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दस्तावेज़- अरुण कुमार
बिन शीशों का चश्मा : यथार्थपरक लघुकथाएँ -अरुण कुमार

रामकुमार आत्रेय का नाम उन गिने–चुने लेखकों में लिया जाता है जो साहित्य की इस सबसे चर्चित समझी जाने वाली विधा लघुकथा पर निरन्तर गम्भीर कार्य कर रहे हैं। आत्रेय का ताजा एवं चौथा लघुकथा संग्रह ‘बिन शीशों का चश्मा ‘ पढ़कर अहसास होता हैकि कथाकार आत्रेय बात–बात में ही कथा ढूँढ़ लेता है। सारी कथाएँ पढ़ते हुए शिद्दत से महसूस होता है कि इहलोक की जिन आम–सी बातों पर हम लापरवाह नजरिया रखते हैं वही बातें आत्रेय की कथाओं में आते ही अहम हो जाती हैं।
संग्रह में ग्रामीण जीवन और खाप पंचायतों के दोहरे चरित्र को उजागर करती लघुकथाएँ अपनी विशिष्ट शैली की वजह से विशेष रूप से उल्लेखनीय बन पड़ी है । उदाहरणार्थ ‘और कौवा रो पड़ा’ शीर्षक लघुकथा में कौवा सरपंच एवं पंचों को शराब पिलाकर हंस की सुन्दर पत्नी हंसिनी को अपनी पत्नी तो बना लेता है किंतु जोर–जोर से रोने लगता है। जब उससे रोने का कारण पूछा जाता है तो वह कहता है कि जब आप जैसे पंचायत के सदस्य मर जाएँगे तो ऐसा फैसला कौन करेगा ! यह लघुकथा सीधी पंचायतों के अन्यायपूर्ण फैसलों पर चोट करती है। इसी प्रकार दूसरा जल्लाद लघुकथा में जब मर्द खाप सभा में प्रेमी जोड़े को कत्ल कर दिये जाने का फरमान जारी करके घर आता है, तो वह पत्नी एवं बच्चों के डर में अपने चेहरे को एक जल्लाद में परिवर्तित हुआ देखकर डर जाता है। यह लघुकथा भी ऑॅनर किलिंग जैसे मुद्दे पर दबंग पंचायतों का असली चेहरा सामने लाती है।
माँ की ममता एवं उसके दुख–दर्द एवं उसके प्यार को परिभाषित करती प्यार, आहट, गोद, माँ की परिभाषा, गुरदा, माँ का दर्द, भीख में दस दिन, दुख और दुख आदि लघुकथाएँ भी अपनी मार्मिकता की वजह से विशेषरूप से पढ़ने वाले का घ्यान अपनी ओर आकृष्ट करती हैं।
समाज में, व्यवस्था में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार पर से आवरण हटाती–एक करोड़ तिहत्तर लाख, पेट, लड़ाई, पिछला दरवाजा, नए निजाम, पर्स इत्यादि लघुकथाएँ भी पाठक को एक क्षण ठहरकर सोचने पर मजबूर कर देती हैं।
हथियार एवं बिन शीशों का चश्मा अपने गाँधीवादी दर्शन की वजह से संग्रह की श्रेष्ठ लघुकथाएँ है। हथियार लघुकथा में जहाँ तीन साथी अपनी–अपनी हिफाजत के लिए कोई न कोई हथियार खरीदने की योजना बना रहे हैं। वहाँ चौथे साथी की यह बात–‘जब तक मेरे पास कोई हथियार नहीं है ,तब तक मैं सुरक्षित हूँ’ – लघुकथा को अति महत्वपूर्ण बनाती है। बिन शीशों का चश्मा में तो स्वयं गाँधी जी बिन शीशों का चश्मा पहनना सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि गाँधी जी गाँधीवादी लोगों द्वारा उनके नाम पर किये जाने वाले नाटक को देखना नहीं चाहते।
पारिवारिक ताने–बाने पर, पिता–पुत्र सम्बन्धों पर तथा औरतों एवं लड़कियों की दशा–दुर्दशा पर भी संग्रह में कईं श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। मेहनतकश मजदूरों की भूख और उनकी दशा–दिशा को दर्शाती हुई मजबूरी, कीमती डिबिया तथा नियति शीर्षक लघुकथाएँ भी विषेष बन पड़ी हैं।
लेखक अपनी एक लघुकथा सम्पादक का पत्र के माध्यम से उन कथाकारों को भी एक सन्देश देता है जो भिखारियों पर बड़े चाव से लघुकथा लिखता है तथा आखिर में बड़े गर्व से पर्दाफाश करता है कि वह तो एक ठग मात्र था। सम्पादक का पत्र शीर्षक लघुकथा ऐसे लेखकों को (युवा एवं नये) स्पष्ट सन्देश देती है, प्रियवर, लेखक सिर्फ़ शब्दों से खेलने वाला एक चालाक एवं कजाक खिलाड़ी नहीं होता। वह समाज के प्रति उत्तरदायित्व से परिपूर्ण एक नागरिक होता है। उसे ऐसा होना ही चाहिए। बस इसीलिए मैं इस लघुकथा को प्रकाशित नहीं कर रहा हूँ।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं के माध्यम से लेखक ने वर्तमान समय की सामाजिक एवं सियासी सच्चाइयाँ उजागर की हैं। इन कथाओं में चिन्तन एवं दृष्टि तो मौजूद है ही सामाजिक सरोकार तथा समकालीन चिन्ताएं भी यथार्थपरक ढंग से मौजूद हैं। संग्रह की हर लघुकथा बेहद पठनीय चिन्तनीय एवं विश्वसनीय है। आशा की जा सकती है कि प्रबुद्ध पाठक ‘बिन शीशों का चश्मा’ संग्रह का स्वागत एवं उचित मूल्यांकन करेंगे।
बिन शीशों का चश्मा लेखक रामकुमार आत्रेय , प्रकाशक अंतिका प्रकाशन सी–56/यूजी एफ–4,शालीमार गार्दन , एक्सटेंशन-॥ , गाजियाबाद-201005; संस्करण:2012 , मूल्य:200 रुपये(सज़िल्द) , पृष्ठ: 96
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