गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com

 
 
 
दस्तावेज़- अशोक भाटिया
लघुकथा : रचना और समीक्षा–दृष्टि (सं0 मुकेश शर्मा)
सन् 1990 के आसपास हिंदी लघुकथा के पक्ष और विपक्ष–दोनों मुखर थे। यह वह समय था जब लघुकथा की गंभीर, दायित्वपूर्ण धारणा सामने आने लगी थी। इस समय मुकेश शर्मा द्वारा संपादित 120 पृष्ठों की किताब ‘लघुकथा: रचना और समीक्षा–दृष्टि’ प्रकाशित तो 1993 में हुई, लेकिन इसका कई कारणों से आज भी महत्व बना हुआ है। बल्कि इस पर कोई चर्चा न हो पाना इस तथ्य की भी पुष्टि करता है कि लघुकथा–क्षेत्र में समीक्षा और आलोचना के अभाव का रोना तो रोया जाता है, किंतु विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई जैसे सिद्ध–प्रसिद्ध साहित्यकारों द्वारा जब लघुकथा पर विचार व्यक्त किए जाते हैं तो उन पर कहीं कोई विमर्श नहीं होता, वह भी तब जब प्रभाकर ,परसाई ने हिंदी साहित्य को अनेक अविस्मरणीय लघुकथाएँ दी हैं। आइए, किताब के कुछ जरूरी पहलुओं पर बात करें।
मुकेश शर्मा ने संपादकीय लेख में कई प्रश्नों के उार देते हुए यह भी लिखा है–लेखन के कुछ अनुशासन हो सकते हैं। किंतु अनुशासन के नाम पर विधा की सीमाएं निंश्चित करना घातक होगा।’ ‘रचना’ के अंतर्गत तत्कालीन दस प्रमुख लघुकथा लेखकों–रमेश बतरा,महावीर प्रसाद जैन, जगदीश कश्यप, पृथ्वीराज अरोड़ा, कमलेश भारतीय, सिमर सदोष, अशोक भाटिया, अशोक लव, महेश दर्पण और मुकेश शर्मा–की तब की प्रतिनिधि लघुकथाएँ प्रस्तुत की गई हैं। इनमें से रमेश बतरा व जगदीश कश्यप दिवंगत हो गए, तो महावीर प्रसाद जैन ने लिखना छोड़ दिया। इधर लघुकथा की परंपरा काफी आगे बढ़ी है।
पुस्तक का विशेष आयाम है–विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, रामनारायण उपाध्याय, कमलकिशोर गोयनका व हरिश्चन्द्र वर्मा से लिए गए लघुकथा विषयक साक्षात्कार। विष्णु प्रभाकर से साक्षात्कार में उनके शब्द–‘लघुकथा भी युग की माँग है। अत: साहित्य में इसका स्थान स्थाई रूप से रहेगा। (पृ–85) यह कहना कि लघुकथा सन् पचहार में ही शुरू हुई, एक दंश है। हम यह कह सकते हैं कि अब इसका विकसित रूप आया है।’ (पृ–86) ‘दर्द की यातना से गुजरे बिना कभी कोई लेखक या कलाकार नहीं बन सकता।’ (पृ–87) और लघुकथा के आंदोलन के विषय में उनके शब्द ‘सृजन की शक्ति से अपनी बात मनवाइए।’ (पृ–88) विशेष उल्लेखनीय हैं।
हरिशंकर परसाई से लघुकथा को लेकर संभवत: एकमात्र साक्षात्कार ही मिलता है। हालांकि परसाई जी ने उार कंजूसी से दिए हैं, किंतु उनके जवाब सटीक और लाजवाब हैं। ज़रा ध्यान दीजिए। ‘लघुकथा का प्रारूप कैसा होना चाहिए?’ उत्तर में वे कहते हैं–‘कम से कम शब्द होने चाहिए। विशेषण–क्रिया–विशेषण नहीं हों और चरम बिंदु तीखा होना चाहिए।’(पृ.90) लघुकथा केा प्रभावशाली बनाने को लेकर परसाई के सुझाव उल्लेखनीय हैं–एक तो लेखकों में सामाजिक चेतना होनी चाहिए। अंतर्विरोध पकड़ें। शैली का भी सहज होना आवश्यक है।’ ’(पृ.90) अंत में लेखकों को कुछ और सुझाव देते हैं–‘अनुभवों का विश्लेषण करें, नज़रिया हो, अनुभवों का सही अर्थ करें और कम–से–कम शब्दों में कह दें।’ ’(पृ.91) रामनारायण उपाध्याय ने साहित्य में लॉबिंग की प्रवृत्ति को घातक बताया है। उनका मत है–‘स्वस्थ लघुकथा के लिए कोई भी मानक, मापदंड या रचना–सिद्घांत तय करना भ्रामक और अहितकर बात होगी।’ ’(पृ.97) डा. कमल किशोर गोयनका और डा. हरिश्चंद्र वर्मा ने भी अपने साक्षात्कार में महत्वपूर्ण चर्चा की है। डा. नंदलाल मेहता ने अपने आलेख में लघुकथा के कई पक्षों पर गंभीरता से टिप्पणी की है। उनकी दो बातों पर गौर कीजिए–‘गहरी मानवीय संवेदना यंू तो सभी साहित्यिक विधाओं के लिए अपेक्षित है, किंतु लघुकथा के सीमित कलेवर में उसे उभारने के लिए अतिरिक्त कौशल चाहिए।’ तथा–‘जहाँ सपाटबयानी समाप्त होती है, साहित्य वहाँ से शुरू होता है।’
आशा है, सजग लघुकथा–लेख कइस जरूरी किताब की इन छोटी–छोटी, पर जरूरी टिप्पणियों पर गंभीरता से सोचेंगे।
पुस्तक: लघुकथा : रचना और समीक्षा–दृष्टि;संपादक : मुकेश शर्मा
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1619/6 बी, उल्घनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली–110032

 

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above