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दस्तावेज़- सूर्यकांत नागर
जीवन की विविधता को उकेरती लघुकथाएँ : सूर्यकांत नागर

अच्छी लघुकथा लिखना कहानी–उपन्यास लिखने से अधिक चुनौतीपूर्ण काम है। लघुकथा जीवन के विराट सत्य की बारीक बुनावट है। ांसीसी प्रकृविादियों के अनुसार लघुकथा ‘स्लाइस आफफ लाइफ’ है, जीवन का एक हिस्सा। आकार में छोटी होकर भी, शिल्प और संकेत की दृष्टि से अपने आकार का अतिक्रमण क रवह अपनी ताकत दूर तक फैलाती है। उसमें वर्णनात्मकता और स्पष्टीकरण की गुंजाइश नहीं होती। सांकेतिकता उसकी बड़ी ताकत है। दरअसल ज़रूरत लघुकथा की शक्ति और सीमा को पहचानने की है। इधर कुछ रचनाकारों द्वारा लघुकथा को अत्यधिक बौद्धिक और अमूर्त बनाने की कोशिश की जा रही है। माना कि कला में ही रचना का सौंदर्य निहित है और अंतत: साा कला की ही चलती है, फिर भी कथा में कला किस हद तक मौजूद रहे, यह तय करना भी जरूरी है। राजेंद्र यादव ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि अति कलावाद की परिणति एक प्रकार की स्पिरिचुअल एब्स्ट्रेक्टनेस (आध्यात्मिक अमूर्तन) में होती है। नामवरसिंह ने ऐसी कथाओं को ‘अपठनीय आलेख’ कहा है।


