ति’ ‘दैनिक वीर प्रताप’जालन्धर के 21 नवम्बर, 61 के अंक में ‘घातक प्रवृत्ति’ र्शीषक से प्रकाशित हुई थी। जनवाद से प्रभावित होने के बावजूद इन्होंने व्यक्ति के अन्तर्मन की छानबीन करने में अधिक रूचि दिखाई है। संघर्षरत व्यक्ति यदि भीतर से टूटा हुआ है तो वह विश्वसनीय करार नहीं दिया जा सकता। ‘सुरक्षित’ व ‘प्रतिवादी’ ऐसे ही अवसरवादी जननेताओं की पोल खोलती हैं। ‘सम्पत्ति’ अवसरवादी नेता की पोल खोलने के साथ संग्रह की शाश्वत प्रवृत्ति’ पर प्रकाश डालती हुई, संघर्ष को साम्य का आधार मानती है। ‘प्रतिद्वन्द्वी’ में वर्ग संघर्ष को एकात्मवाद की अपेक्षा मानवीय हितों के अधिक अनुकूल समझा गया है। ‘व्यवस्था’ वर्ग संघर्ष की संकल्पना पर प्रश्न चिन्ह लगाती है, जिसमें मध्यवर्गीय संघर्षशील व्यक्ति यह निर्णय नहीं ले पाता कि वह शोषक या शोषित में किस श्रेणी का पक्षधर है। लोकप्रियता की दृष्टि से ‘रणनीति’ सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें राजनैतिक दांव–पेच हैं। ‘सिफारिश’ व ‘सर्वश्रेष्ठ’ भी भ्रष्ट राजनीति को नंगा करती हैं। अहम् व्यक्ति्त्व का अनिवार्य अंश है; लेकिन इसका विकृत रूप व्यक्तित्व को खंडित कर देता है। ‘मैं’ स्वस्थ अहम की स्वीकृति है, और ‘कुर्बानी’ हीनता- ग्रंथी से आहत व्यक्ति की प्रदर्शन–भावना। ‘अहसान’ भी हीनता बोध को नकारता है। ‘चोट खाया आदमी’ आहत अहम् का शिकार है। ‘चरित्रहीन’ में चरित्र की संकीर्ण परिभाषा पर चोट है। ‘दुश्मन’ एक मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है कि जिसे हम घृणा करते हैं, वह रात को सोते वक्त भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। मंथन की अधिकतर लघुकथाएँ व्यक्ति के आंतरिक द्वन्द्व की लघुकथाएँ हैं। संक्षिप्तता व तीव्र वेग से गंतव्य की ओर बढ़ना इनकी विशेषताएँ हैं, तो रचनाधर्मिता पर दर्शन का हावी होना गंभीर सीमा। अगर इनकी लघुकथाएं चुटकले या पहेली बनने से बच निकली हैं, तो कुछ लघुकथाएँ सूत्रों की व्याख्या बन कर रह गई हैं। व्यंग्य को इन्होंने लघुकथा पर हावी होने नहीं दिया। सांकेतिकता इनकी लघुकथाओं की प्रमुख विशेषता है, जिसके कारण लघुकथाएँ दोहरे–तिहरे अर्थों को ध्वनित करती हैं। लघुकथा का अंतिम वाक्य मारक प्रहार न करने के बावजूद पाठक को गंभीर सोच में डुबो देता है।
लघुकथा को उसका आधुनिक रूप देने वालों में रमेश बारा प्रमुख हस्ताक्षर हैं। ‘तारिका’ व ‘साहित्य निर्झर’ के लघुकथा विशेषांको और अब सारिका के माध्यम से लघुकथा को उसका विशिष्ट स्थान दिलाने में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। रमेश बतरा की दृष्टि में व्यक्ति को उसकी गरिमा से वंचित रखने का प्रमुख कारण भ्रष्ट व्यवस्था है। आर्थिक विषमता ही संबंधों के विघटन का प्रमुख कारण है, जिसके तहत भूख से बिलखता बच्चा माँ को खाने के लिए तैयर हो जाता