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दस्तावेज़- श्याम सुन्दर अग्रवाल
सामाजिक सरोकार को रेखांकित करती लघुकथाएँ
श्याम सुन्दर अग्रवाल

डॉ. शील कौशिक का साहित्य जगत में पदार्पण कहानी लेखन से हुआ। वर्ष 2003 में अपने प्रथम कहानी संग्रह ‘महक रिश्तों की’ से उन्होंने हिन्दी साहित्य जगत में प्रवेश किया। फिर उनकी लेखनी ने लघुकथा व कविता की ओर भी रुख किया। आठ वर्ष से भी कम समय में उनकी चार पुस्तकें प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँची–‘दूर होते हम’, ‘नये अहसास के साथ’ (काव्य संग्रह), ‘एक सच यह भी’(कहानी संग्रह) तथा ‘उसी पगडंडी पर पाँव’( लघुकथा संग्रह)।
अपने प्रथम लघुकथा संग्रह ‘उसी पगडंडी पर पाँव’(2004) के आते ही शील कौशिक का नाम लघुकथा साहित्य के क्षेत्र में जाना-पहचाना हो गया । हरियाणा राज्य का हिन्दी लघुकथा साहित्य में विशेष योगदान रहा है। हरियाणा ने हिन्दी साहित्य को अनेक श्रेष्ठ लघुकथा लेखक दिए हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा, डॉ. अशोक भाटिया, रूप देवगुण, राम कुमार आत्रेय, पूरन मुद्गल, डॉ. रामनिवास मानव, उर्मि कृष्ण, शमीम शर्मा, मधुदीप, सुखचैन सिंह भण्डारी, मधुकाँत, हरनाम शर्मा आदि का नाम साहित्य जगत में बहुत सम्मान से लिया जाता है। डॉ. शील कौशिक ने भी अपना नाम इस फेहरिस्त में शामिल कर लिया है। ‘उसी पगडंडी पर पाँव’ की रचनाओं को पढ़ने के पश्चात लगा था कि डॉ. शील कौशिक की कलम में क्षमता है तथा इस कलम से और भी श्रेष्ठ लघुकथाओं का सृजन होगा।
लघुकथा विधा को समर्पित पंजाबी पत्रिका ‘मिन्नी’ द्वारा आयोजित अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलनों में डॉ. शील कौशिक से मुलाकात होती रही है। उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली लगा– सरल, स्पष्ट, निःस्वार्थ और निष्कपट। अपने तीस वर्ष के साहित्यक जीवन में मैंने देखा है कि जिन साहित्यकारों ने निःस्वार्थ साहित्य-सेवा की, उन्होंने ही साहित्य जगत में सम्मानजनक स्थान पाया। इसलिए मुझे पूर्ण आशा है कि डॉ. शील कौशिक हिन्दी लघुकथा साहित्य में बहुत दूर तक का सफर तय करेंगी।
डॉ. शील कौशिक के इस नए संग्रह में शामिल रचनाओं से गुजरते हुए मैंने पाया कि लेखिका देश, समाज व परिवार के प्रति अपने दायित्व को लेकर बहुत सचेत है। सामाजिक सरोकार से संबंधित अनेक रचनाएँ इस संग्रह में सम्मिलित हैं। इनमें से कुछ रचनाओं का ज़िक्र करना आवश्यक है। लघुकथा ‘मिसाल’ का पात्र चपरासी अपनी सेवानिवृति पर मिले पैसों से स्कूल में एक वाटर-कूलर लगवाना चाहता है ताकि गर्मी में बच्चों को पीने के लिए ठंडा पानी मिल सके। स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों को गर्मी में गर्म पानी पीना पड़ता है, इससे लेखिका का मन आहत् है। यह रचना समाज को उसके दायित्व का अहसास भी करा रही है। ‘शुरुआत’ लघुकथा के माध्यम से लेखिका हमारे समाज में प्रत्येक पारिवारिक समारोह ( शादी, गृह-प्रवेश, जन्म-दिन इत्यादि) के अवसर पर ‘शगुन’ की अनावश्यक परंपरा की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। अगर किसी माह ऐसे कई समारोह आ जाएँ तो सीमित आय वाले परिवारों का तो मासिक बजट ही गड़बड़ा जाता है। शगुन देने की शुरुआत तब हुई जब आम आदमी के पास इतना पैसा नहीं होता था कि वह अपने बेटे-बेटी की शादी का खर्च उठा सके। औलाद की शादी करना उसकी मजबूरी थी। ऐसे में उसके रिश्तेदार