आज हम शायद यह स्वीकार न करें कि आधुनिक हिंदी लघुकथा के बीज पुरानी जातक कथाओं, पंचतंत्र या हितोपदेश में हैं, पर गहराई से अध्ययन करने पर हम पाएँ गे कि आधुनिक हिंदी लघुकथा ही नहीं, कहानी, व्यंग्य और उपन्यास तक भी हमारी प्राचीन साहित्यिक विरासत के ऋणी हैं। इन विधाओं का उत्स लोककथाओं में ढूँढा जा सकता है। इनमें हर कहीं लोककथा के तत्त्व मौजूद हैं। इसे सिद्ध करने के लिए इन विधाओं के क्रमिक विकास पर नजर डालनी पड़ेगी। हिंदी कहानी और उपन्यास के के अध्ययन के लिए तो अनेक क्रमिक विकास के अध्ययन के लिए तो अनेक संकलन, कोश और ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पर हिंदी लघुकथा के विकास को दर्शानेवाला कोई ग्रन्थ अब तक हमारे पास नहीं था। प्रस्तुत कोश इस दिशा में अब तक की सबसे बड़ी पहल है।
जन्म और समय के लिहाज से माखनलाल चतुर्वेदी हिंदी लघुकथा के जनक हैं। एक बार कन्हैयालाल मिश्र ‘ प्रभाकर’ से माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था कि मैंने बहुत–सी लघुकथाएँ लिखी हैं। इस सूत्र के सहारे जब माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्य का अध्ययन किया गया तो पाया गया कि उनके लेखन की शुरुआत ही लघुकथाओं से हुई थी और उनकी पहली लघुकथा थी ‘बिल्ली और बुखार’, जो आधुनिक लघुकथा के सभी गुणों से युक्त है, इसलिए ‘बिल्ली और बुखार’ को हिंदी की पहली लघुकथा माना जा सकता है, जो 1900 के आस–पास लिखी गई।
माखनलाल चतुर्वेदी के बाद आते हैं1919–20 में जगदीशचंद्र मिश्र, अपनी पहली लघुकथा ‘बूढ़ा व्यापारी’ लेकर। जगदीशचंद्र मिश्र के बाद 1929 में पहली लघुकथा ‘सेठजी’ लिखी कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने। उनका लघुकथा संग्रह ‘आकाश के तारे : धरती के फूल’ है। इसके बाद हिंदी लघुकथा को आनंद मोहन अवस्थी और हरिशंकर परसाई जैसी दो बड़ी प्रतिभाएँ मिलीं। इसे हिंदी लघुकथा का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि आनंद मोहन अवस्थी असमय चल बसे और परसाई जी व्यंग्य के क्षेत्र में चले गए। आनंद मोहन अवस्थी का लघुकथा संग्रह ‘बंधनों की रक्षा’ 1950 में छपा। तब तक 1948 में अपनी पहली लघुकथा ‘शीशम का खूँटा’ के साथ रावी लघुकथा के आँगन में खेलने लगे थे। इस बीच शरदकुमार मिश्र के लघुकथा संग्रह ‘धूप और धुआँ’ का जिक्र जरूरी है और अयोध्याप्रसाद गोयलीय के ‘गहरे पानी पैठ’ का भी। राधाकृष्ण की लघुकथाओं और बैकुंठनाथ मेहरोत्रा के लघुकथा संग्रह ‘ऊँचे’ तथा डा. राजकुमार और सरोज शर्मा की लघुकथाओं का अपना अलग महत्त्व है।
रावी की विचारप्रधान लघुकथाओं का संकलन ‘मेरे कथागुरु का कहना है (भाग–1) 1958 में प्रकाशित हुआ। 1961 में ‘मेरे कथागुरु का कहना है (भाग–2)’ भी छप गया। अब तक कुछ लोग ही लघुकथाएँ लिख रहे थे और वे इधर–उधर छिटपुट छपती भी रहती थीं, लेकिन उनका कोई खास नोटिस नहीं लिया जाता था, लेकिन आठवें दशक में शुरू होता है लघुकथाका नवोन्मेष, एक पूरा कथाआंदोलन और तब लघुकथा को प्राप्त होती है अपेक्षित प्रतिष्ठा, मान्यता और महत्व।
आठवें दशक में लघुकथा संकलनों और पत्र–पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों का जो दौर शुरू हुआ था, वह अभी तक भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। इससे एक तरफ तो लघुकथा की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है, लेकिन दूसरी तरफ खर–पतवार भी बहुत पनप गया है, जिसे समय अपने–आप छाँट देगा। लघुकथा लेखन, संपादन और प्रकाशन के क्षेत्र में आज कम–से–कम दो दर्जन नये नाम ऐसे हैं, जो इस विधा के प्रति हमारी आस्था और विश्वास को मजबूत करते हैं।
सुपरिचित कथाकार बलराम ने अपने आरंभिक लेखन के दौर में ही लघुकथा को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था। उन्होनें कुछ बहुत अच्छी लघुकथाएँ ही नहीं लिखीं, जहाँ भी रहे, लघुकथा को मंच भी देते रहे। दैनिक ‘आज’ में रहे हों, ‘सारिका’ में या अब ‘नवभारत टाइम्स’ के साहित्यिक परिशिष्ट ‘रविवार्ता’ में, वे लघुकथाको बराबर महत्त्व देते रहे। संपादित कथा संकलन ‘काफिला’ में तो कहानियों की तरह लघुकथा को सम्मानपूर्ण स्थान दिया ही, आठवें दशक की लघुकथा प्रतिभाओं को बड़े स्तर पर रेखांकित करने के लिए ‘कथानामा’ शृंखला के तीन वृहत् खण्डों का आयोजन भी किया। हिंदी की पाँच सौ लघुकथाएँ इससे पहले कभी एक जगह संकलित नहीं हुई। इस रूप में भी यह कोश अभूतपूर्व है।
[प्रकाशकीय से]
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