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दस्तावेज़- भगीरथ
विगत दशक की पंजाबी लघुकथाऍं – भगीरथ

इस संकलन में इक्‍कीसवी सदी के पहले दशक 2001 -10 की चुनिंदा पंजाबी भाषा की ‘मिन्‍नी’ कहानियों का हिन्‍दी अनुवाद पाठकों के समक्ष है। इस महत्त्वर्ण कार्य को पूरी निष्‍ठा से श्‍यामसुन्दर अग्रवाल व डॉ श्‍यामसुंदर दीप्ति ने सम्‍पन्‍न किया है। इसके पहले भी वे इसी तरह के दो संकलन ‘पंजाबी लघुकथाएँ’ तथा ‘बीसवीं सदी: पंजाबी लघुकथाएँ’ सम्‍पादित कर चुके हैं। इन संकलनों से गुजरते हुए हम पंजाबी की मिन्‍नी कहानी की विकास यात्रा को रेखांकित कर सकते है।
सम्‍पादक जब रचनाओं का चयन करता है ,तो अपने दृष्टिकोण और धारणाओं के परिप्रेक्ष्‍य में ही वह ऐसा करता है। और  यह स्‍वाभाविक भी है।सम्‍पादक  द्वय के लघुकथा को लेकर कुछ स्‍पष्‍ट विचार हैं-      
"इस संग्रह में शामिल 140 के करीब रचनाओं में ‘मिन्‍नी कहानी’ विधा के रूप के लिहाज से कहीं भी धुंधलापन नहीं है, इसे चेतन ढंग से किए गये चयन कार्य से भी जोडा जा सकता है।"  
यानी उन्‍होंने सचेत होकर इन रचनाओं का चयन किया  है ;जो लघुकथा के स्वरूप पर खरी उतरती हैं। 
लघुकथा के रूप को स्‍पष्‍ट करते हुए वे लिखते हैं, "अब प्रत्‍येक रचना  में कथा को देखा जा सकता है, रचनाओं में घटनाक्रम है, वार्तालाप है  और अंत तक पाठक के लिए जिज्ञासा मौजूद है।" अर्थात लघुकथा में कथानक पर जोर है।"अब एक पल या घटना की बात से भी आगे घटनाक्रम की बात की जाती है। इसे ‘इकहरी घटना’ भी कहा जा सकता है। घटनाओं के बीच वर्षो-महीनों के अंतराल में, उन्‍हें कालदोष दिखाई पडता है जिसे फ्लैश-बैक शैली अपना कर दूर किया जा सकता है। रचना को किसी तरह फैलाकर कहानी का रूप नहीं दिया जा सके, यह मानदंड भी उन्होंने चयन में काम में लिया है। इस तरह उनके चयन में  रूप की स्‍पष्‍टता, विषयों की विविधता, लेखन प्रक्रिया में परिपक्‍वता, प्रस्‍तुतीकरण में नवीनता के मानदंड प्रयोग हुए हैं। और उनके अनुरूप चयन भी हुआ है और कुल मिलाकर ठीक ही किया है। उन्‍होने पंजाबी की मिन्‍नी कहानी का इक्‍कीसवी सदी में क्‍या स्‍वरूप है , वह पाठक के समक्ष  रखा है ।यह कहना बेहतर होगा कि उनके फ्रेम में जो फिट हो गई, वही संकलन में शामिल हो गई।
कुल मिलाकर संकलन पठनीय है, मेरी निगाह में ऐसे कई सम्‍पादित संग्रह आए हैं, लेकिन इस संग्रह में गुणवत्ता का पूरा ध्‍यान रखा गया है। निश्चित ही हिन्‍दी पाठकों-लेखकों को यह संग्रह पढ़ना चाहिए; क्‍योंकि यह लघुकथा की एक मुक्कम्मिल तस्‍वीर भी उभारता है। 
सम्‍पादकों की इन्‍ही धारणाओं ने संग्रह में एक ही तरह की (स्टीरियो टाइप) रचनाएँ शामिल की गई हैं। सम्‍पादक की दृष्टि और व्‍यापक होनी चाहिए ,ताकि लघुकथा के रचनात्‍मक आकाश में उपलब्‍ध 'फ्रेम के बा‍हर' की अच्‍छी रचनाओं का भी चयन किया जा सके। लघुकथा के स्‍वरूप में कथानक के अलावा भी गुंजाइश है। रूपक, मिथक, प्रतीक,  विचार, व्‍यंग्‍य, जादुई यथार्थ और भी कई प्रयोग सम्‍भव हैं। नये विषयों के साथ नये शिल्‍प और भाषा के प्रयोगों की अनंत सम्‍भावनाएँ हैं ,जिसे खोज  करने की जरूरत है। ।इन सम्‍भावनाओं को दरकिनार कर इस विधा को कठोर ढाँचे में ढालने की  कोशिश इसके विकास को अवरूद्व कर देगी। लघुकथा इस ढाँचे में फँसकर  मृतप्राय हो जाएगी। 
