गत शताब्दी के नवें दशक में जो साहित्यकार लघुकथा आंदोलन से प्रभावित होकर उसकी ओर प्रवृत्त हुए, कालीचरण प्रेमी उनमें एक थे. उन्हें हम हिंदी लघुकथाकारों की तीसरी पीढ़ी का रचनाकर्मी मान सकते हैं. उनसे पिछली पीढ़ी ने लघुकथा के रूप-निर्धारण तथा उसका समीक्षाशास्त्र गढ़ने की पहल की थी. उससे ढेर सारी उम्मीदें थीं, किंतु बहुत जल्दी आंदोलन व्यक्तिगत स्पर्धाओं, रंजिशों, मनमुटावों की पथरीली डगर पर बढ़ चला, जिसका सीधा प्रभाव उसकी रचनात्मकता पर पड़ा. आपसी छींटाकशियों, विरोधों और मतभेदों के बावजूद लघुकथाकारों की उस पीढ़ी का यद्यपि कुछ सार्थक अवदान भी रहा, लेकिन वह आंदोलनरत साहित्यकारों की प्रतिभा, उत्साह तथा नई विधा के प्रति समर्पण-भावना को देखते हुए बहुत कम था.
लघुकथा आंदोलन की प्रेरणास्वरूप लघुकथाकारों की ऐसी पीढ़ी भी पनप रही थी, जिसका उसकी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था. उसमें भले ही लघुकथा को लेकर स्पष्ट नीति या समीक्षात्मक सोच का अभाव था, लेकिन इस विधा के प्रति समर्पण और संवदेनाओं की उसमें कमी नहीं थी. कालीचरण प्रेमी इसी पीढ़ी के सदस्य थे, जो संवेदना की संपदा और अपने संपूर्ण प्रातिभ समर्पण के साथ लघुकथा लेखन की ओर प्रवृत्त हुए थे. उन्होंने नवें देश के प्रारंभ से लघुकथाएँ लिखना प्रारंभ किया था. फिर तो इस सुघड़, सुकोमल विधा से उनका ऐसा नेह बना कि दूसरी विधाओं में नियमित लेखन के बावजूद गर्व लघुकथाकार कहलवाने में ही महसूस किया. आंदोलन की राजनीति से वे इतने दूर थे कि लगातार लिखने के बावजूद उनके कुछ समकालीन लघुकथाकार उन्हें गंभीर साहित्यकार मानने से ही इन्कार करते थे. चारित्रिक उदारता, महत्त्वाकांक्षाओं की कमी और साहित्यिक राजनीति से उदासीनता-इन सबका परिणाम यह हुआ कि वे लंबे अर्से तक निजी लघुकथा संग्रह न ला सके. उनका पहला लघुकथा संग्रह ‘कीलें’ इकीसवीं शताब्दी की दस्तक के साथ जब बाजार में आया, वे इस विधा में दो दशक से अधिक सक्रिय वर्ष बिता चुके थे. किसी भी रचनाकार का विधा-विशेष के प्रति नेह आँकने के लिए इतनी अवधि कम नहीं होती.
इस आधार पर कह सकते हैं कि समीक्षित कृति ‘कीलें’ प्रेमी जी की लघुकथा-साधना के दो दशकों का सुफल है. प्रेमी जी स्वानुभूति को शब्द देने वाले कलमकार थे. जीवन में उन्हें कई मोर्चों पर एक साथ और निरंतर संघर्ष करना पड़ा. दलित परिवार में जन्मे लेकिन स्वयं को दलित साहित्यकार कहलवाना उन्हें कभी पसंद नहीं आया. हालांकि एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में दलित साहित्य की पत्रिकाओं से निरंतर संबंध बनाए रहे. सभी के साथ उनका संबंध सहयोगात्मक बना रहा. यह उनका कभी न झुकने वाला विद्रोही स्वभाव ही था कि उन्होंने स्वयं को किसी भी विचारधारा से बंधने के बजाय स्वतंत्र रहना ठीक समझा. ‘कीलें’ की रचनाओं में उनके लेखकमन की संवेदनाओं एवं सामाजिक सरोकारों की झलक है. प्रत्येक कथा लेखक की स्वानुभूति से आकार लेती है. यह उन्होंने ‘अपनी बात’ से ही स्पष्ट कर दिया है—
‘अपनी व्यथा-कथा को शब्दबद्ध करने का विचार जब मेरे मन में पैदा हुआ तो यहीं से मेरे लेखन की शुरुआत हुई....जीवन में अनेक असमानताओं और विसंगतियों के बीच खुद को जिंदा रखना तलवार की धार पर चलना है. मैं ऐसी समाज-व्यवस्था में सांसे ले रहा हूं, जिसका चेहरा अत्यंत क्रूर और अमानवीय है. यहां मर-मर कर जीना नियति बन गया है....इन लघुकथाओं के पात्र या तो मैं स्वयं हूं या मेरे इर्द-गिर्द पीड़ा भोग रहे वे लोग हैं जिनकी गूँगी आवाज ने मेरी रचनाओं में प्राण फूंके.’
