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दस्तावेज़- बलराम अग्रवाल
‘जंगल में आदमी’ :कुछ अनछुए मनोवैज्ञानिक बिन्दु

परिवर्तन सृष्टि का स्वभाव है। प्राकृतिक–उपादानों में कालानुसार आए परिवर्तन ही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों की आधारभूमि तैयार करते हैं। विभिन्न परिवेशों में आए परिवर्तन से सामंजस्य बनाए रखना मनुष्य की जाग्रत–चेतना का सबूत है। सामंजस्य बनाए रखने की इस प्रकिया में मनुष्य को पुरातन–परम्पराओं में से कुछ को बदलना या छोड़ना पड़ता है तो कुछ नया भी जोड़ना पड़ता है। ‘नया जोड़ने’ की इस लालसा को ही ‘जड़ता तोड़ने’ की लालसा कहते हैं। यह लालसा अगर निरन्तरता और पॉजिटिव एप्रोच लिए हो तो ‘आंदोलन’ के रूप में लोकायित होती है। कथा साहित्य में ‘लघुकथा’ एक ऐसा ही आन्दोलन है। इस विधा को अपनी ऊर्जा से संचित और पुष्ट करने में जुटी पीढ़ी के बीच अशोक भाटिया का नाम एक अति उत्साही कथाकार, संपादक व विचारक के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। ‘जंगल में आदमी’ 1977 से 1990 तक लिखी उनकी छियासठ लघुकथाओं का प्रथम संग्रह है।
अशोक भाटिया ने संभवत: बेहद भावुक कवि–हृदय पाया है। यही वजह है कि उनकी ‘तीसरा चित्र’, ‘सच्चा प्यार’, ‘नया आविष्कार’, ‘पीढ़ी–दर–पीढ़ी’ आदि अनेक लघुकथाओं में वस्तु का निर्वाह काव्यात्मकता की हदों को छूता प्रतीत होता है। वस्तु के इस काव्यात्मक निर्वाह के कारण उनकी भाषा में सहज रिद्म और फ्लो दिखाई देता है जो अनेक दशाओं में अनुपम है और अनुकरणीय भी।
‘रिश्ते’, ‘रंग’, ‘कागज की किश्तियाँ’, ‘अच्छा घर’, ‘उनके खत’, ‘अमिया’, ‘अधिकार’, ‘इतिहास परिचय’, ‘फैसला’, ‘गलत शुरुआत’, ‘छुट्टी’, ‘प्रतिक्रिया’, ‘श्राद्ध’, ‘परमपिता’, ‘ड्यूटी’, ‘सपना’, ‘शिवराम की मृत्यु’, ‘गवाह’, ‘असली बात’, ‘आस्तिक’, ‘शहर’, ‘हाँ–ना’ अशोक भाटिया की उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं। इनमें से अनेक बहुचर्चित भी हैं जिनमें ‘रिश्ते’, ‘रंग’, ‘उनके खत’, ‘अमिया’, ‘सपना’, ‘शिवराम की मृत्यु’, ‘हाँ–ना’ आदि का नाम बेझिझक लिया जा सकता है।
व्यक्ति का व्यक्ति से; अपने गाँव, नगर, देश से; पशु से, पक्षी से, पेड़ से, जीविका या व्यवसाय से, गहनों–कपड़ों या अन्य वस्तुओं से लगाव एक स्वाभाविक क्रिया है। इन विषयों पर बहुत संभव है कि अनेक कहानियाँ व उपन्यास पढने को मिल जाएँ; लेकिन अशोक भाटिया की लघुकथा ‘रिश्ते’ के ड्राइवर सरूप सिंह जैसा चरित्र वहाँ ढूँढ़ पाना असंभव है जिसे उस रास्ते से प्यार है जिस पर गत तीस वर्षों से वह बस चलाता रहा था। आदमी रिटायर भले ही हो जाय, ‘रास्ते’ से अपने लगाव को वह नहीं छोड़ सकता–यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। ‘रास्ते’ को यहाँ श्लेषात्मक ग्रहण करें। ‘रिश्ते’ में इस लगाव का चरम देखिए–
