लघुकथा के वर्तमान परिदृश्य से प्रतीत होता है कि यह अपनी विकास यात्रा पर उत्तरोत्तर अग्रसर है। गति धीमी होने का कारण पहले कि इसका आकार छोटा हैं पत्र–पत्रि़काओं के संपादकों को यह ‘फीलर’ की बजाए फिल्लर है। गद्यात्मक रूप होने के कारण यह कविता की तरह भी प्रस्तुत नहीं की जा सकती। चूँकि आकार छोटा है इसलिए कुछ रचनाकार इसके प्रस्तुतीकरण में मनमर्जी का प्रयोग भी कर रहे हैं। संभवत: यह कारण रहा हो कि वे मात्र लिखने के लिए लिख रहे हैं। विधा को या उसके मान को समक्ष रखकर नहीं लिखा जा रहा। यानी कि यह लेखन सायास बनकर रह गया है कि–इसमें क्या है, ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। चूँकि इसे ‘ कथा’ नाम से अभिहित किया गया है अतएव यह चूल्हे के पास सुनाई जा रही बोध कथा, हितोपदेश के बात स्पष्ट करने के प्रसंग और पौराणिक प्रेरक प्रसंगों को भी अपने में समेटने लगी।
खैर, लघुकथा हमारे समाज में मौखिक और लिखित रूप में लंबे समय से विद्यमान है। मानव–मन की परिणति मनोरंजन की रही है। वह थोड़े समय में यो बिना दिमाग हिलाए मनोरंजन चाहता है जो उसे दृश्य व श्रव्य विधाओं से प्राप्त होता है। पहले वह इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आयोजित धार्मिक गंथों के प्रवचन सुनने ओर कभी रात को आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में जाया करता था। सर्दियों की लंबी रातें काटने के लिए अँगीठी या चूल्हे के पास भी गप और कथा की प्रक्रिया चलती रहती थी। इन प्रसंगों में कालान्तर में शिक्षा के प्रसार से लिखित विधा ने कदम रखा। पाठक अब समय निकालकर वाचन करने लगा। इधर जो पत्र–पत्रिकाएँ अपनी सज–धज के साथ पाठ्य–सामग्री प्रस्तुत करने लगीं, उनमें लघुकथा कविता की तरह एक कोने में, किसी लंबी रचना के बीच बाक्स में स्थान प्राप्त करने लगी। पाठक ने पहले उसे ही पढ़ना आरम्भ किया मनोरंजन हुआ। लंबी रचना दूसरे पर्याप्त समय के लिए छूट गई। कविता भी उसकी दूसरी पसन्द बन गई ;क्योंकि उसमें उसे अपने मन की गहराई तक ले जाना था । इस प्रकार आज लघुकथा पठन-पाठन की प्रमुख और गम्भीर कथा विधा के रूप में उभरी है । जहाँ तक आलोचकों द्वारा इसे पूर्ण रूप से स्वीकार न करने का प्रश्न है, यह सम्भवत: उनकी एकांगी सोच का प्रतिफल है । और साथ में वे रचनाकार भी कारण हैं , जो इसे समय काटने माध्यम समझकर या प्रेरक प्रसंग मानकर ही रचनारत हैं। कोई भी विधा अपने आरंभ पर ही टिकी नहीं रहती, सामाजिक परिवर्तन उसे नई दिशा देते रहते हैं। कई बार तो रचना वर्तमान समय से आगे भी चल रही होती है और जब समय उस तक पहुँचता है ,तब याद आता है कि यह तो हम पहले पढ़ चुके है।
लघुकथा आज एक स्वतंत्र कथा–विधा के रूप में उभरकर सामन आई है ;परंतु उन्होंने तब लघुकथा–रचनाएँ प्रस्तुत कर दी थीं जब इस विधा का स्वतंत्र रूप नहीं था। यानी कहानी का प्लाट अपना स्वरूप,भाषा शैली स्वयं निर्धारित करता है। कथानक अपना विस्तार स्वयं निर्धारित करता है। संभवत: तभी उन्होंने अपनी एक लंबी कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ के अंतिम अंश को अलग कथा ‘बाँसुरी’ के रूप में स्वीकार कर प्रकाशित करवाया।