डॉ. स्वाति तिवारी द्वारा संपादित ‘हथेलियों पर उकेरी कहानियों में स्थापित लघुकथाकारों की कुछ कथाओं के साथ–साथ पचास नई–पुरानी लेखिकाओं की लगभग नब्बे लघुकथाएँ संकलित हैं। आरंभ में शंकर पुणतांबेकर, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, सतीश दुबे, रामेश्वर काम्बोज, सुरेश शर्मा, डॉ. शरदसिंह आदि के लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर विचारपरक आलेख हैं ;जो नई पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं। सुकेश साहनी ने अपने आलेख में दो बातों पर जोर दिया है–(एक) कहानी का बीज रूप नहीं है लघुकथा। लघुकथा में जीवन के एक पक्ष की झलक दिखलाई जा सकती है, लेकिन कहानी, उपन्यास में पूरे विस्तार से जीवन को समेटा जा सकता है। (दो) लघुकथा को किसी सीमा में बाँधना उचित नहीं है–न शब्द–सीमा में न रचनात्मकता में। रचनात्मकता का कोई बना–बनाया ढाँचा नहीं होता। रचनात्मकता में आए परिवर्तन ही सृजन की दिशा तय करते हैं। बस एक अनुशासन होता है। यदि कोई मानक या प्रतिमान हैं तो उन्हें लचीला होना चाहिए, ताकि विकास एवं प्रयोग की संभावनाएँ बनी रहें। आज कला, कल्पना, विचार, यथार्थ दर्शन, मनोविज्ञान और सामाजिक सरोकारों की बहुआयामी धाराएं बह रही हैं। ऐसे में रूप–संरचना पर कोई स्थाई फतवा देना उचित न होगा। पुणतांबेकर जी ने अपने लेख ‘लघुकथा’ में शिलप विधान’ में मुख्यत: शैली की ही चर्चा की है। मगर ध्यान रखा जाना चाहिए कि शैली और शिल्प में अंतर है। शैली ‘स्टाइल’ है, जबकि शिल्प आर्ट, क्राफ्ट या कला है। लघुकथाकार की एक विशिष्ट शैली हो सकती है, पर शिल्प हर बार वही नहीं हो सकता। रचना स्वयं अपना शिल्प निर्धारित कर लेती है। रामेश्वर काम्बोज ने अपने लेख में सामाजिक बोध की बात विस्तार से की है तो बलराम अग्रवाल ने शब्द और भाषा के प्रयोग पर बेबाक टिप्पणी की है।
संकलन के दूसरे खंड में, जैसा कि पूर्व में कहा गया, पचास लेखिकाओं की लघुकथाओं को शामिल किया गया है। इनमें अधिकतर स्त्री–विमर्श और युवा पीढ़ी की बुजुर्गों के प्रति बढ़ती हृदयहीनता की लघुकथाएँ हैं। स्वार्थ और आर्थिक स्थितियों के कारण पारिवारिक रिश्तों में आ रहे बदलाव की कथाएँ ,जैसे मातृछाया (विनिता मोटवानी), वादा (स्वाति तिवारी), सुख–दुख (सुनयना), पुअर मम्मी (सुमन ओबेराय) आदि । वरिष्ठ लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज की ‘अपने–अपने संदर्भ’ भी कलात्मक ढंग से इसी विषय पर लिखी एक महत्त्वपूर्ण लघुकथा है। इन सबके बीच मृणालिनी धुले की ‘अंतर्दशी’ सकारात्मक सोच की लघुकथा हैजो नई ऊर्जा भर बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा देती है। सीमा पांडे और अरुणा शास़्त्री की लघुकथाएँ अलग तेवर लिए हुए हैं। शिल्प अभिव्यक्ति ओर जीवन–दृष्टि के लिहाज से। ‘खुश खबर’ बेटियों के महत्त्व को रेखांकित करती बढि़या कहानी है। ‘स्थातंर’ विधवा कमला की मर्मस्पर्शी कथा है, जिसमें वह दूसरों के र, वेतन पर काम कर, बेटे को पालती–पोसती, पढ़ाती–लिखाती और उसका ब्याह कराती है। हाँ, यहाँ उसे वेतन नहीं मिलता, पर ताने ओर झिड़कियों में कोई कमी नहीं आई है। ‘दीवारों के कान’ तथा ‘बदलती धारा’ (अरुणा शास्त्री) प्रयोगात्मक लघुकथाएँ हैं, जो अनकहे ढंग से बहुत कुछ कह जाती हैं। इसी प्रकार किसलय पंचोली की ‘रिश्तो की पहेली’ एक ओर पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की बेचारगी को रेखांकित करती एक उम्दा लघुकथा है; जो पुरुष कर सकता है, क्या उसे एक स्त्री स्वच्छंदतापूर्वक कर सकती है? ‘सूझ–बूझ’ (अंजुल कंसल) पुरुष द्वारा किए जा रहे स्त्री के इस्तेमाल की कहानी है। ‘चीर हरण’ (छाया गोयल) स्त्री–शोषण की मर्मभेदी कथा है। ‘शांति’ (सुषमा दुबे) आदर्श नागरिकता का सबक सिखाती उद्देश्यपूर्ण लघुकथा है। रेगिंग के भयावह रूप को प्रकट करती है लघुकथा ‘रेगिंग (सुमन ओबेराय)। शरदसिंह की रचनाओं के विषय उम्दा हैं पर लघुकथाएँ थोड़ी लाउड हो गई हैं। स्थापित लघुकथाकारों में दूसरा चेहरा (सुकेश साहनी), खुशबू (रामेश्वर काम्बोज), भगवान का डर (सतीश दुबे), कुंडली (बलराम अग्रवाल), दंश (सुरेश शर्मा) अपने समय की पीड़ा को व्यक्त करती हैं।
संकलन की लघुकथाओं से गुजरते हुए चंद बातें साफ हो जाती हैं। मसलन, कई लघुकथाओं में दो विरोधी स्थितियों को सीधे–सीधे आमने–सामने रख दिया गया है। लघुकथा में जो अनकहा रहता है, वही कहे गए की ताकत है। स्पष्टीकरण से कथा का प्रभाव घटता है। श्रेष्ठ लघुकथाकार वही जो पाठक का कम से कम समय लेकर उसे अधिक से अधिक दे। लघुकथा को सरल विधा मान उसे लिखने में जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए। धैर्य लेखक की महत्त्वपूर्ण पूँजी है। भाषा और शिल्प वैचारिक के वाहक हैं। भाषा जीवन–दृष्टि का सर्वाधिक संवेदनशील बैरोमीटर है। अत: इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, राजेंद्र यादव ने सही कहा है कि अख़बारी क़तरनें या चुटकुले लघुकथाएँ नहीं होतीं। रचनात्मकता का तकाजा है कि वह पड़ताल करे कि मनुष्य–जीवन पर समय और परिस्थितियों के दबाव का क्या असर पड़ रहा है? मनुष्य–मनुष्य के बीच अविश्वास की खरोंचे गहरी क्यों हो रही हैं? अमीरी–गरीबी की खाई क्यों चौड़ी होती जा रही है?
डॉ. स्वाति तिवारी द्वारा संपादित लघुकथा संकलन काफी हद तक इन अपेक्षाओं पर खरा उतरता हे। उनका श्रम और संपादकीय दृष्टि पर पृष्ठ पर अंकित है। उभरती लेखिकाओं के लिए कृति दर्पण के समान है। एक उपयोगी संकलन संपादित–प्रकाशित कर संपादक ने लघुकथा के संवर्धन की दिशा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। वरिष्ठ साहित्यकारों की टिप्पणियाँ नई लेखिकाओं के लिए मार्ग–दर्शक सिद्ध होंगी। एक उपयोगी आयोजन के लिए स्वातिजी बधाई की पात्र हैं।

हथेलियों पर उकेरी कहानियाँ,संपादक–डॉ. स्वाति तिवारी, प्रकाशक–नीतिका प्रकाशन, ए-71,विवेक विहार, फेज़-2 , दिल्ली–110095
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