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दस्तावेज़- बलराम अग्रवाल
कोहरे से गुजरने को शापित निरीह सामाजिक की कथ्य-भंगिमाएँ
वर्तमान समय में निम्नजातीय और गरीब परिवार में जन्मे व्यक्ति के मनोमस्तिष्क पर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दबाव इस कदर हावी हैं कि उसे मात्र अपनी सही पहचान प्रस्तुत करने के लिए ही बेतहाशा जूझना पड़ता है। जाति-विभेद इस देश की नसों में सांस्कारिक शुचिता के नाम पर शास्त्रीय कुतर्कशीलता के साथ बेशर्म तरीके से दौड़ता है। धनहीनता यहाँ अभिशाप है। हथकंडेबाज राजनेताओं की नजर में नैतिकता और आदर्श निरर्थक शब्द मात्र हैं। उनके लिए अर्थपूर्ण है—येन-केन-प्रकारेण वोट-बैंक पर कब्जा बनाना और बनाए रखना। सत्ता के दलालों, छुटभैये राजनेताओं और नौकरशाहों की मिलीभगत ने नि:संदेह इस देश की अधिकांश मेधा को प्रकाश में आने से वंचित कर उसे न केवल मनोरोगी बनाया है बल्कि निकम्मा, झूठा, कामचोर, असामाजिक और बेईमान भी सिद्ध कर दिया है। अस्तित्व को बचाने और अपने होने के औचित्य को सिद्ध करने की मुहिम में लगा आम आदमी इन सब आरोपों से घिरकर अपने-आप को अक्सर हताश-निराश भी महसूस करने लगता है। इसके चलते कभी उसका अन्त गोरख पाण्डे जैसा आत्महत्यापरक त्रासद होता है तो कभी परछिद्रान्वेषणपरक जगदीश कश्यप जैसा परपीड़ादायी हो उठता है। जो भी हो, दोनों ही स्थितियों का कारण भय, हताशा और निराशा से उपजी कुंठाग्रस्त मानसिकता ही है। यह भय, हताशा और निराशा ही है कि समूची लेखकीय प्रतिभा और सामर्थ्य के बावजूद भी एक आदमी अपने-आप को ताउम्र घटाटोप ‘कोहरे से गुजरता’ महसूस करता है। एक ऐसा कोहरा जिसमें घिरे रहना वह अपनी नियति मान चुका हो और जिसे चीर पाने में स्वयं को अक्षम मानकर अन्तत: उसी का हिस्सा बन चुका हो।
उपर्युक्त अभेद्य एवं अन्तहीन ‘कोहरे से गुजरते हुए’ जगदीश कश्यप ने इसी शीर्षक से प्रकाशित अपने पहले लघुकथा संग्रह में कुल 76 लघुकथाएँ संगृहीत की हैं जिन्हें उन्होंने तीन खण्डों—‘दृष्टांत परम्परा और लघुकथा’, ‘हिंदी लघुकथा के तेवर’ तथा ‘प्रादेशिक लघुकथाएँ’—में विभक्त रखा। पहले खण्ड में 12, दूसरे में 46 तथा तीसरे में 18 लघुकथाएँ हैं। खण्डों का औचित्य बताने की दृष्टि से जगदीश ने प्रत्येक खण्ड के प्रारम्भ में अपना मंतव्य दिया है, लघुकथाएँ बाद में। पहले खण्ड की लघुकथाओं के बारे में उन्होंने लिखा है—‘अब चूँकि लघुकथा का विकास अजीब-अजीब बयानों से अवरुद्ध किया जा रहा है, और ऐसे लोगों को दृष्टांत और लघुकथा का अंतर समझ नहीं आ रहा, अत: मैंने इस खण्ड में केवल दृष्टांत शैली की रचनाएँ ही रखी हैं।’ मेरा मानना है कि ‘समकालीन’ सोपान तक आते-आते ‘लघुकथा’ ने वस्तुत:— पारम्परिक, भाव और युग्म तीन अन्य सोपान भी तय किये हैं। बोधपरक, दृष्टांतपरक एवं उपदेशपरक शैलियाँ ‘लघुकथा’ के पारम्परिक सोपान की शैलियाँ हैं। इस खण्ड की रचनाएँ वस्तुत: जगदीश द्वारा इंगित ‘दृष्टांत शैली’ की न होकर ‘भाव एवं युग्म’ सोपान की लघुकथाएँ हैं और इन्हें खलील जिब्रान की भाव-शैली का अनुकरण करते हुए लिखा गया है, यहाँ तक कि इनमें से अनेक तो सीधे-सीधे खलील जिब्रान से उठाई हुई प्रतीत होती हैं; तथापि इनमें से अधिकतर के कथ्य समकालीन व्यथाओं और पीड़ाओं को ही व्यक्त करने वाले हैं। इस खण्ड में कुंठा-निराशा-भग्नाशा-असफलता-दुर्भाग्य-स्पष्टवादिता-सीधापन-ईमानदारी आदि मानवोचित भावों, पीलिया-तपेदिक-आत्मा-समय आदि अमूर्त पात्रों, बिजली का खम्भा-पत्थर-फूलमाला-गजरा आदि निर्जीव मूर्त पात्रों तथा समुद्र-बादल-शरीर आदि सजीव मूर्त पात्रों के माध्यम से कथ्य को प्रस्तुत किया गया है। पहले खण्ड की लघुकथाओं में सहधर्मी, साथ छोड़ देने के बाद, दर्पकाल, आखिरी खम्भा, माफीनामा और सुखी आदमी स्तरीय रचनाएँ हैं।
