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दस्तावेज़- निरुपमा कपूर
लेखकों के विचार लघुकथा के सन्दर्भ में- निरुपमा कपूर

मेरी पसन्द‘ पुस्तक में करीब 25 लेखकों की पंसद की लघुकथाएँ संकलित की गई है इन सभी लेखकों ने लघुकथा के बारे में अपनी सपष्ट राय बताते हुए उसके महत्त्व का आकलन किया है। यहाँ पर लगभग सभी के लघुकथा के बारे में विचारों को क्रम से देने की कोशिश की जा रही है। ‘हरभजन खेमकरनी‘के अनुसार हिन्दी लघुकथा की तरह ही पंजाबी लघुकथा भी नए रास्ते तलाश रही है। नऐ विषयों पर नए तजुर्बे किए जा रहे है जिससे लघुकथा नई दिशा की ओर बढ़ रही है। ‘सूर्यकांत नागर‘ के अनुसार एक सशक्त लघुकथा बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाती है। जो अनकहा है, वही इसकी ताकत है। ‘सुरेश यादव‘ के शब्दों में सशक्त लघुकथाएँ समसामयिक सवाल शाश्वत प्रश्नों को उभार कर सामने लाई है। ‘लघु‘ रूप होना जहाँ लघुकथा की शक्ति है, उसकी चुनौती भी । वास्तव में यही है कम से कम शब्दों में बात कहनी है और बात अधूरी न रहे यह भी ध्यान रखना है।
‘सुभाष नीरव‘ के शब्दों में- लघुकथा पर आरोप लगाए जाते है कि यह वर्तमान भूमंडलीकरण और बाजारवाद के दौर में जटिल विषयों को अभिव्यक्ति देने में असमर्थ है। इसमें नए विषयों की बेहद कमी है लघुकथा अपने एक सीमित घेरे से बाहर नहीं निकल पा रही है सुभाष नीरव इसे सिरे से नकारते है और कहते है लघुकथा अपने लंबे सफर के बाद आज जहाँ खड़ी है वहाँ पहुँचने के लिए उसने सभी चुनौतियों को स्वीकारा है और नए समय की नई संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में अपने आप को सक्षम किया है। ‘
सुकेश साहनी‘ सटीक शब्दों में कहते है कि लघुकथा अपने सामाजिक सरोकारों और साहित्यिक परिपक्वता को निभाने में अन्य विधाओं से कही भी पीछे नहीं है। किसी भी विधा में कम से कम शब्दो में गहन से गहनतम बात कहना आसान नहीं, बल्कि कठिन भी है। लघुकथा में शीर्षक से लेकर अतिम वाक्य के अतिम शब्द तक कसावट अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। ‘सतीश राज पुष्करणा‘ के अनुसार साहित्य गणित या विज्ञान की भाँति निश्चित सू़त्रों में बंधकर नहीं चलता। लघुकथा भी साहित्य की एक विधा है अत: यह इसका अपवाद कैसे हो सकती है। ‘श्यामसुन्दर अग्रवाल‘ के अनुसार लघुकथा में इसके नाम वाले दो गुण ‘लघु’ तथा ‘कथा‘तो होने चाहिए। सकारात्मक संदेश वाली रचनाओं की लघुकथा साहित्य में बहुत कमी है। ‘श्याम सुन्दर दीप्ति‘ के अनुसार लघुकथा के रूप की स्पष्टता और विषयों का चुनाव लघुकथा में निरंतर चर्चा का विषय रहे है। ‘शराफत अली खान‘ के शब्दों में लघुकथा आज के युग की अव्यवस्थाओं पर करारा प्रहार है।