है(माँएँ और बच्चे) ‘हालात’ इस सीमा तक विगड़ चुके हैं कि भविष्य की बात दूर, वर्तमान भी भूख से तड़प रहा है। सांप्रदायिकता आदि रोग भी इसी भ्रष्ट व्यवस्था की उपज हैं, जो आदमी को आदमी से लड़ाकर विशिष्ट वर्ग का उल्लू सीधा करती है। वास्तविक कारण ‘सूअर’ से बेखबर आदमी अपने ही साथियों के खून से हाथ रंग रहा है। इस खून–खराबे की कोई ‘वजह’, खोजने पर भी उसे नहीं मिलती, लेकिन इसके बावजूद भाषा आदि सामान्य बातों पर वे लड़ने को उतारू हो जाते हैं। ‘दुआ’ भी सांप्रदायिक मनोवृत्ति को नंगा करती है। वक्त की तेज रफ्तार में कदम मिलाने की चेष्टा में व्यक्ति को सीमा तक अनैतिक बना दिया है कि वह कपड़े उतारने पर उतारू हैं पर्स,इज्जत पर हावी हो गया है (शीशा) ‘नागरिक’ असुरक्षित है। रक्षक भक्षक बन गए हैं जिसके तहत जिम्मेदार व्यक्ति खामोश रहने को विवश है। रमेश बतरा की लघुकथाएँ विवरण में नहीं जाती, स्थिति को पकड़कर, संवाद शैली में, सीधे सादे शब्दों में गहरी बात कह जाती हैं। सांकेतिकता के कारण यह प्रभाव और भी गहरा जाता है। ‘वजह’ में भाषा के आधार पर झगड़ते हिन्दू–मुसलमान जोश में आकर वास्तविक कारण को नकारते मालूम देते हैं–नहीं भगवान.....नहीं खुदा...न खुदा....न भगवान...। प्रतीक मोह के कारण बारा की कुछ लघुकथाएँ पहेली नुमा बनने के खतरे से नहीं बच सकीं। जन सामान्य से सीधी जुड़ी होने के कारण लघुकथा को इस दोष से बचना चाहिए। बतरा संक्षिप्तता को अधिक महत्त्व नहीं देते। इनकी लघुकथाएँ अपेक्षाकृत लम्बी होने के बावजूद सुगठित हैं। गहरी सूझ पाठक की सोच को झंकृत कर देती है।
‘प्रयास’ के लघुकथा–विशेषांक के संपादन–प्रकाशन के साथ लघुकथा क्षेत्र में प्रवेश करने वाले कमलेश भारतीय पिछले एक दशक से इस विधा को समर्पित हैं। कमलेश भारतीय की लघुकथा की विकास–यात्रा नितांत प्रेमकथाओं नाजुक संबंधों व संबंधों के दोगलेपन से प्रारंभ होकर छोटे–छोटे वर्गों के दुख -दर्द से गुजरती हुई अब वर्तमान राजनैतिक विसंगतियों पर प्रहार करने के पायदान पर आ पहुँची है। ‘बच्चा न मारना’, ‘राजनीति’ ‘राजा विक्रमादित्य’, ‘कारण’ स्वार्थी राजनेताओं, राजनैतिक दलों व झूठे आश्वासनों पर प्रहार करती हैं। ‘कुर्सी का डर’ सत्ता के आतंक को ध्वनित करती है, और ‘अनमोल’ मंहगाई व वितरण–प्रणाली पर व्यंग्य कसती है। ‘परदेसी–पाखी’ में वंचित व्यक्ति की मनोदशा का सटीक चित्रण है। ‘किसान’ एक लोकगीत की तरह किसान की व्यथा–कथा को उजागर करती है। कमलेश भारतीय की दृष्टि में आम आदमी के दुख–दर्द का कारण भ्रष्ट व्यवस्था है। प्रेम–प्रसंगों पर लिखी लघुकथाओं में ‘कायर’ व ‘आज का रांझा’ प्रेम के खोखलेपन को रेखांकित करती है, और ‘निगेटिव’ दोहरे मूल्यों पर चोट करती है। सादगी भरी आंचलिकता का स्पर्श लिए भाषा व ग्रामीण परिवेश भारतीय के लघुकथा लेखन की विशिष्टता है। कहानी के अंतिम अंशों में लेखकीय हस्तक्षेप व आरोपित निर्णय रचना को अवश्वसनीय बना देते हैं। भारतीय ने लघुकथा को जन सामान्य से जोड़ने में मुख्य भूमिका निभाई है।