दूसरे खण्ड की लघुकथाओं के बारे में जगदीश का कहना है कि—‘मेरा प्रयास रहा है कि इनमें एक कथा-प्रक्रिया का विकास किया जाये और लघुकथा को सिद्ध किया जाये।’ इस एक वाक्य से ‘लघुकथा’ लिखते समय जगदीश की ‘कथा-प्रक्रिया’ को अपनाने और विकसित करने की चिन्ता ध्वनित होती है। इस चिन्ता से वरिष्ठ और कनिष्ठ लघुकथा-लेखन से जुड़े उनके सभी समकालीन परिचित रहे हैं और इस सत्य से भी कि समय बीतते-बीतते यह चिन्ता अत्यन्त एकांगी और आत्मकेंद्रित हो गई थी। पुस्तक के प्रारम्भ में ‘दृष्टिकोण’ के अन्तर्गत (डॉ॰) हरीश शर्मा ने द्वितीय खण्ड की लघुकथाओं के बारे में उचित ही लिखा है कि—‘इस खण्ड में लघुकथा की तकनीक के दर्शन होते हैं और ये रचनाएँ समकालीन भारतीय समाज की त्रासदी, खुशफहमी, आर्थिक सोच और राजनैतिक अवसरवादिता तथा बेरोजगारी की लानत व शिक्षा के खोखलेपन को उजागर करती हैं।’ ऐसी लघुकथाओं में पहला उम्मीदवार, सरस्वती-पुत्र, पहला गरीब, अन्तिम गरीब, भूख, चादर, पेट का जुगाड़, ममता, औकात, दूसरा सुदामा, उपकृत, ब्लैक हॉर्स(इस लघुकथा पर यद्यपि भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ की छाया प्रतीत होती है), जन-गण-मन, दवा का मूल्य(यह लघुकथा जगदीश और एक डॉक्टर लघुकथाकार के बीच यथार्थ-वार्ता प्रतीत होती है), रंभाती गाय, उजाले के हत्यारे तथा पालतू को आसानी से गिनाया जा सकता है। जगदीश की अनेक रचनाओं में उनकी कुछ पीड़ाओं और व्यथाओं का दोहराव नजर आता है, लेकिन अपनी हर रचना में वे एक नया कथ्य लेकर पाठक के सामने आते हैं। यही उनके कथाकार की सफलता है।
जगदीश की चिन्ता मात्र हिंदी प्रदेश की लघुकथा के उन्नयन तक सीमित नहीं थी। उनका विश्वास था कि देश की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के लघुकथा-लेखकों को सशक्त निर्देशन की आवश्यकता है और देश में उसके लिए सर्वाधिक योग्य पात्र अकेले वह हैं। अपनी इस अतिविश्वासपूर्ण मान्यता की बानगी के तौर पर ‘कोहरे से गुजरते हुए’ का तीसरा खण्ड उन्होंने कश्मीरी, पंजाबी, मराठी, मलयाली, गोवन, उड़िया, तेलुगु, तमिल, गुजराती, राजस्थानी पृष्ठभूमि के कथ्यों पर आधारित लघुकथाओं से संजोया है, यह कहते हुए कि—‘इस खण्ड में प्रस्तुत रचनाएँ प्रादेशिक पृष्ठभूमि पर इस कारण दी गयी हैं कि विभिन्न प्रदेशों में नयी पीढ़ी के लेखक लघुकथा-लेखन को और अधिक सक्रियता प्रदान करें।’ उनके इस कथन में लघुकथा के प्रति आत्मीयता की झलक और ललक देखने को मिलती है। हिंदीतर कितने कथाकारों तक ये लघुकथाएँ पहुँच पाई होंगी और कितनों ने इनसे सीखा होगा—भले ही यह एक अनुत्तरित प्रश्न है लेकिन लघुकथा-साहित्य के सर्वतोमुखी विकास व उन्नयन से जुड़ी इस भावना को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस खण्ड की लघुकथाओं में जानवर भी रोते हैं, पुनर्वास, अपराध-बोध, खण्डित नेह, वह देवदासी नहीं बनेगी, सुकन्या में जगदीश की संवेदनशीलता सहज प्रभाव डालती है।