इन कथा रचनाओं से गुजरते हुए तथा वर्तमान लघुकथा के आधार पर खरी उतरती हैं उनमें बाँसुरी,बीमार बहिन,राष्ट्र का सेवक, बंद दरवाज़ा, बाबाजी का भोग हैं। इनमें दरवाज़ा कहानी को भी शामिल किया जा सकता है ;परंतु वह एक निश्चित समय का अथवा बीते समय का जिक्र नहीं है। उसमें संवेदना की प्रचुरता है। वह समय का प्रहरी है तथा हर समय भीतर और बाहर के संसार से परिचित है। प्रेमचंद ने दरवाज़े की स्थिति और पीड़ा का अच्छा वर्णन किया है। यह कहानी लंबी नहीं हो सकती ;क्योंकि जितना आवश्यक था उतने में ही दरवाजे की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। लघुकथा में जो कौतूहल, प्रभावान्विति अथवा मनोवैज्ञानिकता परिलक्षित होती है वह ‘दरवाज़ा’ में नहीं है। पाठोपरान्त इतना ही लगता है कि हाँ ऐसा तो है। और प्रभाव समाप्त।
‘बाँसुरी’ का कलेवर छोटा है। उदास मन को कोई ऐसा संगीत उल्लासमय बना देता है जो स्वरबद्ध और पात्र की समझ का हो। ऐसे ही संगीत का जिक्र प्रेमचंद ने ‘बाँसुरी’ कहानी में किया है। यह कहानी लघुकथा विधा पर फिट तो होती है परंतु एक खटक भी पैदा करती है कि कहीं कुछ शेष रह गया है। संभवत: यह पाठक के मनन के लिए हो।
‘बीमार बहिन’ में प्रेमचंद बाल–मानसिकता को प्रकट करते हैं। स्कूल जाते बच्चे की जितनी समझ है ,उसे प्रकट किया गया है। अपनी प्यारी बहन के लिए वह भी कुछ करना चाहता है, करता है। माँ–बाप, भगवान से उसे ठीक करने की प्रार्थना करते हैं तो वह मंदिर में ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसकी बहन को जल्द ठीक कर दे। एक क्रम प्रवाह और स्थिति कहानी को पूर्ण करती जाती है।
यहाँ यह जोड़ना आवश्यक होगा कि लघुकथा में जो वर्णन हम कर रहे हैं ,वह बेशक किसी बीते समय का है ;परंतु प्रस्तुति का समय होना चाहिए। यानी वह क्षण पकड़ा जाए जो उसे इधर–उधर न होने दे। जैसा कि ओशो कहते हैं कि ईश्वर को प्राप्त करने लिए उस सूक्ष्म क्षेत्र को पकड़ा जाए; जो अनुभूत कराता है कि ईश्वर तीन लोकों में दिख गया, कि यह रहा ईश्वर।
‘राष्ट्र का सेवक’ अपनी प्रभावान्विति में एक बेजोड़ रचना है। यह उस समय की कहानी है जब गाँधी जी जातिविहीन समाज की कामना करनेलगे थे। वह समय ऐसे आदर्शों का था जो दूसरे को दिखाने में अच्छे लगते थे। यहाँ यह कहा जा सकता है कि गीता के प्रवचन सुनाने में अच्छे लगते हैं। वे परपीड़ीहारी लगते हैं; परंतु जब स्वयं पर गुजरती है तो बहुत पीड़ा होती है। ‘राष्ट्र का सेवक’ उस समय के दलित के साथ बराबरी के बर्ताव की बात करने के साथ उसे मंदिर में ले जाता है। उसकी सब जगह जय–जयकार होती है; परंतु जब उसकी अपनी बेटी उस लड़के से शादी की बात करती है तो ‘राष्ट्र का सेवक’ चुप होकर रह जाता है।