व जान-पहचान के लोग शगुन के रूप में उसकी आर्थिक मदद करते थे। शगुन में प्राप्त रकम को व्यक्ति धीरे-धीरे शगुन के रूप में ही चुकाता रहता था। आज बड़े लोग अपनी खुशी से शादी पर लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। जब उनके पास बेहिसाब दौलत है तो शगुन देने का औचित्य ही नहीं रह जाता। जन्म-दिन या गृह-प्रवेश जैसा समारोह व्यक्ति की मजबूरी नहीं है, इसे व्यक्ति अपनी आर्थिक हैसियत के अनुसार ही करता है। तब शगुन किस लिए? लेखिका ने हर अवसर पर शगुन देने वाली परंपरा को समाप्त करने की आवश्यकता की ओर इशारा किया है। रचना ‘अवतार’ हमारे समाज में बुजुर्गों की समस्या से संबंधित है। आज का सामाजिक वातावरण हमारे बुजुर्गों को बहुत पीड़ा पहुँचा रहा है। उन की तकलीफों की ओर ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन इस रचना में लेखिका ने नौजवान पीढ़ी का एक पक्ष रखा है। कुछेक केसों में ऐसा संभव हो सकता है कि बेटा किसी मजबूरीवश माता-पिता की कोई इच्छा पूरी न कर पाता हो। लेकिन अधिकाँश केसों में नौजवान पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उच्चित सम्मान नहीं दे रही। मेरी बात की पुष्टी इस संग्रह की रचना ‘पीढ़ी-अंतर’ भी कर रही है। ‘पीढ़ी-अंतर’ की फैशनेबल लड़कियाँ वृद्धा को बस में न केवल सीट देने से इनकार कर देती हैं, बल्कि उसकी हँसी भी उड़ाती हैं। जबकि वृद्धा धक्का लगने के कारण गिरी युवती को सीट पर अपने साथ बैठा लेती है। कुछ अन्य रचनाओं द्वारा भी लेखिका ने हमारे समाज में बुजुर्गों की हो रही दुर्दशा का वर्णन किया है।
इस संग्रह में पारिवरिक परिवेश की बीस के लगभग रचनाएँ हैं। लेखिका को पारिवारिक रिश्तों की गहरी समझ है तथा वह इनके प्रति बहुत संवेदनशील है। इस संदर्भ में इस संग्रह में दर्ज रचनाएँ– ‘अपने लिए’, ‘तमाचा’, ‘इतिहास’, ‘दादी-पोती’, बड़ा आदमी, ‘मोह के धागे’, ‘रिश्तों की गर्माहट’, ‘तोहफा’ तथा ‘सास’ का विशेष रूप से वर्णन करना चाहूँगा। ‘अपने लिए’ लघुकथा में लेखिका दिखा रही है कि राम प्रसाद क्लर्क किस तरह अपने परिवार की इच्छाओं की पूर्ति हेतु सारी उम्र अपनी इच्छाओं का गला दबाता रहता है। वह सेवानिवृति से तीन महीने पहले ही प्रोविडेंट-फंड से पैसा निकलवा कर अपने लिए स्कूटर लेना चाहता है। उसे डर है कि रिटायरमेंट पर मिलने वाले पैसों का हिसाब तो उसके परिवार वालों ने लगा रखा होगा तथा उसके हिसाब से उन्होंने अपनी जरूरतें भी पैदा कर ली होंगी। ‘इतिहास’ इस संदर्भ में एक और महत्त्वपूर्ण रचना है। रचना बहुत ही कलात्मक ढंग से यह बयान करती है कि व्यक्ति जैसा बरताव अपने माता-पिता के साथ करता है, वैसा ही बरताव उसकी औलाद उसके साथ करती है। ‘तमाचा’ के बुजुर्ग दम्पति के तीनों बेटे अच्छे पैसे वाले हैं, फिर भी उनमें से कोई भी उन्हें अपने पास रखने को तैयार नहीं है। लोकलाज के लिए तीनों उन्हें चार-चार माह अपने पास रखते है। इस व्यवस्था से परेशान बुजुर्ग अंततः वृद्धाश्रम में चले जाते हैं। ‘भीतरी सच’ के माता-पिता इसलिए परेशान हैं कि एक कनाल की बड़ी कोठी बना लेने के बाद वे अपने बच्चों से कट से गए हैं। सभी बच्चे अपने-अपने कमरों में कैद होकर रह गए हैं। बच्चे पहले की तरह कभी उनसे बात ही नहीं करते। बच्चों से वार्तालाप केवल ‘चाय पी लो’, ‘खाना खा लो’ तक ही सिमट कर रह गया है। ‘रिश्तों की गर्माहट’, ‘दादी-पोती’, व ‘तोहफा’ लघुकथाओं में लेखिका ने दर्शाया है कि बच्चे अपने माता-पिता तथा करीबी रिश्तों के प्रति कितने भावुक होते हैं तथा उनसे उसी अनुसार व्यवहार करना बनता है। ‘सास’ रचना में हमें आदर्श पात्र के दर्शन होते हैं।