‘कोशिश करके भी सरूप सिंह बस तेज नहीं चला पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला–बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आखिरी बार बस चला रहा हूँ। बस के मुकाम पर पहुँचते ही मैं रिटायर हो जाऊँगा, इसलिए...।’
संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ किसी न किसी क्लिष्ट मनोवैज्ञानिक सत्य की सहज अभिव्यक्ति बनकर सामने आती हैं और यह सिद्ध करती हैं कि अशोक भाटिया समकालीन हिन्दी लघुकथा में कुछ अनछुए मनोवैज्ञानिक बिन्दुओं पर कलम चलाने वाले अनुपम कथाकार हैं। उनके कथानक, पात्र, भाव और भंगिमाएँ–सब कुछ गाँव और कस्बे से संबंध रखते हैं। गाँव और कस्बे भी ऐसे, नगर की हवा अभी तक जिन्हें छू भी नहीं पाई‍ है। उदाहरण के लिए उनकी एक नहीं, अनेक लघुकथाओं को प्रस्तुत किया जा सकता है। उनकी लघुकथा ‘रंग’ श्रीनिवास नामक एक ऐसे अफसर के चरित्र का विशद चित्रण करती है जो एक कस्बे में नियुक्त है और पदाभिमान से ग्रस्त है। उसका दर्प इतना बढ़ा हुआ है कि होली जैसे रंग–भरे विशुद्ध भारतीय त्योहार के दिन भी उसे विश्वास है कि कस्बे में उसके ऊपर रंग डालने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता। पत्नी के कहने पर वह सब्जी लाने हेतु साइकिल लेकर बाजार के लिए निकलता है; लेकिन यह देखकर दंग रह जाता है कि कस्बे के लोगों के बीच वह वस्तुत: ‘रौब’ का नहीं ‘उपेक्षा’ का पात्र है। कस्बे भर में घूमकर ‘...वे वैसे के वैसे घर लौट आते हैं। पत्नी सामान थामते हुए कहती है–‘वाह! किसी ने रंग नहीं लगाया?’’ पत्नी के इस वाक्य में छिपी व्यंजना से आहत होकर ‘श्रीनिवास एक खिसियानी हँसी हँसकर कमरे में आ जाते हैं।...अचानक उन्हें लगता है कि वे कस्बे में सबसे अलग–थलग पड़ गए हैं।’ उपेक्षित व्यक्ति का कोई सामाजिक मूल्य नहीं होता; और मूल्यविहीन व्यक्ति का जीवन निरर्थक है। यह एक ऐसा सत्य है जिससे बड़े से बड़ा तानाशाह डरता है। इसी सत्य से डरकर श्रीनिवास ‘उठते हैं और मेज पर रखे लिफाफे में से गुलाल निकालकर अपने मुँह पर लगा लेते हैं।’ किसी भी नौकरशाह अथवा तानाशाह के दर्प–विखंडन का यह ऐसा दृश्य है जिसको प्रत्येक दलित व दमित सामाजिक खुली आँखों से देखना चाहता है। समाज को इस सकारात्मक दर्शन व चिंतन की ओर अग्रसर करना ही साहित्य का हेतु है।
कथाकार के रूप में एक ही वस्तु को विभिन्न घटनाओं/कथानकों के माध्यम से प्रस्तुत करने की बजाय विभिन्न वस्तुओं को विभिन्न घटनाओं/कथानकों के जामे में प्रस्तुत करना किसी भी रचनाकार की क्षमता को दर्शाता है। कहानी लेखक या उपन्यास लेखक के रूप में कथाकार अपेक्षाकृत मुक्त रहता है कि वह एक ही वस्तु को विभिन्न कोणों से देख और प्रस्तुत कर सके ;क्योंकि रचना का आकार आम–पाठक को उप–घटनाओं आदि में भटका और भरमा देने