‘बंद दरवाजा’ बाल–मानसिकता की कहानी है। शिशु की प्राथमिकताएँ समय–समय पर कैसे बदलती हैं ,यह प्रेमचंद का वर्ण्य विषय है। इसके माध्यम से हम जीवन बड़े फ़लक को भी देख सकते हैं। जीवन में भी हमारे सरोकार उसी प्रकार बदलते हैं। इस कहानी में बच्चा पहले चिडि़या की ओर लालायित होता है, मगर जब वह उड़ जाती है ,तो उसका मन टूट जाता है। वह फिर अपनी देख–रेख वाले से या माँ से फरियाद करता है। उसे नया प्रलोभन दिया जाता है। उसे चिड़िया के बाद खोंचे वाले की आवाज सुनाई देती है वह उस ओर बढ़ता है परंतु वह आवाज भी विलुप्त हो जाती है–वह रोता है। फिर माँ से फरियाद। और अतत: उसे जब फांउटेनपेन दिया जाता है तो वह चहक उठता है। इस बीच हवा से एकाएक दरवाज़ा बंद हो जाता है। बंद दरवाज़े का आभास और आवाज उसे चौंकाते हैं और भीतर एक डर पैदा करते हैं। वह पेन छोड़कर रोने लगता है। वह मनुष्य की हार का भी संकेत है।
प्रेमचंद ने बाल–मानसिकता का मनोवैज्ञानिक बेहतरीन वर्णन किया है। साथ में यहाँ यह भी कहना समीचीन होगा कि उन्होंने समाज के इस छोटे और किनारे वाले वर्ग को अपना वर्ण्य–विषय बनाया। आज की लघुकथाओं में आगे ऐसा होगा, ऐसा सोचा जा सकता है।
‘बाबाजी का भोग’ भी लघुकथा के पैरामीटर पर खरी उतरती है। कथानक में गहनता है तथा समाज में व्याप्त रूढि़यों और पाखंड पर पूर्ण प्रहार है। भगवे वस्त्र धारक या इसी पंक्ति के लोग किस प्रकार गरीब लोगों का शोषण अपनी बात मनवाकर करते हैं, यह इस कहानी में बखूबी देखा जा सकता है।
जो लघु आकार की रचना होकर भी लघुकथा विधा में नहीं आ सकतीं उन कथा रचनाओं को इस प्रकार रखा जा सकता है–देवी,दरवाज़ा,कश्मीरी सेब, दूसरी शादी,ग़मी, गुरुमंत्र, यह भी नशा वह भी नशा, शादी की वजह और ठाकुर का कुआँ। इनमें देवी, कश्मीरी सेब, गमी, कहानी विधा की बजाए व्यंग्य की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। बल्कि ये गढ़ी गई–सी कहानियाँ हैं। प्रेमचंद को उस समय एक खयाल आया होगा कि मुफ्त में मिली चीज का मानव के लिए क्या मूल्य है ;सो उन्होंने तीन पात्र गढ़े और ‘देवी’ लिख दी। यहाँ एक स्त्री का पार्क में रात को बैठना और विपन्न होकर दस का नोट भिखारी को देना कुछ उचित नहीं लगा। उस मसय दस रुपये का बहुत महत्त्व था; और यह भी कि राह में जो मिला वह अपना। हमारे यहाँ कहावत है–‘बाटा मिलेया बाबे रा खाटेया।’ यह यदि आज होता तो माना जा सकता कि कहीं कागज में कोई बम न हो।
‘कश्मीरी सेब’ तो सब्जी मंडी में हुई ठगी की गप है। ‘ग़मी’ में भी एक ऐसे विषय को लिया गया है जो ग्राह्य नहीं होता। यहाँ एक ऐसी ‘ग़मी’ एक ऐसा शब्द है जो श्रोता को परेशान कर देता है। परंतु इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने एक संदेश दिया कि अधिक संतान आदमी को अपाहिज कर देती है। आदमी का मौज मनाने का समय छिन सकता है।