मानवीय संवेदना के विषय पर भी डॉ. शील कौशिक ने अपनी कलम चलाई है। ‘सुकून’, ‘बीस जोड़ी आँखें’ व ‘सज़ा’ इस विषय से संबंधित वर्णनयोग्य रचनाएँ हैं। ‘सुकून’ इस विषय पर एक श्रेष्ठ रचना है। आवश्यकता पड़ने पर व्यक्ति को दूसरे आदमी की मदद करने से भागना नहीं चाहिए। इसके लिए उसे चाहे थोड़ा कष्ट भी क्यों न उठाना पड़े। जरूरतमंद व्यक्ति की मदद करने के पश्चात ही संवेदनशील व्यक्ति चैन की नींद सो पाता है। परंतु ‘बीस जोड़ी आँखें’ की किट्टी-पार्टी की सदस्य महिलाएँ अपनी ही सदस्या के पिता की मौत पर भी असंवेदनशील हैं। शायद पैसे वाले लोग गरीब आदमी की निस्बत कम संवेदनशील होते हैं।

लेखिका ने अपनी रचनाओं ‘घरेलू नौकर’, ‘युगबोध’, ‘बिरादरी’ तथा ‘तमाशा’ द्वारा हमारे समाज में फैली आर्थिक विसंगतियों का बहुत सुंदर चित्रण किया है। ‘घरेलू नौकर’ संदेश दे रही है कि नौकर भी मालिक की तरह ही इंसान है। अगर मालिक उससे सख़्त मेहनत की आशा करता है तो उसे पूर्ण खुराक देना भी मालिक का कर्त्तव्य है। लघुकथा ‘युगबोध’ एक अलग ही तरह की रचना है। अपने पिता के साहिब के घर राजेन्द्र पेंट का काम करता है। उसने सारा काम बहुत मन तथा ओवरटाइम लगा कर किया है। पर उसकी मेहनत की मजदूरी देने के समय साहब बहुत कम पैसे देना चाहता है। साहिब पैसे दबाने के लिए कहता है, “देखो बेटा, तुम जैसे रामधन के बेटे हो, वैसे ही मेरे भी बेटे हुए? अब अपने घर में भी कोई काम के पैसे लेता है?…” इसी बात को आधार बना कर आज का नौजवान राजेन्द्र साहिब का स्कूटर ही ले जाता है। आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से बहुत सजग है। लघुकथा ‘बिरादरी’ का विरेश अपने गरीब दोस्त के बेटे की शादी में न जाकर अपनी बिरादरी के अमीर आदमी के लड़के की शादी में जाना पसंद करता है।
‘टोना’, ‘पहल’, ‘पाकेटमारी’, ‘सुख-शांति’, ‘छोटू का सवाल’ आदि व्यवस्था-विरोध को दर्शाती इस संग्रह की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। ‘पहल’ का संबंध कामचोर कर्मचारियों से है। वे किसी के भी घर मातमपुर्सी के लिए केवल ड्यूटी के समय ही जाना चाहते हैं। उनकी इस आदत से दुखी अधिकारी अपने पिता की मौत पर उन्हें ड्यूटी टाइम के बाद आने का निर्देश देता है। ‘टोना’ हमारे आसपास दिन के समय जग रही स्ट्रीट-लाइटों तथा टूटियों से व्यर्थ में बहने वाले पानी जैसे मसलों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। रचना सरकारी कर्मचारियों के अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाह होने की बात भी करती है। ‘पाकेटमारी’ लघुकथा में बहुत ही प्रभावशाली ढंग से डॉक्टरों तथा पुलिस के चरित्र को उभारा गया है। दुर्घटना होने पर ये लोगों को बेवकूफ बना कर कैसै लूटते हैं, इसका सुंदर चित्रण है। ‘छोटू का सवाल’ सरकार द्वारा बालश्रम जैसी समस्या को मात्र कानून बना कर हल करने की सोच पर सवाल खड़े कर रही है।
हमारे समाज में लड़का-लड़की में भेदभाव की भावना अभी भी बहुत गहरे तक समाई हुई है। इस पर लेखिका की सोच बहुत प्रगतिशील है। इस सोच को उन्होंने अपनी लघुकथाओं ‘नई बयार’, ‘परिवर्तन’ व ‘सोच’ में बहुत ही सार्थक व प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। लड़कियों व औरतों की तरह ही बुजुर्गों की स्थिति भी दयनीय होती जा रही है। इस विषय से संबंधित संग्रह की रचनाएँ ‘तमाचा’, ‘अवतार’, ‘संबंध’, ‘पीढ़ी-अंतर’, ‘अपने लिए’, ‘भीतरी सच’, ‘इतिहास’ तथा ‘बाहरवाला कमरा’ पाठक पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं।
