‘संरचना’ के माध्यम से हम लघुकथा के क्षेत्र में अपनी सशक्त पहचान बना चुके रचनाकारों के विचारों से भी अवगत होते हैं। कमल चोपड़ा के शब्दों में लघुकथा अपनी व्यंजकता सघनता संक्षिप्तता, सहजता, लक्ष्यभेदी और मर्मस्पर्शी प्रभाव से अपनी असीमित क्षमता का अहसास करा रही है। भगीरथ के अनुसार भूमंडलीकरण ने जीवन शैली और जीवनमूल्यों में भारी बदलाव किया है , जिसका सीधा असर साहित्य में भी देखने को मिल रहा है। पुरुषोंत्तम दुबे के विचारों में लघुकथा लेखक को व्यक्ति और परिवेश के साथ–साथ भाषा शैली का ध्यान रखना चाहिए। सिद्धेश्वर कश्यप के चिंतन में लघुकथाएँ सामाजिक सरोकारों से आबद्ध होने के साथ–साथ यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ लघुकथा की भाषा पर विचार करते हुए कहते हैं कि किसी भी अच्छी कथा की मूल शक्ति है– उसकी संप्रेषण शक्ति। उसे यह शक्ति भाषा की त्वरा से मिलती है। जिससे पात्र का कथन पूरी कथा का संवाहक बन जाता है। लघुकथा में भाषा की सटीकता किसी अन्य विधा से ज्यादा आवश्यक है। माधव नागदा लघुकथाओं में प्रेम का भाव ढूँढ़ने पर कहते हैं लघुकथाओं में प्रेमविषयक कथाएँ कम लिखी गई है। संख्या में कम सही पर कतिपय महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ लिखी गई हैं। अब्ज के शब्दों में लघुकथा में जीवन की विसंगतियों का मार्मिक चित्रण होता है। अंत में सतीश दुबे के विचारों में लघुकथा ने साहित्य में अपना एक स्थान बना लिया है पर लघुकथा को सर्वोच्च स्थान बिठाने के लिए तटस्थ समीक्षकों की आवश्यकता है ,जो लघुकथा के सम्मान में चार चाँद लगा सकें। इन विभिन्न विद्वानों के माध्यम से हम लघुकथा की विशेषताओं को जानने के साथ–साथ उसको साहित्य की अन्य विधाओं के साथ प्रतिष्ठित करने की उनकी चिंता से रूबरू होते हैं।
हिन्दी लघुकथा अपने नए रूप व नये प्रश्नों की ओर संकेत करने के कारण जनमानस में एक सशक्त पहचान बना चुकी है। हिन्दी लघुकथा का एक स्वतन्त्र वजूद कायम हो चुका है। थोड़ें में बहुत कुछ कहना और अपने कथ्य से पाठक मन को देर तक उद्वेलित करने का पैनापन लघुकथा की खासियत बन चुकी है इन्हीं सब विशेषताओं से परिपूर्ण कमल चोपड़ा संपादित ‘संरचना’।, विविध विषयों पर उद्वेलित करने वाली रचनाओं का संग्रह है।
कमल चोपड़ा की ‘उलटा आप’ मज़हबी संकीर्णताओं में बिंधे मानवमन की कमजोरियों का बखान करती है साथ ही ‘फुहार’ में साम्प्रदायिकता किस प्रकार छोटे–छोटे मुद्दों को कैसे तूल देकर फिज़ा बिगाड़ने की कोशिश की जाती है, का सटीक वर्णन किया है। कृष्ण कुमार यादव की ‘एनजीओ’ सरकारी अधिकारियों की हमेशा कुर्सी व ‘पावर’ में बने रहने की इच्छा को दर्शाती है। केसरा राम की ‘यादगार घटना’ हमारे समाज की त्रासदी को दर्शाती है जहाँ निम्न श्रेणी के व्यक्ति उच्च श्रेणी के व्यक्तियों को कार्य करने के लिए छाँट रहे हें।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला ‘कटी नाक’ पूरन सिंह की ‘सुराही’ रामयतन यादव की ‘मुर्दा और अछूत’, सुरेन्द्र कुमार जाटव की ‘शूद्रघाट’ व हरभगवान चावला की ‘फाँस’ हमारे देश की जातिवाद की समस्या का घिनौना रूप हमारे सामने रखते हुए हमारे आधुनिक होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। गौतम सिंह की ‘बीच का रास्ता’, अखिल रायजादा की ‘पहला संगीत’ प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘माँ ने कहा है’, व सुधा ओम ढींगरा की ‘बेखबर’ अगल–अलग परिवेश में पले बालमनों की विभिन्न भावभंगिमाओं की झाँकी प्रस्तुत करने के साथ–साथ हमारे हृदय को कई बिन्दुओं पर द्रवित करती हुई अपनी सार्थकता सिद्ध करती है।