प्रेमी जी के संपर्क में रहे लोग भली-भाँति जानते हैं कि उन्होंने ऊपर लिखी पंक्तियों के मुकाबले अपने जीवन में कही अधिक भोगा था. संघर्ष और तनाव से वे कभी उबर ही नहीं पाए. लघुकथा संग्रह ‘कीलें’ की रचनाएँ असल में उनके जीवन की वे कटु अनुभूतियाँ हैं, जिनका सामना वे कदम-कदम पर करते रहे. कठिन संघर्ष के बावजूद वे न तो कभी झुके न ही कभी अपने विश्वास को मलिन पड़ने दिया. यूँ तो संग्रह की प्रत्येक रचना लेखक की स्वानुभूति का निकष है, तो भी सुविधा की दृष्टि से इसकी रचनाओं को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं. पहले वर्ग में वे रचनाएँ आएँगी जो समाज में व्याप्त जातीय क्रूरता, ऊंच-नीच की भावना, आर्थिक-सामाजिक असमानता और उत्पीड़न से जन्मी हैं. दूसरे वर्ग की लघुकथाओं में लेखक की स्थिति एक संवेदनशील दृष्टा की है, जो लोगों की क्षुद्र स्वार्थपरता, चालाकी, भ्रष्टाचार, अवसरवाद और अनाचार से आहत होता है और इसके बीच एक बेहतर दुनिया का सपना देखता है. तीसरे वर्ग में उन रचनाओं को रखा जा सकता है, जहां लेखक ने अपने भावबोध को आकार देने के लिए अतिरिक्त रूप से कल्पना का सहारा लिया है. इस वर्ग की रचनाओं पर खलील जिब्रान का असर दिखता है, जिससे कमोबेश हर हिंदी लघुकथाकार प्रभावित रहा है. आतंक, आँसू, तमाचा, अपराधी, साकार स्वप्न, अन्नदाता, तीन चोर आदि पहले वर्ग की रचनाएँ हैं. दूसरी श्रेणी की रचनाओं में सदमा, अंतिम निर्णय, चोर मचाए शोर, दूसरी रजनी, जहर, हाथी का बच्चा, युग पुरुष जैसी रचनाओं को रखा जा सकता है. तीसरे वर्ग की रचनाओं में जिनमें लेखक ने अभिव्यक्ति के लिए अतिरिक्तरूप से कल्पना की डोर साधी है-उनमें जहर, अस्तित्व, पहचान, गिरोह का आदमी, रूप की रानी, सत्यकथा जैसी रचनाओं को लिया जा सकता हैं. पहले दो वर्ग की रचनाओं में प्रेमी जी की जो भी रचनाएँ हैं, वे उनकी साहित्यिक उपलब्धि कही जा सकती हैं. हिंदी लघुकथा इनसे समृद्ध हुई है. यदि संग्रह की सबसे अच्छी लघुकथा चुनने को कहा जाए तो मैं बेझिझक ‘आतंक’ का नाम लूंगा. इसका कथानक कुछ इस प्रकार है—
अंगूरी हर पूर्णिमा को व्रत रख नुक्कड़ वाले देवता की पूजा करने जाती है. इस उम्मीद में कि इससे उसके सारे दुख-दलद्दर दूर हो जाएँगे. एक बार दोपहर की चिलचिलाती धूप में छोटे ननकू को लेकर देवता के मढ़े में पहुंचती है. पूजन-आराधन करती है, तभी ननकू आलेनुमा देवता के ऊपर चढ़ जाता है. अंगूरी उसे डपटती है, देवता का मान करने को कहती, उसका डर दिखाती है. ननकू जमा रहता है. कोई और बस न चलता देख अंगूरी डाँटती है—‘नासपिट्टे! भला उठ जा इसके ऊपर से....ठकुराइन ने देख लिया तो फजीता कर देगी.’ दहशत से भरा हुआ ननकू फौरन नीचे कूद जाता है.