अशोक भाटिया युवा लघुकथाकार हैं जो विगत आठ वर्ष से लघुकथा–क्षेत्र में गंभीर हैं। अशोक भाटिया ने सामाजिक विसंगतियों का पर्दाफाश करने के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक विषयों को स्पर्श करती लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘भूख’ पेट की ही नहीं, सामाजिक प्रतिष्ठा की भी होती है। ‘डर के पीछे’ बालक की जिज्ञासा को गलत ढंग से सुलझाने की आदत है जो अन्तत: अनेक विकृतियों का कारण बनती है। ‘उसका भगवान’ व्यक्ति की असुरक्षा–भावना का द्योतक है। ‘अपराधी’ में आदर्शवाद की बड़ी–बड़ी बातें बघारने वाले व्यक्ति की अपराधानुभूति का चित्रण है। व्यक्ति अपनी अपूर्ण आकांक्षाओं की पूर्ति संतान के माध्यम से करना चाहता हे, परन्तु व्यवस्था का ताना–बाना इतना पेचीदा है कि वंचित पीढ़ी, ‘पीढ़ी–दर–पीढ़ी’ वंचित ही चली आती है। अशोक भाटिया ने विसंगतियों का पर्दाफाश करने के लिए व्यंग्य का सहारा भी लिया है। ‘साहब’ इस लिए साहब नहीं दिखता ;क्योंकि न तो उसकी तोंद निकली है, न वह गाली देता है, और न ही खुद बिस्तर समेटता है। ‘बंद दरवाजा’ विशिष्ट लघुकथा है जिसमें उपेक्षित वर्ग का सोया दर्प जाग उठा है। ठाकुर की सदाशयता से प्रभावित होने की अपेक्षा चमारिन उसे पानी पिलाने से इन्कार कर देती है। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करना अशोक भाटिया के लघुकथा लेखन की विशिष्टता है।
विक्रमसोनी लघुकथाओं की सम्पूर्ण पत्रिका ‘लघु आघात’ निकालकर लघुकथा को सम्मान जनक स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इनकी लघुकथाओं का परिवेश ग्रामीण है जो इन्हें अन्य लघुकथाकारों से विशिष्ट बनाता है। ‘मुट्ठियों में कैद’ लघुकथा छोटे किसान की व्यथा–कथा से साक्षात कराती है। ‘तानाशाह’ जमींदारी प्रथा पर गहरी चोट है। ‘जूते के नाप का आदी’ विशिष्ट लघुकथा है जिसमें पुत्र को विरासत में मिली बन्धुआ मजदूरी की विवशता का चित्रण है। ‘अपना–अपना आदर्श’ में समाज–सुधार पर चोट है, ‘हराम की रोटी’ दोहरे मूल्यों को नंगा करती है। विक्रम सोनी की सबसे बड़ी सीमा हल्की लोकप्रियता के मोह में, सैक्स को वैसाखी के रूप में इस्तेमाल करना है। ‘भूख किसे है’, ‘पतिव्रता’, ‘चिंतामुक्त’ में सेक्स नंगा हो गया है। फिर भी लघुकथाओं के क्षेत्र में विक्रम सोनी का विशिष्ट स्थान है।