में काफी सहायक होता है, परन्तु लघुकथा–लेखक को यह छूट नहीं है। रचना का लघु कलेवर उसे किसी भी प्रकार के दोहराव की इजाजत नहीं देता। यहाँ कथाकार ने वस्तु को दोहराया नहीं कि सामान्य पाठक भी फौरन उसे ताड़ जाता है। इस तरह, अपेक्षाकृत लम्बी रचनाओं में जो कार्य केवल आलोचक–समीक्षक ही कर पाते हैं–लघुकथा में वह आम तौर पर पाठक के स्तर पर ही सम्पन्न हो लेता है। इस एक बात से ही जाना जा सकता है कि पाठक के प्रति कहानी और उपन्यास लेखक की तुलना में लघुकथा–लेखक का दायित्व किस हद तक बढ़ जाता है। संकलन की ‘टूटते हुए तिनके’ और ‘कागज की किश्तियाँ’ दो ऐसी लघुकथाएँ है जिनमें अशोक भाटिया ने–प्रौढ़ शिक्षा की ओर तत्पर होते–होते बाल शिक्षा की ओर से नीरस हो जाने की सामाजिक पीड़ा को शब्द दिए हैं। इनके अतिरिक्त अन्य बहुत से लघुकथा–लेखकों की तरह वस्तु के दोहराव के अनेक उदाहरण उनके संकलन में ढूँढ पाना संभव नहीं है।
‘पीढ़ी–दर–पीढ़ी’ संकलन की बेहद प्रभावशाली रचनाओं में से एक है। बहुत छोटे और सरल वाक्य इस रचना को सुन्दर बनाते हैं। किसी भी गरीब देश के आम नागरिक की त्रासद पीड़ा को प्रस्तुत करने में अशोक भाटिया किस कदर सफल रहे हैं, यह दिखाने के लिए इस लघुकथा की अन्तिम पंक्तियाँ ही काफी हैं–
‘एक दिन पाठ याद न होने पर बच्चे को सजा मिली।
दूसरे दिन स्कूल–ड्रेस न होने पर बच्चे को घर भेज दिया गया। तीसरे दिन फीस न भरने पर उसका नाम काट दिया गया।
वह बच्चा फिर कभी स्कूल नहीं गया। जब वह बड़ा हुआ तो उसने सोचा–मै अपने बच्चों को जरूर पढ़ाऊँगा।’
ग्रामीण, कस्बाई या शहरी–प्रत्येक आम भारतीय स्वाधीनता–प्राप्ति की लगभग तीन चौथाई सदी बीत जाने के बाद आज भी अपने जीवन–काल में शिक्षा और उससे जुड़े विचार की उपर्युक्त शृंखला से जरूर गुजरता है। कथाकार होने के नाते बड़ी बात यह नहीं है कि कोई व्यक्ति लिखना क्या चाहता है या उसे लिखना क्या चाहिए, बल्कि बड़ी बात यह है कि जो कुछ भी उसने लिखा है ,उसमें शेष–समाज का तथा अपने समय की वांछित–अवांछित प्रमुख वृत्तियों का कितना हिस्सा किस त्वरा के साथ ध्वनित व चित्रित हुआ है तथा यह भी कि जो कुछ भी उसने लिख दिया है–सम्प्रेषण और प्रभाव की दृष्टि से अपने कार्य में वह सफल कितना रहा है। सम्प्रेषण के स्तर पर ‘जंगल में आदमी’ की कुछ लघुकथाएँ बेमिसाल हैं। ‘टूटते हुए तिनके’ में ही शिक्षा प्राप्त न कर पाने की बालक रामफल की पीड़ा इस तरह प्रकट होती है–‘बाप्पू। मैं सारा दिन तै खाल्ली फिरूँ हूँ! तौं बेसक दिन माँ बी पढ़ ल्याकर ना! मै खेत माँ थोड़ा और काम द्यूँगा!’ प्रौढ़ों को साक्षर बनाने की कूड़–मगज़ सरकारी योजनाओं के मुँह पर करारा–तमाचा कहकर या फिर सटीक व्यंग्य या ऐसा ही कोई अन्य विशेषण देकर इस लघुकथा पर विचार प्रकट करना और छुट्टी पा लेना इसकी आत्मा के प्रति अन्यायपूर्ण कार्य करना है। यह वस्तुत: नवांकुरों को कुचलकर, उन्हें बूढ़े बरगदों की जड़ों में खाद की तरह इस्तेमाल करने की मर्मांतक पीड़ा है।