‘यह भी नशा, वह भी नशा’ कहानी भी एक घटना को ही प्रकट करती है। इसमें आदमी की छोटी–बड़ी सोच को प्रकट किया गया है। दोनों घटनाएँ कथा–समय में अलग–अलग हैं, चिंताएँ भी उसी रूप में समीकरण के प्रश्न की तरह है। यह कहानी भी ‘कश्मीरी सेब’ की तरह एक समाचार स्टोरी के मानिंद हो गई। कहीं यह अकबर–बीरबल विनोद की तरह भी लगती है जबकि लघुकथा एक निश्चित स्थिति और समय को प्रकट कर कहीं मन के भीतर जाकर एक टंकार प्रकट करती है।
लघुकथा को अपने आकार के साथ समाचार और चुटकुले से बचना होगा। हास्य यदि हो भी तो वैसा, जो साथ में पाठक की सोच को बढ़ाए, सिर्फ़ हवा के झौके की तरह न निकल पाए। कहानी का समाचार होना कहानी की स्थिति को अथवा घटना को बयान कर क्षणिक संवेदना को जन्म देना होता है। उसमें वे विवरण नहीं होते जो कहानी में पाठक को अपने साथ प्रवाहित करते रहते हैं या जिनसे वह जुड़ाव महसूस करता है।
‘गुरुमंत्र’ और ‘शादी की वजह’ समाज के अलग पहलू हैं। इन्हें लघुकथा के सांचे में रखना उचित नहीं होगा। कारण यह कि इन कथाओं को एक समय में विनोदात्मक वर्णन हेतु कहा गया है। समाज में प्रतिदिन कितना कुछ होता रहता है, सारा कुछ कहानी या लघुकथा नहीं बन पाता। कुछ हुआ, कहा और चला गया। न कोई टीस न संवेद्ना और न बहस।
‘ठाकुर का कुआँ’ प्रेमचंद की चर्चित कहानी है। इसमें लघुकथा के गुण विद्यमान हैं परंतु यहाँ आकार और तत्संबंधी संवेदना कथा को बड़ी कहानी बना देता हैं। मगर यह लघुकथा और कहानी के बीच एक पैंडुलम की मानिन्द है।
‘दूसरी शादी’ में एक लंबा फलक है। इस प्रकार यह आकार में बेशक छोटी है परंतु वर्णन का समय और स्थिति में व्यापकता है।
लघुकथा आज एक अलग विधा के रूप में सामने आई है। इसका साँचा बनता जा रहा है। अपने आकार की वजह से यह अभी भी संपादकों के लिए फिलर की ही पर्याय बनी है। यत्र–तत्र कुछ पत्रिकाएँ इस अलग भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इधर कुछ रचनाकार जीवन के प्रेरक प्रसंगों को भी लघुकथा के आकार के दृष्टिगत इसकी श्रेणी में रखने लगे हैं जो अनुचित है तथा विधा के प्रति उनकी अनभिज्ञता का प्रमाण है। रचनाकारों को स्वयं अपने कर्म को परखकर मात्र लिखने के लिए ही नहीं करना चाहिए ;बल्कि पूरी संलग्नता के साथ जुड़ाव महसूस कर कहानी, लंबी कहानी के अनुरूप संवेदना को थोड़े से शब्दों में गहनता के साथ प्रस्तुत कर पाठक की भावना को अपने रचनाकर्म के साथ जोड़ना चाहिए।
यहाँ रचनाकारों को यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि साहित्य–समाज का एक ऐसा वर्ग भी है जो उनके कर्म को एक कसौटी या छुरी–चाकू पैना करने वाले की ‘साण’ पर भी परखता है। यह रचना की कमजोरी ही है जो उसे उद्वेलित नहीं कर पा रही और आलोचक उसे पढ़ते–सुनते ही मुँह बनाकर रह जाता है।
प्रेमचंद की इन रचनाओं को लघुकथा की पाठकीय कसौटी पर ही देखा गया है। जहाँ तक व्यक्तिगत सोच का सवाल है मुझे यह विधा काफी कठिन कर्म लगती है।
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