लघुकथाएंकलन ‘हालात’ के प्रकाशन–सम्पादन द्वारा लघुकथा जगत में हलचल मचाने वाले कमल चोपड़ा लघुकथा के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। लेखन के अतिरिक्त इन्होंने लघुकथा को आलोचक की दृष्टि से भी देखा है। महानगरीय जीवन में जिन्दगी को ढो रही शोषित वर्ग इनका कथा–संसार है। पूंजीपति वर्ग की स्वार्थपरता ने आदमी को ‘जानवर’ से भी बदतर जीवन जीने को विवश कर दिया है। पूँजीपति मजदूर को जानवर समझता है और उसे खाने को देता है तो सिफ‍र् इस लिए कि उसका धंधा चलता रहे। काले धंधे वालों की ‘पहली चिंता’ अपना माल असबाब छिपाने की है, न कि मजदूर की जिन्दगी बचाने की। ‘सोहबत’ वर्ग–भेद पर कटाक्ष करती है जिसके तहत उच्च वर्ग अपने बच्चों को नीची हस्ती के बच्चों की अपेक्षा कुो के साथ खेलने की तरजीह देता है। भ्रष्ट व्यवस्था की विसंगतियों के अतिरिक्त कमल चोपड़ा ने संबंधों के विघटन पर भी लघुकथाएँ लिखी हैं। विघटन के मूल में पूंजीवादी व्यवस्था ही है। पैसे के आगे न्याय ही सिर नहीं झुकाता, व्यक्ति का खून भी पानी हो जाता है (न्यायकर्ता) । ‘इस तरह’ में सरकारी अस्पताल बीमार मां के लिए मिली दवाइयां कैमिस्ट को बेचने की बात है। ‘भगवान पिता की आत्मा को शांति दे’ में पिता की मौत को भुलाने का चित्रण है। ‘अथ: श्रीलाभ’ में लाख रुपए में खोए बच्चे को पाने की अपेक्षा पिता नामक जीव नया बच्चा पैदा करने की बात सोचता है। बर्फ़ हो गए संबंधों को दर्शांती कमल चोपड़ा की ये लघुकथाएँ फैशन में लिखी गई अपेक्षाकृत अशक्त लघुकथाएँ हैं जिनका उद्देश्य पाठक को चौंकाकर सस्ती लोकप्रियता बटोरना है। इस मोह से उभरना कमल चोपड़ा जैसे जीवंत लघुकथाकार के लिए बहुत जरूरी है।
‘प्रज्ञा मंच’ से सम्बद्ध मधुकांत की लघुकथाओं का परिवेश भी तेजी से भागता महानगरीय जीवन है। पेट की भूख ने जिन्दगी की रफ्तार इतनी तेज कर दी है कि इसे शंत करने की ‘अंधी होड़’ में आदमी सगे–संबन्धियों को भी पैरों तले रौंदने से नहीं हिचकिचाता। महानगरीय जीवन का आतंक उसे सपनों में भी साँस नहीं लेने देता (सपना) जनवाद से प्रभावित होकर मधुकांत ने जहाँ कुछ श्रेष्ठ लघुकथाएं लिखी हैं, वहीं जनवाद का आरोपित आक्रोश उनकी सीमा भी है ‘चक्रवृद्धि’ व ‘नंगी’ लघुकथाएँ पूंजीपति व्यवस्था पर गहरी चोट करती हैं। यह इस व्यवस्था का ही परिणाम है कि भूखा आदमी सेक्स के माध्यम से पेट की ‘भूख’ को दबाने के लिए विवश हो गया है। ‘अपना अपना छूत’ अफसर शाही के खोखलेपन पर केन्द्रित है। तो ‘सुनो’ और ‘हराम की कमाई भ्रष्ट आचरण को रेखांकित करती है। मधुकांत ने विघटित दाम्पत्य जीवन का चित्रण भी किया हैं। मधुकांत की अधिकतर लघुकथाओं की संवेदना सूक्ष्म व तीव्र नहीं है। व्यंग्य घातक प्रहार करने की अपेक्षा स्पर्श करके निकल जाता है। संगठन की दृष्टि से शब्दों की फ़िजूलखर्ची इच्छित प्रभाव डालने में बाधक बन जाती है। इन सीमाओं के बावजूद मधुकांत ने महानगरीय जीवन व भ्रष्ट व्यवस्था पर कुछ जानदार लघुकथाएँ लिखी हैं।