इस संग्रह में कुछ रचनाएँ गांव के खेत खलिहानों से जुड़ी हैं और कृषि कार्य में हो रहे परिवर्तनों को रेखांकित करती है, ‘रोटी’(जश्‍नदीप कौर सरां)  और ‘वेदना’(कर्मजीतसिंह नडाला) ध्‍यान आकर्षित करती हैं। भाषा का पंजाबी लहजा भी पंजाब का स्‍वाद दे जाता है, ‘शरीफां’(सोढ़ी सत्तोवाली), ‘प्रताप’ (सुखचैन थांदेवाला) की रचनाएँ इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं। इसी तरह कई  अन्‍य रचनाओं में पंजाबियत का निर्वाह हुआ है, जिसे पढ़ते ही आप कह सकते हैं  कि यह पंजाबी लघुकथा है।
विषय की विशिष्‍टता, पात्र के चरित्र और भाषा के खालिसपन से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि यह पंजाबी कथा है। आज के मध्‍यमवर्गीय परिवारों में वृद्धजनों की दयनीय स्थिति को उकेरती बहुत सी रचनाऍं इस संग्रह में मिल जाएँगी, जैसे ‘छमाहियाँ’(जसवीर ढंड), ‘दीवारे’(श्‍याम सुदंर दीप्ति), ‘फालतू खर्च’(हरभजन खेमकरनी), ‘पेंशन’(हरजिंदर कौर कंग) आदि। स्‍त्री केन्द्रित रचनाएँ भी इस संग्रह में बहुतायत से मिल जायेंगी ।जेंडर असमानता के चलते, हिंसा के दंश झेलती, अपमान सहन करती, यौन प्रताड़ना  को झेलती और फिर कहीं-कहीं उसका मुकाबला करती स्‍त्री भी इन कथाओं में मिल जायेगी, ‘उलाहना’(प्रीत नीतपुर), ‘साँप’(जगदीश कुलरिया), ‘घुटन’ (हरजिंदर कौर कंग), ‘सवाल’(महिंदर मान) इत्‍यादि। कन्‍या के अनचाहे भ्रूण को कोख में ही समाप्‍त करने की  साज़िश हमारे ही परिवार रचते हैं। इस विषय के विभिन्‍न आयामों को उकेरती कथाएँ जैसे ‘भ्रूणहत्‍या’(मंगत कुलजिंद), ‘रुका हुआ व्रत’(अरतिंदर संधु), ‘जुर्म का सहम’(अव्‍वल सरहदी)। वैश्वीकरण के दौर में मीडिया खास तौर से इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के विभिन्‍न चैनलों की आपसी प्रतियोगिता और टी आर पी बढ़ाने के लिए ‘सनसनीखेज़ ख़बर’(अणिमेश्‍वर कौर) भी इन्‍हीं मीडियावालों की देन है। वे अपने सामाजिक दायित्‍व को भूलकर केवल लाभ को ही ध्‍यान में रखते हैं। इसके अलावा भी रिश्‍तों में बदलाव, भ्रष्‍टाचार कर्मकांड , जातिवाद, विदेश की ओर दौड़ जैसे विषय भी इस संग्रह  की कथाओं ने उकेरे हैं। लघुकथा के शिल्‍प में हो रहे बदलाव को रेखांकित करती हैं, अब कथ्य की जगह कथा महत्त्वपूर्ण हो गई है, पहले कथा द्वंद्व से आरंभ होकर तीव्रता से चरम की ओर जाती थी, अब जरा तसल्‍ली से कथा कही जा रही है, लघुकथा अपने चरम पर विस्‍फोट नहीं करती बल्कि कुछ अनकहा छोड़कर पाठक को सोच विचार करने पर विवश कर देती है। व्यंग्य जो कभी  कथा का अनिवार्य हिस्सा था। इन कथाओं में गायब- सा है।

 

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