‘रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘ के अनुसार- लघुकथा में वर्तमान समय के गहन मंथन आत्मसंघर्ष अन्तर्द्वन्द्व, मूल्यों के क्षरण एवं सत्ता द्वारा जनसाधारण की वंचना निहित है। सधे हुए लेखक के लिए कथ्य नया या पुराना नहीं होता बल्कि वह अपने कलात्मक स्पर्श से कथ्य की बारीकी के नऐ आयामों सूत्रपात कर सकता है।‘युगल‘ हिंदी साहित्य की जिस कथात्मक रचना–विधा को लघुकथा की संज्ञा मिली है वह अचानक ही पैदा नहीं हुई ;बल्कि समय के दबाव ने उसमें व्यंजकता और बेधकता दी है। अपनी नव्यता के कारण यह विधा अल्पकाल काल में ही प्रसिद्ध हुई है। ‘माधव नागदा‘ के शब्दों में लघुकथा विधा उतनी ही सक्षम है;जितनी कि कोई अन्य विधा। ‘भगीरथ‘ लघुकथाएँ सामाजिक यथार्थ पर खडी कथाएँ है। जो यथार्थ से सीधे साक्षात्कार कराती है। ‘बलराम अग्रवाल‘ के अनुसार समकालीन हिन्दी लघुकथा के द्वारा जड़ताओं और विसंगतियों पर लगातार चोट करना इसका प्रमुख विषय रहा है जिसमें ये कामयाब रही है।
‘प्रेम शशांक‘ कहते हैं कि किसी भी रचनात्मक विधा के संदर्भ में यह बहुत जरूरी है कि वह अपने समय–समाज की अश्लीलता के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करे। लघुकथा इस तथ्य को हर दृष्टिकोण से पूरा करती है। ‘पवन शर्मा‘ के अनुसार लघुकथा पूर्णत: बौद्विक लेखन है जिसमें समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर कर पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया जाता है। ‘दामोदर दत्त दीक्षित‘ कहते हैं लघुकथा रोजमर्रा की घटनाओं को अपनी पैनी दृष्टि से देखने वाले लेखकों की विधा है। सुरेश शर्मा के अनुसार लघुकथा समाज की बुराइयों पर कटाक्ष करते हुए संदेश देती है। कि हमें गलत आचरण नहीं करना चाहिए।‘जीतेन्द्र जीतू‘ के अनुसार लघुकथा वर्तमान समाज को प्रतिविम्बित करती है लघुकथा तकनीकी संयम और पात्रों के सर्वथा अनुकूल मौजूदा काल की प्रचलित हिंगलिश भाषा की बेहतरीन प्रस्तुति है। ‘गम्भीर सिंह पालनी‘ लघुकथा को समाज के कटु यथार्थ को सामने रखने वाली विधा मानते है।
‘किशोर काबरा‘ के अनुसार लघुकथा समाज की अभिशप्त पंरपराओं को सामने रखती है उन पर सटीक चोट कर मन को व्यथित कर सोचने को मजबूर करती है। ‘कमल चोपड़ा‘ के शब्दों में लघुकथा में कलात्मक शिल्प और शैली में मर्मस्पर्शी ढंग से कथ्य की प्रस्तुति होती है जिसमें मानवीय संवदेनाओं को विस्तार से प्रस्तुत किया जाता है। भाषा मँजी हुई अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने में समर्थ होती है। सांकेतिकता भी लघुकथा की एक विशेषता है। ‘उमेश महादोषी‘ के अनुसार कोई भी विधा तभी स्वतन्त्र और समर्थ विधा की मान्यता हासिला कर सकती है, जब उसमें कहीं जाने वाली बात सामान्यत: उसी विधा में कहीं जा सके लघुकथा विधा इस सत्य को पूर्णत: सार्थक करती है। ‘अशोक भाटिया‘ के अनुसार रचना प्रक्रिया में अंत तक सामाजिक सरोकार ही प्रमुख होते है तब स्वस्थ रचनाशीलता उजागर होती है लघुकथाओं सामाजिक सरोकारों से जुड़कर समाज को आईना दिखाने का कार्य करती है। अंत में सभी लेखकों के लघुकथा के बारे में विचार जान कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ‘लघुकथा‘ सटीक व कम शब्दों में समाज की विसंगतियोे को उजागर करने का सशक्त माध्यम है जिसमें कथ्य और शिल्प कसे हुए व भाषा मँजी हुई होती है।