दीपक मशाल ‘हितैषी’ और दीप्ति की ‘इंसान और भगवान’ एस एन सिंह की ‘अभ्यास’, के पी सकसेना दूसरे की ‘नासमझ’ मानव मन की स्वार्थवृत्तियों को दर्शाने का सार्थक प्रयास है जहाँ मानव केवल लाभ साधने में अपना हित समझता है नैतिक मूल्य उसके लिए कोई मायने नहीं रखते।
चन्द्रभूषण सिंह ‘पढ़ी–अनपढ़ी’ अपने कथ्य को पूर्णत: स्पष्ट करने में नाकाम मालूम पड़ती है जबकि उन्हीं की ‘उसके बाद’ लघुकथा अपने कसे हुए कथ्य से संदेश देते हुए मानव मन को सोचने पर मजबूर करती है कि गलत बातों को बढ़ावा देना हमारा स्वयं का नुकसान है। जसविन्दर शर्मा की ‘क्षतिपूर्ति’ मित्रता को भी लाभ हानि के तराजू में तौलने वाली कथा है। जाफर की ‘थोड़ी सी हिम्मत’ शिक्षा के सकारात्मक प्रभाव के साथ स्त्रियों की बदलती सोच की परिचायक है। तारिक असलम ‘कमाई के रास्ते’ बाजार के हर वस्तु को सुलभ बनाने के बादे और युवा वर्ग के हर सौदे में लाभ देखने की स्थिति का वर्णन करती है। नरेन्द्र कुमार गौड़ ‘अहसास’ मन में संयुक्त परिवार व एकल परिवारों की तुलना का अहसास पैदा करती है। ‘परिणति’ वृद्धावस्था की लाचारी, खोज को दर्शाती हैं प्रद्युम्न भल्ला ‘पुरस्कार’ मानव मन के उतार–चढ़ाव वाली अवस्था को दर्शाती है ,जहाँ वह क्या ठीक है क्या नहीं का फैसला नहीं ले पाता। ‘इनाम का हक़दार’ बचपन के उस वाक्य को याद दिला जाता है कि ईमानदारी से किया कार्य कभी खाली नहीं जाता बल्कि मीठा फल ही देता है। फजल ‘पाबन्दी’ पुरुष वर्ग की संकीर्ण मानसिकता के साथ–साथ स्त्रियों की बदलती सोच को दर्शाती है। बलराम अग्रवाल ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ बाल मन के स्वछन्द आचरण और वयस्कों के उन्हें मशीन माने जाने का सुंदर व रोचक वर्णन है। ‘पिंजरे के पंछी’ की बालमन की स्वाभाविकता को दर्शाती है जिसे हमने भारी बस्तों में दफन कर दिया है। महेश शर्मा ‘सॉरी, डियर चे!’ युवावर्ग के प्रेरणादायक पुरुषों के प्रतिसोच केा दर्शाती है जो उनके सकारात्मक कार्यों से अनमिज्ञ है। माधव नागदा ‘परिवार की लाड़ली’ स्त्रियों के तन और मन को परिवार व समाज के नियमों से कैसे जकड़ कर रखा गया है कि उन्हें अंत में ये बंधन बोझ ही लगने लगते हैं। माला वर्मा की ‘रिटायरमेंट’ और ‘नेमप्लेट’ दोनों ही वृद्धावस्था में वृद्धों की जरूरत न होने के सोच को दर्शाती है। मोहम्मद साजिद खान ‘बकरियाँ’ स्त्रीशक्ति को बकरी से तुलना कराते हुए प्रतीत होते हैं कि यदि यह वर्ग अपनी शक्ति को पहचान ले तो वह बाहरी बाघ रूपी संकट के साथ–साथ परिवारिक रिश्ते (मालिक) की उनके जीवन में क्या जरूरत है , इस पर भी निर्णय कर सकती है। युगल ‘गुमशुदा’ परिस्थितियों से भागने वाले वृद्ध की कथा है जो पुत्र की जिद के आगे घुटने नहीं मोड़ना चाहता तो उसके लिए वह घर छोड़ कर चला जाता है ताकि उसे समस्या का सामना न करना पड़े। गुमशुदा के स्थान पर सामना शीर्षक सटीक हो सकता था। रचना ‘आहट’ पिता के उस दर्द से सामना कराता है जो अनजाने ही अपनी बेटी के एक आँख खोने का कारण बन जाता है। रजनीश खरे ‘सब चलता है’ हमारे युवावर्ग की सच, झूठ सही, गलत सबको अपने लाभ के लिए प्रयोग करने की प्रवृत्ति को दर्शाती है। राकेश भ्रमर की ‘भुक्खड़’ रिश्वतखोर वर्ग और गरीब दोनों के अंतर को दर्शाती है। राजेन्द मोहन ‘नाटक’ दर्शाती है समाज में कभी–कभी सही व्यक्ति को भी हम स्वार्थी व्यक्तियों के कारण सहायता देने में चूक जाते है। राजेन्द्र साहिल ‘क्रियाकर्म का खर्च’ आज के युग में पुत्रों के स्वार्थ सिद्धि की तत्परता को बयान करती है। राधेश्याम भारतीय की ‘गिद्ध’ का कथानक नया न होते हुए भी कटड़ी और बेटी की तुलना उद्वेलित कर जाती है। ‘मुसीबत’ बुज़ुर्गों की उस स्थिति को दर्शाती है जहाँ उन्हें मुसीबत के अलावा कुछ भी नहीं समझा जाता है। रामेश्वर काम्बोज ‘नवजन्मा’ बेटियों के प्रति सकारात्मक सोच को दर्शाती है। रूप देवगुण की ‘उनकी आँखों के सामने’ बच्चों को सही रास्ते पर चलाने के लिए हमें स्वयं सही रास्ते पर चलना होगा, सिखाती है। शंकर पुणतांबेकर की ‘मरियल और मांसल’ का प्रश्न भूख और सत्य के अनसुलझे प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश लगता है। श्याम सुन्दर अग्रवाल ‘बेड़ियाँ’ प्रेम के उस रूप को व्यक्त करता है जो मूक होते हुए भी शाश्वत है। सतीश दुबे ‘कत्ल’ में मानव- मन के दोगलेपन को दर्शाते हैं कि मानव मन मृतक व्यक्ति के भी गुण और दोषों का बखान करने में तनिक संकोच भी नहीं करता। सीमा स्मृति ‘प्रश्न’ मन में विकलांगो व हिजड़ों के प्रति दया के प्रश्न को नए सिरे से उठाती है। तो वहीं ‘दहेज प्रथा’ स्त्रियों के दहेज के प्रति नई सोच को दर्शाती हैं सुकेश साहनी ‘वायरस’ के माध्यम से कहते हैं कि माता–पिता जब बच्चों को कठोर अनुशासन में बाँधते है तो उन्हें खुद भी इसका पालन करना होता है ;लेकिन बच्चों के साथ–साथ बड़ों के लिए भी इसका पालन करना कठिन होता है, ।सुमन कुमार घई ‘विवशता’ भूख की तड़प का अच्छा उदाहरण है। सूर्यकांत नागर ‘केसर की छोरी का दसेरा’ अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई का उदाहरण पेश करती है। हसमुख रामदेपुत्रा ‘कमाऊ बेटे’ बुज़ुर्गों को वृद्धावस्था में अपनी संपत्ति को पुत्र समान मानना चाहिए, की सीख देती है।
इस प्रकार ‘संरचना’ के इस अंक में विविध विषयों की लघुकथाएँ मन को उद्वेलित करते हुए विविध प्रश्न मन में उठाती है। इन लघुकथाओं में आधुनिक जीवन–मूल्यों, भौतिकता, देहवाद, बाजारवाद और उपभोक्तावाद के साथ–साथ नैतिक वर्जनाओं व नारी दलित विमर्श को नए आयाम दिए हैं। ये लघुकथाएँ पाठकों को चिन्तन करने पर मजबूर करती हैं। लघुकथा को पढ़कर पाठक सोचने पर मजबूर हो जाए यही लघुकथा की सफलता है। कमल चोपड़ा संपादित ‘संरचना–4’ की अधिकतर लघुकथाएँ पाठक वर्ग को चिन्तन करने पर मजबूर कर हृदय में प्रश्न उठाती है। ‘संरचना’ अपने लक्ष्य को पूरा करने में सफल होने के साथ–साथ नये क्षितिज की ओर अग्रसर है।
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