तरसेम गुजराल लघुकथा लेखन में जनवादी तेवर लेकर प्रविष्ट हुए हैं। इनकी अधिकतर लघुकथाएं लोक कथाओं का रूपांतर है। ‘तंत्र’ व्यवस्था पर चोट करती है, क्योंकि इस तंत्र के अन्तर्गत सही आदमी को अपनी नेकनीयती की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। ‘फैसला’ लोककथा पर आधारित है जो न्याय प्रणाली पर सीधा प्रहार करती है। ‘कोशिश’ नीतिकथा की तर्ज पर है जो बार–बार की असफलता के बावजूद हिम्मत न हारने का निर्देश देती है। ‘ सीमांत’ में अत्याचार के विरूद्ध जन संघर्ष का आवाहन है। ‘तमाशा’ पूंजीपति वर्ग की मनोवृत्ति पर करारा प्रहार है जो गरीब आदमी के खून में मनोरंजन खोजते हैं। तरसेम गुजराल की लघुकथाओं पर वैचारिकता हावी है, जिससे रचना सिद्धान्तों की व्याख्या बन कर रह जाती है।
हरनाम शर्मा भी ‘प्रज्ञा मंच’ से सम्बद्ध लेखक हैं, जो मंच के माध्यम से लघुकथा के प्रचार–प्रसार में विशिष्ट भूमिका निभा रहे हैं। इनका लेखन–क्षेत्र राजनैतिक–भ्रष्टाचार है जो व्यक्ति के सहज विकास में अवरोधक बन कर खड़ा है। ‘शिनाख्त’ में उस आतंक का चित्रण है जिसके प्रभावाधीन कोई शरीफ आदमी समाज विरोधी व्यक्ति के विरुद्ध गवाही नहीं देना चाहता। ‘अन्जामें गुलिस्तां क्या होगा?’ में व्यवस्था के घोर भ्रष्ट होने का संकेत है। । ‘नकल’ प्रेस की असंवेदनशीलता पर करारा तमाचा हैं हरनाम शर्मा ने व्यवस्था के भ्रष्ट रूप पर प्रहार तो किए हैं; परन्तु वे इस व्यवस्था के आंतरिक माहौल को नहीं पकड़ सके। दृष्टि का पैनापन और सांकेतिक भाषा का अभाव खटकता है।
नवयुवक हस्ताक्षर संदीपन को व्यक्ति के दोगलेपन से चिढ़ है। सोच और व्यवहार के बीच का अन्तराल ही व्यक्ति् को पाखण्डी बनाता है। दोगले व्यक्ति के इस व्यवहार ने ही युवावर्ग को विद्रोही बना दिया है। संदीपन ने अपने आक्रोश को कहीं भी असंतुलित नहीं होने दिया। मीठे–मीठे व्यंग्यों द्वारा उसने आदमी के ऊपर चढ़े इस मुखौटे को कुरेदा भर है। ‘व्यवहारकुशल’ में व्यक्ति के दोगलेपन का चित्रण है, जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति बाहर–भीतर दो खानों में बंट जाता है। ‘चरित्रवान’ भी चरित्र के दोगलेपन को नंगा करती है। ‘अन्र्तकथा’ परीक्षाओं में फैले भ्रष्टाचार पर प्रहार है। ‘परपंरा’ धर्म के उस रूप पर प्रहार है जो भ्रष्ट लोगों को शरण देती हैं। ‘योजना बद्ध’ भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्ठा खोलती है तथा ‘पुरस्कार’ में आज की भ्रष्ट व्यवस्था का चित्रण है। इस प्रकार संदीपन ने ‘भीतर’ और ‘बाहर’ दोनों पक्षों पर लिखा है।
चाँद शर्मा भी लघुकथा क्षेत्र में नया चेहरा है। चाँद शर्मा भी भ्रष्ट व्यवस्था से चिढ़ा हुआ लेखक है। इनकी लघुकथाएँ इस व्यवस्था के लंबे हाथों की मार को महसूस कराती हैं। एक वर्ग पेट की भूख से पीडि़त है तो दूसरा सैक्स की भूख से। पेट की ‘भूख’ के समक्ष सतीत्व गौण हो जाता है। ‘मेहनत मजूरी’ में बाड़ खेत को खा रही है। जिस व्यवस्था में रक्षक भक्षक बन जाए वहाँ मानवीय अधिकार सिसकने की बजाय क्या कर सकते हैं? ‘हालात’ इस सीमा तक नाजुक हो चुके हैं कि जेब में पैसा होत हुए भी आदमी चीज नहीं खरीद सकता। इन अमानवीय परिस्थितियों में घिरा आदमी असंतुलित होकर अपने नपुंसक आक्रोश को मासूम बच्चों पर निकालने को विवश हो जाता है। चाँद शर्मा यदि मौलिक व अछूते विषयों पर लेखनी चलाएं तो और भी बढि़या लिख सकते हैं।