सार रूप में कहें तो लघुकथा पूर्णत: बौद्धिक लेखन है, जिसमें समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर कर पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया जाता है। लघुकथाओं में जीवन के किसी गूढ़ सत्य, संदेश, विचार या अनुभूति को छोटी सी साधारण प्रतीत होने वाली कथा में स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत किया जाता है। इन कथाओं में जीवन के अमर संदेश, को प्रकट करना कोई सरल कार्य नहीं है क्योकि लघुकथा को लिखने में अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा अतिरिक्त कुशलता की हो, अतिरिक्त कौशलपूर्ण शिल्प गढ़ सकने की हो या अतिरिक्त संवेंदन शीलता की।इन कथाओं में तीखी अभिव्यक्ति होती है, मन को भेदने वाले विचारो की। जिस प्रकार बिहारी के दोहो के बारे में विख्यात है ‘‘देखन में छोटे लगे, पर घाव करे गंभीर ठीक उसी प्रकार लघुकथा आकार में लघु होने के बावजूद भी अपने मन्तव्य को भली–भाँति प्रकट ही नहीं करती, अपितु शांत मन में कंकड़ मार कर विचारों को उद्वेलित, करती है।
अब ज़रा चर्चा की जाए हिन्दी के इन विद्वानों द्वारा चयनित लघुकथाओं पर । प्रस्तुत संग्रह ‘मेरी पंसद’ में ये लघुकथाएँ समीक्षक और आलोचकों के साथ–साथ पाठक वर्ग की भी पंसदीदा लघुकथाएँ हैं। इसमें समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली लघुकथाएँ तो हैं ही, साथ ही बाल मन की अवधारणाओं को उजागर करती व हमारे आस–पास की रोजमर्रा की समस्याओं को उद्घाटित करती हुई हमारी सोच पर व्यंग्य करती प्रतीत होती हैं । वैसे तो सभी लघुकथाएँ संदेश अपने में छिपाए हुए हैं स्त्री मन की तड़प को प्रस्तुत करती लघुकथा ‘बहू का सवाल’ कम्पुआइन भाभी स्त्री की बदलती सोच की परिचायक है। कभी मेरी कोख में नहीं, आपके बबुआ के शरीर में है........ यह जानने के बाद क्या आप मुझे दूसरी शादी करने की अनुमति दे सकते हैं? इस लघुकथा का कसा हुआ कथ्य व भाषा इसको सार्थकता प्रदान करती है। ये उस सामाजिक व्यवस्था के मुँह पर तमाचा है जिस पर बच्चा पैदा न होने पर दूसरे विवाह को ठीक ठहराया जाता है।
‘एक पवित्र लड़की’ बलात्कार पीड़िता रंजना की उस सोच को व्यक्त रकती है जिसमें ब्लात्कार पीडि़ता को समाज के द्वारा यह अहसास कराया जाता है कि वह किसी के लायक नहीं रही, अपवित्र हो गई। लेकिन गौतम ने उससे कहा क्या उस वहशी दरिन्दे ने तेरे शरीर के साथ तेरा मन भी लूट लिया ब्लात्कारी शरीर को ही अपवित्र कर सकता है, मन को नहीं। ‘उस स्त्री की अंतिम इच्छा’ भारतीय स्त्री की उस विडम्बना को व्यक्त करती हैं जिसमें उसे एक ओर तो देवी रूप में पूजा जाता है दूसरी ओर दहेज के लिए या गर्भ में ही बोझ समझ कर खत्म कर दिया जाता हैं। इस लघुकथा में सरल शब्दों में रंजना के गहरे दुख को अभिव्यक्ति दी गई है। सुकेश साहनी की कसौटी इंटरनेट के युग में खुलेआम स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों की उस माँग की पड़ताल करती है ;जो इस आधुनिक युग में वर्जनाओं को समाप्त करने की घोषणा करने पर उतारू लगते हैं। साँरी सुनन्दा यू हैव नॉट क्वालिफाइड। यू आज नाइंटी फाइव परसेंट प्युअर। वी रिक्वाअर एटलीस्ट फोर्टी परसेंट नाँटी यह कथा भारतीय संस्कारों के कमजोर पड़ने को दर्शाती है दूसरी भाषा के शब्दों के प्रयोग ने भी लघुकथा के तारतम्य को प्रभावित नहीं किया है। लघुकथा की कसी बुनावट व शिल्प के कारण हमारे मन को स्पर्श करती हुई इस संग्रह की श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक है। बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन कथा’ माधुरी जो कि संतान के लिए गर्भिणी गाय को थोड़ा सा अनाज देना चाहती है बशीर की विधवा की दयनीय हालत देख कर दान उसे दे देती है। हमारे हिन्दू समाज गाय की तुलना में इंसान का कद छोटा बताया गया है लेकिन माधुरी का यह कहना आटा लाई हूँ...... ज्यादा तो नहीं, फिर भी अपनी हैसियत भर.....तुम्हारे लिए जो भी बन पड़ेगा, हम करेगें बहन हिन्दू समाज के उन रीति रिवाजों पर एक करारा प्रहार है ,जहाँ इंसानों से ज्यादा जानवरों को प्राथमिकता दी गई है। इस लघुकथा का दृश्य बड़ा ही मार्मिक बन पड़ा है। भाषा व षिल्प अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।
बच्चों के कोरे कागज जैसे मन पर हमारे व्यवहार, बातचीत, आचरण छप जाता है। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए उनके कोमल मन पर कोई गलत संदेश न जाने पाए। बच्चों के कोमल मन पर हम बड़े ही भेदभाव के बीज बो देते हैं। जैसे सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘विष–बीज’ यही संदेश देती है कि बच्चों में साम्प्रदायिक भावना के बीज हम ही बोते हैं। संदीप ने फिर पूछा मुसलमान की दुकान का पानी पीने से क्या होता है पापा? लग रहा था, मुलायम ज़मीन पर बबूल और थूहर बो दिए जाने का पाप मुझसे हो गया है।माधव नागदा की लघुकथा ‘एहसास’ बच्चों के साफ मन को दर्शाती है जिसमें वह अपनी खुशी अपने दोस्तों को बाँट कर खुश होता है। बेचारे बहुत गरीब हैं। उनको सर्कस कौन दिखाता, यह सोच कर मैंने ही उनको सर्कस के टिकट ले दिए। राजू ने सुबकते हुए कहा। माधव नागदा की पंसद की जनकराज पारीक की ‘हरयिल तोता’ बच्चों की सरल मानसिकता दर्शाती है, कैसे बड़े अपनी गंदी चालों में उन्हें उलझा लेते है जिन्हें बच्चे समझ नहीं पाते। किशोर काबरा की पंसदीदा अभिमन्यु अनत की लघुकथा ‘पाठ’ बच्चे की उस मानसिकता को दर्शाती है कि बच्चे अपने दोस्त रंग या जाति देखकर नहीं बनाते! जब आठ वर्ष के हेनरी से उसके दोस्त के रंग के बारे में उसकी माँ पूछती है तो हेनरी का जबाव हम बड़ों को भी आईना दिखा देता है बात यह है माँ कि उसका रंग देखना तो मैं भूल ही गया। कमल चोपड़ा की पंसद की युगल की लघुकथा ‘नांमातरण’ बच्चे की निर्देष मासूमियत को दर्शाती है बच्चे का अपनी निक्कर सरका कर अपनी छुछ्डी दिखाकर अपने धर्म का सबूत देने से जाहिर होती निर्दोष मासूमियत को देख कर स्त्री की मानवीयता जाग पड़ती है।