पुस्तक के अन्त में ‘लघुकथा की शास्त्रीय अवधारणा’ शीर्षक से जगदीश ने अपना एक लेख भी संगृहीत किया है। इसमें उन्होंने लघुकथा-लेखन के विभिन्न बिन्दुओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनके इस कथन से असहमत होने का कोई कारण नहीं है कि ‘अच्छी लघुकथाएँ वही लिख सकता है जिसे कथा-जगत की सम्यक पहचान हो। यही नहीं, काव्यामक पड़ाव की जानकारी और सारगर्भित अभिव्यक्ति के लिए उसे देश-काल-पात्र की भाषा व शिल्प-विन्यास की समझ हो। कुछ लोग जन्मजात प्रतिभा-सम्पन्न होते हैं, उन्हें किसी टेक्नीक की जरूरत नहीं है; लेकिन जिन्हें निर्देशन की आवश्यकता है और जिनके समक्ष यह कठिनाई है कि अच्छी लघुकथा कैसे लिखें? उनके लिए लघुकथा(लेखन) के कुछ सामान्य नियम बताये जाने वांछनीय हैं।’
इस संग्रह में कोहरे से गुजरने को शापित निरीह सामाजिक की अनेक कथ्य-भंगिमाएँ पाठक को प्रभावित करती हैं, उसके चिंतन को दिशा देती हैं। पहले खण्ड की पहली लघुकथा ‘सहधर्मी’ से लेकर राजस्थानी पृष्ठभूमि पर लिखित तीसरे खण्ड की अन्तिम लघुकथा ‘देहरी भई विदेस’ तक सभी में जगदीश कश्यप का कथा-कौशल देखने को मिलता है। दूसरे खण्ड की लघुकथा ‘भूख’ को भी भाव-सोपान की लघुकथा होने के कारण पहले ही खण्ड में स्थान दिया जा सकता था। दूसरे खण्ड की अनेक लघुकथाएँ जगदीश के भीतर पालथी मारे बैठे गरीब परिवार के दर-दर अपमानित होते शिक्षित-बेरोजगार भाई, पुत्र, प्रेमी, पति, पिता, मित्र, लेखक, पत्रकार, स्टेनो स्तर के सरकारी कर्मचारी और सहृदय युवक का दर्शन कराती हैं। उनके पात्र विद्रोह तो करते हैं लेकिन उसे वे शोर मचाकर नारे के रूप में हवा में उछालकर व्यर्थ नहीं करते, संकेतात्मक रखते हैं। वे अपने चारों ओर ‘मकड़ी का जाला’ ही बुना अधिक पाते हैं और ‘दूसरा सुदामा’ बने रहते हैं तथा ऐसी विकट स्थितियों के माध्यम से असहयोग अथवा विद्रोह के बिंदुओं की ओर इंगित कर जाते हैं।
‘कोहरे से गुजरते हुए’ कुल मिलाकर ‘समकालीन हिंदी लघुकथा’ का एक महत्वपूर्ण संग्रह है। इसकी लघुकथाओं पर, मैं समझता हूँ कि, जगदीश के आत्मघाती और आत्मश्लाघी चरित्र के कारण तुरन्त व्यापक चर्चा न हो सकी। लेकिन रचना सदैव व्यक्तिगत ईषणाओं, ईर्ष्याओं और द्वेषों से ऊपर होती है। यही कारण है कि प्रकाशन के लगभग उन्नीस वर्ष और जगदीश के स्वर्गवासी होने के लगभग सात वर्ष बाद इस संग्रह पर चर्चा की आवश्यकता महसूस की गई है। मैं भाई रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, भाई सुकेश साहनी और लघुकथा डॉट कॉम की पूरी टीम को साधुवाद देता हूँ कि इस हेतु उन्होंने मुझ-सरीखे जगदीश के भीतर बैठे लेखक के परम-मित्र और कैंसर की जड़ों की तरह उसके मानस में समाए असामाजिक चरित्र के घोर-विरोधी को चुना। ऐसे दुष्कर व्यक्तित्व की रचनाशीलता का आकलन करने की दिशा में यह मेरे भी तटस्थ आलोचक की परीक्षा थी।
इस संग्रह की लघुकथाएँ वस्तुत: जगदीश के अपने जीवन से नि:सृत लघुकथाएँ हैं। इनके पात्र वे सभी घात-प्रतिघात झेलते नजर आते हैं, जो विवश सामाजिक के तौर पर उन्होंने झेले या देखे-सुने-महसूसे। इनमें से अनेक उनका भोगा हुआ यथार्थ हैं तो अनेक लेखकीय यथार्थ; लेकिन जगदीश की लघुकथाओं में व्यक्त यथार्थ अधिकतर सकारात्मक यथार्थ है, नकारात्मक नहीं। नि:संदेह लघुकथा के रूप में तो उन्होंने वही लिखा, जो सहा; लेकिन लघुकथा से इतर…दैनिक जीवन में! यह इस समीक्षा का विषय नहीं है।
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समीक्ष्य लघुकथा-संग्रह:कोहरे से गुजरते हुए, कथाकार:जगदीश कश्यप, प्रकाशक:अमित प्रकाशन, के॰बी॰ 97, कविनगर, गाजियाबाद-201002, प्रथम संस्करण:1992, पृष्ठ संख्या:120 आकार:क्राउन मूल्य: ` 50/-

 

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