संकलन के अंतिम हस्ताक्षर मधुदीप इस क्षेत्र के जाने–पहचाने पुराने खिलाड़ी हैं। लघुकथा संकलन ‘तनी हुई मुठ्ठियाँ के माध्यम से इन्होंने लकथा को स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने का सराहनीय कार्य किया है। व्यंग्य इनका पैना हथियार है, जिसके माध्यम से इन्होंने व्यक्ति व समाज के अन्तर्विरोधों पर गहरे प्रहार किए हैं। ‘शासन’ इनकी प्रतिनिधि लघुकथा है जो पुरुष वर्ग के थोथे अहम् को ध्वनित करती है। चाय वाला मामूली आदमी भी पुरुष होने के अहम् में ग्रस्त होने के कारण अस्वस्थ पत्नी को चाय बनाकर पिलाना अपनी शान के खिलाफ समझता है। ‘अहम’ भी पुरुष के झूठे दर्प को चित्रित करती है जिसमें निराश पुरुष की निराशा गालियों का रूप धारण कर लेती है। ‘अपनी अपनी मौत’ में व्यक्ति किसी की खातिर नहीं, अपनी इच्छाओं की अपूर्ति के लिए रोता है। व्यक्ति के झूठे दर्प को नंगा करने के साथ–साथ मधुदीप ने असता पर आधारित व्यवस्था पर भी चोट की है। ‘नरभक्षी’ पूंजीपति वर्ग के शोषण को चित्रित करती है। ‘नरभक्षी’ प्रतीकात्मक है। जिसमें शोषक निरंतर मोटा होता जा रहा है। ऐसे जनवादी चेतना को जगाती हुई समाज की विसंगतियों पर व्यंग्य के माध्यम से करारे प्रहार किए हैं।
उपर्युक्त विवेचन से समकालीन लघुकथा की प्रमुख दिशाओं का सहज ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अधिकतर लघुकथाएँ भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार शोषित व्यक्ति के हाहाकार को चित्रित करती हैं। सुरेन्द्र मंथन व अशोक भटिया ने मनोविज्ञान का सहारा लेकर यदि व्यक्ति के अंतर को टटोलने की कोशिश की है तो आंतरिक मन की इस कलह के बीज भ्रष्ट व्यवस्था में ही खोजे हैं। विक्रम सोनी व कमलेश भारतीय को ग्रामीण परिवेश की सही जानकारी है। रमेश बतरा व कमल चोपड़ा ने महानगरीय परिवेश में पिस रहे सामान्य व्यक्ति की पीड़ा को ध्वनित किया है। मधुदीप, मधुकांत, हरनाम शर्मा व तरसेम गुजराल का रचना–संसार भ्रष्ट राजनीति है। चाँद शर्मा व संदीपन उभरते चेहरे हैं, जिन्होंने व्यक्तित्व के अन्तर्विरोधों व सामाजिक विसंगतियों पर कटाक्ष किए हैं। संकलित लघुकथाओं के पाठ के पश्चात् हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि आधुनिक लघुकथा ने कथ्य व शिल्प की दृष्टि से अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित कर ली है।

सहयात्री (संपादक सुरेन्द्र मंथन), हिंदी साहित्य प्रकाशन,बी–4, 1538 कच्ची गली, लुघियाना
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