हरमंजन खेमकरनी की पंसद की डॉ कर्मजीत सिंह नडाला की लघुकथा ‘भूकंप’ बेरोजगारी की समस्या को ध्यान दिलाते हुए अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का संदेश देती है। सूर्यकांत नागर की पंसद की जगदीश अरमानी की लघुकथा ‘कमानीदार चाकू’ छोटी–छोटी बातों पर सम्प्रदायिक दंगों के भड़कने से हम किस तरह से अंदर तक दहले रहते हैं, का बयान करते हैं। शरद जोशी की लघुकथा ‘मैं भगीरथ हूँ’ आज के भ्रष्टाचार के दौर को उजागर करती है। डॉ कमल चोपड़ा की ‘खू–खाता’ लघुकथा माँ की ममता को दर्शाती है जो मरकर भी अपनी संतान के कष्टों को समाप्त करने में लगी रहती है। सुभाष नीरव की लघुकथा ‘बीमार’ हमारी छोटी–छोटी इच्छाओं को पूर्ण करने की हसरते दिखाती है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘खेल’ आज नई तकनीक के दौर में संवेदनाएँ किस प्रकार दम तोड़ रही है, का बखूबी चित्रण किया है। शरन मक्कड़ की लघुकथा रोबोट भी आज के युग में आदमी के मषीन बनने की लघुकथा है। ये लघुकथा आदमी की इच्छाओं के पीछे भागने को दर्शाती है। रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा ‘धर्म निरपेक्ष’ जानवरों व मनुष्यों के बीच धर्म के अंतर को समझाती है। लघुकथा का शिल्प बेजोड़ है। कम शब्दों में लघुकथा अपना मन्तव्य स्पष्ट करती है।
जसवीर ढंड की लघुकथा ‘छोटे–छोटे ईसा’ बीमार माँ की इच्छा व बेटी के सपनों को व्यक्त करती। चित्रा मुदगल की लघुकथा बोहनी मर्मस्पर्शी है। जब भिखारी औरत से कहता ‘‘तुम देता तो सब देता, तुम नई देता तो कोई नई देता......तुम्हारे हाथ से बोनी हो तो पेट भरने भर को मिल जाता‘‘ भिखारी का यह वक्तव्य हमारे भाग्य में विश्वास को उजागर करता हैं। सुकेश साहनी की ‘नपुंसक‘ लघुकथा व्यवस्था पर करारा प्रहार है जिसमें हम गलत हो रहा है, जानकर भी या तो उसमें शामिल हो जाते है या उससे बचने का प्रयास करते है पर लड़ नहीं पाते है। इन सभी लघुकथाओं में किसी एक को श्रेष्ठ कहना अन्य के साथ नाइंसाफी होगी। सभी कथाओं की प्रस्तुति सहज शि्ेाल्प और शैली में मर्मस्पर्शी ढंग से हुई है। भाषा सरल और सुबोध है, अपने लक्ष्य को रेखंाकित करती है। जटिल समस्याओं पर लिखी होने के बावजूद वस्तु ,शिल्प और भाषा में सहजता और सरलता है जिस से मानवीय संवेदनायें अच्छी तरह व्यक्त हुई है। सभी रचनाओं की भाषा कथ्य के अनुकूल है, मँजी हुई और अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने में समर्थ हैं। पात्रों की पीड़ा, विवशता, मनोभाव का सूक्ष्म रूप से विश्लेषण किया गया है। ये रचनाएँ अपनी सृजनात्मकता से बेहद प्रभावित करती है। बल्कि मन में प्रश्न भी उठाती है, बिसंगतियों के प्रति सोचने को बाध्य करती हुई ये पुस्तक लघुकथाओं को पंसद करने वाले पाठकों के लिए अपने अध्ययन कक्ष में संजोकर रखने वाली किताबों में से एक होनी चाहिए।
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