बदलते सामाजिक सन्दर्भों के साथ अपनी रचनाशीलता को जिन लघुकथाकारों ने गहरे तक जोड़ा है, उनमें रत्नकुमार साँभरिया का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कहानी के साथ–साथ लघुकथा में भी सांभरिया ने अपनी अदभुत सृजनात्मक क्षमता का एहसास कराया है।
समीक्ष्य कृति प्रतिनिधि लघुकथा शतक’ श्री सांभरिया की दूसरी लघुकथा कृति है। इस संग्रह में एक सौ लघुकथाएँ है। परम्परागत और मौजूद सामाजिक संरचना की शिनाख्त इन लघुकथाओं को पढ़कर सहज ही हो जाती है। वे सामाजिक जीवन को गतिशील बनाये रखने वाली वैचारिक ऊर्जा के क्षरण के प्रति न सिर्फ़ चिंतित दिखते हैं, बल्कि उसके संरक्षण की लौ जलाये रखने के प्रति भी सजग हैं। उनकी लघुकथाओं में पात्रोचित भाषा और विषय वस्तु के अनुकूल वातावरण का निर्माण, पाठकीय सोच और संवेदना को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है। जिन लघुकथाओं की चर्चा विशेष तौर पर अपेक्षित है, उनमें अवारण, आटे की पुडि़या, आईना, अहसास, अनुभव, अंतर, कमीशन, कर्म, कर्तव्य–पालन, चुग्गा, चोट, जीने की राह, दर्प, द्रोणाचार्य जिंदा है, नकेल, बँटवारा, मूक वेदना तथा मूर्ति शामिल है।
‘अंतर’ संग्रह की पहली लघुकथा है, जिसमें क्रूरतापूर्ण व्यवहार के बावजूद घोड़े का अपने मालिक के प्रति प्रेम का भाव कम नहीं होता है। वह चाबुक मारने से लहुलूहान उसकी हथेली को जीभ से सहलाने लगता है।
गरीबी और भूख की विवशता को ‘आटे की पुड़िया’ से महसूस किया जा सकता है। ‘आवरण’ शोषण के खिलाफत की जरूरत पर बल देती है। ‘आईना’ बताती है कि हम बाहर की दुनिया की अपेक्षा अपने भीतर की शंकाओं से ज्यादा पीडि़त होते हैं। ‘अहसास’ इस बात का अहसास कराती है कि जातिगत भेदभाव हमारी दोस्ती की दीवार में एक खौफनाक सुरंग की तरह होता है। ‘अनुभव’ शीर्षक लघुकथा में आज की राजनीति में अयोग्य लोगों की भरमार की तरफ संकेत है कि जिसकी तीन पीढ़ियों ने भी गेहूँ का खेत नहीं देखा ,वह भी कृषि मंत्री बन जाता है।
‘कर्म’ की पंडिताइन का आडंबर ही है कि गाय से चिपटकर वह पुण्य कमाती हैं; लेकिन उसके घर की सफाई करने आई पढ़ी–लिखी मेहतरानी की चुन्नी मटके से सट जाने से उसकी पवित्रता भंग हो जाती है।
कर्त्तव्यपालन, गुंडई, जानवर और कायर पुलिसिया लघुकथाएँ चरित्र पर प्रहार करती है। पद और प्रतिष्ठा का चुग्गा डालकर सरकार किस तरह ईमानदार लोगों को पथ–भ्रष्ट करती है, इस बात का एहसास कराती है लघुकथा ‘चुग्गा’।
‘चोट’ जहाँ अभिजात्य संस्कारों पर चोट करती है, वहीं ‘जीने की राह’ में गरीब की पीड़ा का गहन बोध समाहित है।
थोड़ी सी सुविधा मिलने पर अपनी औकात भूल जाने वालों पर ‘दर्प’ में व्यंग्य किया गया है। ‘द्रोणाचार्य जिंदा है’, में एक दलित छात्र की प्रतिभा से आहत गुरु की कुंठित मानसिकता की तरफ संकेत किया गया है जो इस बात का प्रमाण है कि आज के आधुनिक समाज में भी एकलव्य का अंगूठा काटने वाले द्रोणाचार्य मौजूद है।
‘नकेल’ दो बिछड़े बैलों के पुनर्मिलन की कथा है। इस लघुकथा के मार्मिक संवादों से मन गीला हो उठता है। आँखें नम हो जाती हैं।
माँ और पिता के स्नेह को स्वार्थ की तराजू पर तौलने की मूल्यहीन स्थिति पर सोचने हेतु विवश करती है ‘बँटवारा’ शीर्षक लघुकथा।
‘मूकवेदना’ में निष्ठुर होते समाज की नंगी तस्वीर है। मंदिर में मूर्ति की प्राण–प्रतिष्ठा के बाद कलाकार बिल्कुल हीन हो जाता है जिसने पत्थर को तराशकर उसमें प्राण फूँका था। ढोंगी समाज की सड़ी हुई मानसिकता को ‘मूर्ति’ लघुकथा विचारोत्तेजक ढंग से उठाया गया है।
घोंसला, दर्प, आवरण, आईना, अहसान, अपने हाथ, नकेल तथा कड़ी इत्यादि लघुकथाएँ मानवेतर कथानकों पर आधारित होने के बावजूद उनमें प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक मानवीय संवेदना और उनके कार्य–व्यवहार के विभिन्न आयामों को ही उद्घाटित करते हैं।
श्री सांभरिया के सामाजिक सरोकारों और सोच का रेंज काफी विस्तृत है। वे विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक उपादानों यथा–नदी, पहाड़, जंगल, फूल–पत्ती, काँटा, पशु–पक्षी इत्यादि को बहुलता से पात्र के रूप में अपनी रचनाओं में उपयोग करते हैं।
दरअसल श्री सांभरिया एक मँजे एक रचनाकार हैं और उन्हें विधा के रूप में लघुकथा की सीमा का बोध है। इसलिए उस सीमा के भीतर रहकर ही उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति क्षमता का आमजन के उत्थान का भाव निहित है। परिवर्तन कामी चेतना से संचालित मन:स्थितियों के निर्भीक और सफलतम कथा शिल्पी के रूप में रत्नकुमार साँभरिया की चर्चा से इंकार करना नामुमकिन है। तात्विक विवेचना की कसौटी पर लघुकथा के फलक को विस्तार देने में ‘प्रतिनिधि लघुकथा शतक’ सक्षम कृति है। अनामय प्रकाशन ने खूब आकर्षक साज–सज्जा के साथ पुस्तक को प्रकाशित किया है।
प्रतिनिधि लघुकथा शतक : रत्नकुमार साँभरिया,मूल्य–150, प्रकाशक: अनामय प्रकाशन, ई–776 / 7,लाल कोठी योजना, जयपुर–302015
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