उपरोक्त के अतिरिक्त भी लेखिका ने कई विषयों पर रचनात्मक कार्य किया है। ��‘आस्था’ लोगों की धर्म के प्रति दिखावे की आस्था पर व्यंग्य करती है। ‘जनहित’ में डाक्टरों द्वारा डेंगू बुखार का झूठा डर दिखाकर मरीजों की लूट का वर्णन है। लघुकथा ‘ख़बर’ मीडिया के स्वार्थभरे कामकाज के ढंग पर गहरी चोट करती है। ‘हवा के विरुद्ध’ विदेश में पढ कर डाक्टर बने बहू-बेटे के अपने नगर में आकर काम करने की सकारात्मक सोच को दर्शाती है। ‘फल’ अध्यापक व विद्यार्थी के मध्य आदर्श संबंध को चित्रित करती एक श्रेष्ठ रचना है। ‘दलील’ वकीलों की चतुराई पर कटाक्ष करती एक बेहतरीन रचना है।
लघुकथा लेखन कहानी लेखन से बहुत भिन्न है। कहानी की तुलना हम आठ सौ मीटर से लेकर पाँच किलोमीटर की दौड़ से कर सकते हैं। लेकिन लघुकथा की तुलना एक सौ मीटर की दौड़ से ही की जाती है। सौ मीटर की दौड़ कठिन होती है। डॉ. शील कौशिक कहानी-लेखन से लघुकथा-लेखन की ओर आई हैं तथा वे इस विधा में पारंगत होने के लिए प्रयत्नशील हैं। लघुकथा की संक्षिप्त-सी परिभाषा देनी हो तो इसमें इसके नाम वाले दो तत्व ‘लघु’ तथा ‘कथा’ तो होने ही चाहिएँ। इस संग्रह की लगभग सभी रचनाएँ लघुकथा की इस संक्षिप्त परिभाषा पर खरी उतरती हैं। ‘लघु’ का अर्थ एक-दो पंक्तियों वाली रचनाओं से नहीं है, इस बात को शील कौशिक भली-भांति समझती हैं। अपनी रचनाओँ में ‘कथा’ तत्व को उन्होंने कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया है।
इस संग्रह की रचनाओं द्वारा लेखिका कथानक व शिल्प के स्तर पर आम लेखकों से आगे निकलने की कोशिश करती दिखाई पड़ती हैं। लेखिका ने अधिकतर वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है, लेकिन वैचारिक स्पष्टता के चलते अनावश्यक वर्णन नहीं है। रचनाओं में सरल तथा मुहावरेदार भाषा का प्रयोग हुआ है। अधिकांश रचनाएँ शिल्प की दृष्टि से कसी हुई हैं। संक्षिप्त व सटीक संवाद रचनाओं को गति प्रदान करते हैं। तीव्र गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती हैं डॉ. शील कौशिक की लघुकथाएँ।
शीर्षक एवम् समापन बिंदु दोनों का लघुकथा विधा में बहुत महत्त्व है। लेखिका ने अपनी अनेक रचनाओं में साहित्य के इन दोनों उपकरणों का प्रयोग बहुत कुशलता से किया है। इससे रचनाएँ जहां चुस्त हुई हैं, वहीं कथ्य का संप्रेषण भी सही रूप में हो पाया है। ‘अवतार’, ‘युगबोध’, ‘इतिहास’, ‘तमाचा’, ‘सास’, ‘टोना’, तथा ‘विजयी मुस्कान’ इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
डॉ. शील कौशिक अपने सामाजिक एवम् पारिवारिक दायित्व के प्रति पूरी तरह सचेत हैं। वे मानवीय मूल्यों में आ रही गिरावट के प्रति भी बहुत चिंतित हैं। इस संग्रह की रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं। अपनी रचनाओं के माध्यम से वे लोगों का ध्यान इस ओर खींचने में सफल रही हैं। निश्चय ही यह लघुकथा संग्रह पाठकों को पसंद आएगा व लघुकथा साहित्य में अपनी विशेष पहचान बनाएगा।

कभी भी–कुछ भी, लेखिका: डॉ. शील कौशिक, प्रकाशक: राज पब्लिशिंग हाउस, 9/5123, पुराना सीलमपुर, दिल्ली-110031, प्रकाशन: 2011, मूल्य: एक सौ पिचहतर रुपये।

 

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