साधारण-सी दिखने वाली यह कहानी अपने भीतर पूरा समाजशास्त्र समेटे हुए है. संकेतों में बात करते हुए लेखक बहुत कुछ पाठक के लिए छोड़ता जाता है. अंगूरी चिलचिलाती धूप में देवता की पूजा करने को निकलती है. लोग सामान्यतः सुबह-सवेरे मंदिर जाते हैं. अंगूरी का सुबह का समय अपने मजदूर पति को काम पर भेजने, घर के काम को समेटने, जानवरों को चारापानी करने को समर्पित है. वह जानती है कि देवता उसकी मजबूरी को समझता है. बालक ननकू को भी देवता से डर नहीं लगता. देवता उसका उतना ही अपना है, जितना घर का कोई बुजुर्ग, जिसकी गोदी में चढ़कर वह खेल सकता है, उसके साथ मनमानी शरारत कर सकता है. लेकिन ठाकुर-ठकुराइन का डर अंगूरी, उसके पति और ननकू सभी को है. यह कहानी सत्ता के आतंक को दर्शाती है. धर्म विश्वास के रूप में पवित्र है, ठीक बचपन जैसी पवित्रता है उसमें. लेकिन जब वह सत्ता में ढल जाता है, तो वह आतंक का रूप ले लेता है. जिसके आगे हर भक्त की हालत अबोध ननकू जैसी होती है.
सामंतवादी आतंक को स्वर देती संकलन की दूसरी लघुकथा ‘आंसू’ है: ठाकुर साहब परेशान हैं कि घर पर खास मेहमान आने वाले हैं और पिछवाड़े हरिया का जवान बेटा मरणासन्न है. अगर कार्यक्रम के बीच में ही चल बसा तो रोला-राट होगा, जिससे मेहमानों की खुशी में खलल पैदा होगा. आखिर वह सोचकर हरिया के घर जाता है और शांति बनाए रखने का निर्देश दे आता है. त्रासदी देखिए कि उसी रात उसका जवान बेटा चल बसता है और बूढ़ा हरिया उसकी मौत पर रो भी नहीं पाता. हरिया नाम के पात्र की पुनरावृत्ति संग्रह की कई लघुकथाओं में है. ‘अपनी बात’ में प्रेमीजी ने लिखा है : ‘मेरी कथाओं का मुख्य पात्र हरिया....उन(पिता)का ही प्रतिबिंबित रूप है.’
‘कीलें’ की लघुकथाएँ कदम-कदम पर व्यवस्था के प्रति असंतोष, अनाचार, सामाजिक स्तरीकरण को दर्शाती हैं. सामाजिक रूढ़ियों, जातिभेद, सामंती संस्कार, भ्रष्टाचार और अनाचार से लेखक का कदम-कदम पर वास्ता पड़ता है, वही कथानक पाकर लघुकथा के रूप में ढल जाता है. लघुकथा के विशेषज्ञ संग्रह की कुछ रचनाओं पर सपाटबयानी का आरोप भी लगा सकते हैं. लेकिन लेखकीय निष्ठा तथा अनुभूति की प्रामाणिकता इन रचनाओं को दस्तावेजी कलेवर देकर सभी के लिए पठनीय बना देती है. कहा जा सकता है कि ‘कीलें’ की लघुकथाएँ एक ईमानदार और सुहृदय लेखक की सार्थक प्रस्तुति हैं. ये शब्द की उस शक्ति की भी प्रतीक हैं, जो भयावह विषम परिस्थितियों से कदम-कदम पर जूझ रहे व्यक्ति को जीवन-समर में डटे रहने, उम्मीद न छोड़ने का हौसला देती हैं.
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कीलें, कालीचरण प्रेमी;प्रकाशक:एराइज प्रकाशन, 10 / 2395, गली नं. 10,रघुबरपुरा-द्वितीय, गांधीनगर, दिल्ली-31,मूल्य:125 रुपये,प्रकाशन वर्ष :2001
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