ऐसी ही एक अन्य लघुकथा है–‘मजबूरी’। इसमें निम्न मध्यवर्गीय त्रासों और विवशताओं का प्रभावपूर्ण चित्रण हुआ है। पत्नी को एपाइंटमेंट लैटर मिला है। दोनों खुश हैं कि विवशताओं–भरी अपनी जिन्दगी से छुटकारा पाकर वे अब सुखपूर्वक जी सकेंगे। दोनो जरूरतों की फेहरिश्त बनाते हैं। पता चलता है कि बढ़ने वाली आमदनी की तुलना में उनकी जरूरतों का आकाश अधिक विस्तृत है। ऑफिस ज्वाइन करने से पहले वे अपने शिशु को लेकर ‘क्रेच’ पहुचँते हैं। शिशु माँ से विलगता महसूस कर विलाप करने लगता है। पत्नी का ममत्व इस विलाप से हिल उठता है और वह नौकरी ज्वाइन न करने की विवशता जाहिर करती है; परन्तु पति उसे समझाता है कि मौजूदा तंग–हालात से उबरने के लिए उसका नौकरी ज्वाइन करना बेहद आवश्यक है और पत्नी शिशु के प्रति अपने लगाव को तिलांजलि दे देने को विवश हो उठती है। देखिए–
‘अब वह दिल और दिमाग–दो नावों पर सवार थी। कुछ पल रुककर उसने बच्ची को आया की तरफ बढ़ा दिया और छलकती आँखों से घर की तरफ हो ली।’
‘नया पथ’, ‘व्यथा कथा’, ‘उसका भगवान’, ‘गुब्बारा’, ‘शहर’ और ‘बाबे नानक दा घर’, ‘सपना’ में बाल–मन की सहजताओं, जिज्ञासाओं और उत्सुकताओं को जिस धैर्य के साथ खोला गया है–हिन्दी लघुकथा में वह कम ही देखने को मिलता है। यह बाल–मनोविज्ञान में लेखक की अभिरुचि का भी परिचायक है और बचपन की घटनाओं और स्थितियों के प्रति उसके लगाव तथा उन पर गहरी पकड़ का भी। इन सभी लघुकथाओं में बाल–मन के संवेदनशील तन्तुओं को बड़ी ही सर्तकता के साथ छुआ गया है। ‘नया पथ’ के पिंटू का यह संवाद कि–‘पापा मिट्टी में खेलना अच्छा लगता है’– क्या सिर्फ़ पिंटू के मन की ही आवाज है? तथा–‘उसके पापा पहले कुछ तरल हुए, फिर सोचने लगे कि जहां मिट्टी होगी–वहां रामलाल का बच्चा जरूर आ धमकेगा’–क्या अकेले पिंटू के पिता की ही चिंता है? खेलने के लिए बच्चे अभिजात्य और गरीबी के अन्तर को आड़े नहीं आने देते। जहाँ मिट्टी होगी, जरूरी नहीं कि रामलाल ही वहाँ खेलने को पहुँचे। चैस खेलने जाने के बहाने पिंटू भी रामलाल के साथ घर–घर खेलने को वहाँ पहुँच सकता है।
इसी विचार को एकदम दूसरी तरह से प्रस्तुत किया गया है लघुकथा ‘भावना’ में। माता पिता की इकलौती सन्तान शिब्बल–अपनी बहुत छोटी दुनिया में चिड़चिड़ा होता जा रहा है और सुबह से रो रहा है। माँ–बाप को उसके चिड़चिड़ेपन के कारण का आभास है परन्तु वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप वे ‘एक ही काफी आगे माफी’–का सिद्धान्त अपनाने को विवश हैं। बातचीत के दौरान ही पड़ोस की पिंकी बालक शिब्बल के साथ खेलने को आती है, शिब्बल चिहुँकने लगता है। खेल–खेल में बालिका शिब्बल के माता–पिता से एक सवाल करती है–‘जब शिब्बू बड़ा हो जाएगा तो क्या आप बग्घी को बेच दोगे?’ ऊपरी सतह पर यह एक आम सवाल दिखाई देता है परन्तु मनोविज्ञान के पाठक जान सकते हैं कि यह सवाल बालिका पिंकी के ‘अन्तर्मन’ की किस भावना को व्यक्त करता है, और इसीलिए–शिब्बू की माँ ने खुशी में (यानी कि उसके सवाल के प्रत्युत्तर में उल्लसित होकर) पिंकी को उठाकर चूम लिया। गोया–उसे दिलासा दी कि शिब्बू की बग्घी को वह हमेशा अपनी ही बग्घी समझे और जब चाहे उससे खेले, उसे बेचा नहीं जाएगा।
लघुकथा ‘सपना’ किताबों, कापियों और होमवर्क के बोझ तले कुचली जा रही बाल–चेष्टाओं की मार्मिक प्रस्तुति है। इसमें अशोक भाटिया ने दिखाया है कि आज मानव–शिशु की तुलना में एक चिडि़या कितनी अधिक स्वच्छंद है। इस लघुकथा की भाषा काव्यात्मक, निर्वाह भावपूर्ण और स्थापना यथार्थपरक है; तथापि व्यवस्थाजन्य विवशताओं के चलते है यह ‘सपना’ ही–
दोपहर को बच्चा स्कूल से लौटा, तब चिडि़या पेड़ पर आराम कर रही थी। बच्चे की माँ ने उसे दुलराया, खाना खिलाया और कहा–‘बेटे, होमवर्क करो और पेपरों की तैयारी करो।’
बच्चा पढ़ने बैठा। चिडि़या ने दाना चुगा, पानी में किल्लोल किए। बच्चा पढ़ता रहा। उसका ध्यान अपने खिलौनों की ओर लगा हुआ था।
साँझ को चिडि़या घोंसले में लौट गयी। बच्चा बिस्तर में चला गया।
सुबह चिडि़या आकाश में चहकने लगी थी, जब बच्चा पढ़ने बैठा था। स्कूल जाने से पहले उसने कहा–‘माँ, जब मैं यूनिवस्टी पढ़ लूँगा, उसके बाद मैं खूब खेलूँगा, कोई काम नहीं करूँगा।’
कुछ लघुकथाओं, यथा–‘अधिकार’, ‘प्रतिक्रिया’ ‘मृतक’ और ‘अहसास’ पर समुचित परिश्रम न किए जाने के कारण उनकी स्थिति मात्र ‘फिलर’ की बनकर रह गयी है जबकि वस्तु–प्रस्तुति के स्तर पर ये उल्लेखनीय कथा हैं। ‘किधर’ ‘भगवान बनाम कम्प्यूटर’ तथा ‘असली बात’ में शीर्षक चुनने में बरती गई लापरवाही सामने आती है तो कुछ में बात को शीघ्र कह डालने की जल्दबाजी। इसी वजह से कुछ लघुकथाएँ कसे हुए शिल्प के बावजूद पर्याप्त प्रभाव डालने में अक्षम नजर आती हैं। उदाहरण के लिए ‘भूख’ को प्रस्तुत किया जा सकता है। ‘बेचारा बड़ा आदमी’ भी इसी कमजोरी की शिकार है। परन्तु ‘परमपिता’ एक बेहतर कथानक की वजह से अक्षमता के पार पहुँचकर प्रभावित करती है।
ऐसा एक नहीं अनेक बार, और किसी–किसी लेखक के साथ नहीं अधिकतर लेखकों के साथ कंभी न कभी हो जाता है कि कथा उन्हें अपने साथ बहा ले जाती है। पात्र उनका नियंत्रण तोड़कर मुक्त हो जाते हैं तथा अपने चरित्र और कर्तृत्व का स्वयं निर्धारण करते हैं। इस संग्रह की ‘अंतिम कथा’ शीर्षक रचना के पात्रों ने अशोक भाटिया के साथ यही किया प्रतीत होता है। कथा यों प्रारम्भ होती है–
‘रोज की तरह दोनों बच्चे कह रहे थे–दादाजी, इतनी देर हो गयी है। अब जल्दी कहानी सुनाओ।
दादाजी कहानी कहने लगे–...’
इस लघुकथा में कथा–लेखन की पारम्परिक और आधुनिक दोनों शैलियों का खूबसूरत समायोजन देखने को मिलता है। इसमें एक संदर्भ–कथा भी है जिसे इस कौशल के साथ मुख्य कथानक में पिरोया गया है कि ‘कथा में कथा’ आरोपित होने की बजाय वह ‘वस्तु’ के वाहक का दायित्व–निर्वाह करती है। दादाजी, दोनों बच्चे, बाज, कबूतर, रोटी, मांस–सब के सब एकाएक स्वतंत्र पात्र का रूप ग्रहण कर लेते हैं और अपनी–अपनी कहानी स्वयं बयां करने लगते हैं। यह कथा अपनी छोटी–सी काया में किस प्रकार व्यापक से व्यापकतर होती चली जाती है, इस तथ्य को महसूस करने के लिए ‘कथा में कथा’ को पढ़ लेने के बाद उसके अन्तिम भाग को ध्यानपूर्वक पढ़ना आवश्यक है ;क्योंकि यही इस लघुकथा की मूल वस्तु का वाहक है–
बच्चों का मजा किरकिरा होने लगा था। एक बोला–‘लेकिन दादाजी, आपके पास तो इतना सारा मांस लगा है! क्या आपने कभी किसी कबूतर की जान बचाई?’
दादा ने दूसरे पोते की तरफ देखा।
दूसरे ने कहा–‘दादाजी, भर–पेट रोटी भी नहीं मिलती। हमारी बाँहों पर मांस नहीं है। हम बड़े होकर किसी कबूतर की जान कैसे बचाएँगे?’
दादा आकाश को देखने लगे थे। दोनों बच्चे उठकर जो गए तो आज तक उनसे कहानी सुनने नहीं आए।
इस लघुकथा का यह वह हिस्सा है जहाँ उसका हर पात्र और उनका हर भाव अपना नियन्ता आप है। उत्कंंठा उत्पन्न करना साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है। जो साहित्य पाठक अथवा श्रोता के मन में उद्वेलनकारी संस्कारों का प्रस्फुटन न कर पाये वह ‘जड़’ है। संस्कारित करने का जो कार्य दादाजी अपने पौत्रों को एक पुराणकथा सुनाकर करते हैं वही कार्य यह लघुकथा अशोक भाटिया से ऊपर उद्धृत अंश लिखवाकर स्वयं संपन्न कर लेती है। दादा द्वारा ‘आकाश को देखने लगना’ और ‘बच्चों का उनके पास से उठकर चले जाना व लौटकर कभी वापस न आना’ ऐसे बिम्ब हैं जो अनुकरणीय हैं और जिनके कारण ‘समकालीन लघुकथा’ का सिर ऊँचा है।
कुल मिलाकर ‘जंगल में आदमी’ की लय एवं प्रवाह से पूर्ण भाषा, अनुभूत शब्द प्रयोग तथा बिम्ब व प्रतीक योजना अशोक भाटिया को एक सतर्क कथाकार के रूप में सामने लाते हैं और आश्वस्त करते हैं कि अपनी ऊर्जा को वह सार्थक सृजन में लगा पाए हैं। लघुकथा–साहित्य को कथा–भाषा के संयम और अनुशासन से अनभिज्ञ कठमुल्लों की थाती बनने से बचा पाने में ऐसे ही प्रयास सफल होंगे।
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प्रकाशक: विद्यार्थी प्रकाशन, के–71, कृष्णनगर, दिल्ली–110051

 

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