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दस्तावेज़- डा• रामकुमार घोटड़
डा• सतीश दुबे का लघुकथा सफर नामा : बूँद से समुद्र तक
डा• रामकुमार घोटड़

वर्तमान में लघुकथा एक निर्विवाद विकसित विधा है। लघुकथा को इस मुकाम तक पहुचाने में राष्ट्रीय स्तर के गिने -चुने लघुकथा पुरोधाओ का योगदान रहा है ,जिनमें से डा सतीश दुबे एक है। डा• दुबे पाँच दशकों से लेखन में रत है। इन्होनें अपनी प्रथम लघुकथा ‘ड्रेस का महत्त्व’ (1964) में लिखी इन पाँच दशकों में दुबे जी ने अढ़ाई सैकड़ा के आसपास लघुकथाएँ तथा लगभग अढ़ाई दर्जन लघुकथा के रचनात्मक पहलू पर आलेख लिखे है और साक्षात्कार दिए है । यह लेखन उनका लघुकथा के प्रति समर्पण भाव दर्शाता है।
‘सिसकता उजास (1974) डा• सतीश दुबे का ही नहीं बल्कि आधुनिक हिन्दी लघुकथा का प्रथम लघुकथा संग्रह है। इसके बाद भीड़ में खोया आदमी (1990) राजा भी लाचार है (1994), प्रेक्षागृह (1998), समकालीन सौ लघुकथाएँ (2007)जैसी बेहतरीन लघुकथाओं के एकल संग्रह तथा प्रतिनिधि लघुकथाएँ (1976), आठवें दशक की लघुकथाएँ (1979) लघुकथा संकलन दिये है ।इनके लघुकथा साहित्य देवी अहल्या बाई विश्व विद्यालय इन्दौर से शैलजा श्रीवास्तव (1999), सीमा वर्मा (2000) तथा विक्रम वि. वि. उज्जैन से मंजरी तिवारी तथा प्रेम नारायण फागना ने शोध उपाधियाँ अर्जित की है ।
डा• दुबे का लेखन संसार इतना विशाल है कि इन्हें लगभग दो दर्जन साहित्यिक पुरस्कारों से विभिन्न संस्थाओं द्वारा नवाज़ा गया है। समीक्ष्य कृति ‘बूँद से समुद्र तक’ 2011 में प्रकाशित डा• सतीश दुबे का नवीनतम लघुकथा संग्रह है। इस पुस्तक में चार अध्याय है। प्रत्येक खण्ड अपने आप में अलग महत्त्व लिये हुए है। अगर इस संग्रह को ‘डा• सतीश दुबे का लघुकथा संसार रचनावली कह दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
पुस्तक के प्रथम भाग में सतीश दुबे की एक सौ चार समकालीन लघुकथाएँ है जिसमें अधिकतर लघुकथाएँ प्रतीकात्मक है। यानी कि प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है। मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली में दुबे जी को जो कमियाँ नजर आई, उन कमियों को प्रतीकात्मक शैली में हमारे सामने रखा है, जिसमें मनुष्य नंगा भी न हो और उनकी करतूतों को भी नजर अन्दाज नहीं किया जा सके। परोक्ष रूप से आधुनिक मानव जाति पर लांछन भी न लगे और अपरोक्ष रूप से उसकी कारगुजारियों को दपर्ण के समक्ष रखा जा सके । ऐसी प्रतीकों के माध्यम से रची गई चुनौती, गुनाहगार, पहचान, चण्डरव, प्रेमब्लाग, प्रवृत्ति, धुँधला दर्पण, मुर्गे, पुनर्जन्म, सहारा, दुआ, जंगल जनतंत्र, दहन, अगला पड़ाव, तथा पेड़ों की हँसी जैसी असंख्य मानवेतर लघुकथाएँ जो पाठक को कुछ सोचने को मजबूर करती है।
डा• दुबे ने पाठको को राजनैतिक लघुकथाएँ भी दी है, जिसमे यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि एक नेता आम जनता का प्रतिनिधि है लेकिन वो राजनेता बनने पर, परिवारवाद, स्वार्थपरता व ‘कुर्सी’ सलामत’ रहे के लिए इतने निम्न स्तर तक गिर सकता है कि एक साधारण इन्सान कल्पना भी नही कर सकता । उदाहरण के तौर पर स्वागत–सामग्री, मूर्ति, आम के खास, अन्तिम प्रतियोगी, तप्त सूरज की ठण्डी उष्मा, खबर का असर, मुद्दा–ए–बहस, टेकचन्द उवाच जैसी लघुकथाए इस श्रेणी मे रखी जा सकती है।
दुबेजी ने विभिन्न सामाजिक परिवेश को भी नजदीक से देखा है ।उन्होनें अनुभवी दृष्टि से वर्तमान के सामाजिक माहौल का मूल्यांकन करते हुए सकारात्मक तथा नकारात्मक पहलू पर भी अपनी कलम चलाई है। सानिध्य सुख–सुकून, ऊर्जा की सौगात, प्रमुख अतिथि, खैल वाली माँ, अंजलि, पृथ्वीपुत्र, पैरवी, प्रेरक बोध प्रसंग, हक, मन्दिर, प्रेरणा आदि सामाजिक सरोकार की लघुकथाएँ है।
डा0 सतीश दुबे ने धर्म की आड़ में पनप रहे गोरखधन्धे को भी जनता के सामने रखने की कोशिश है। भगवान देवी देवताओं के प्रति श्रद्धा रखना अच्छे संस्कार है परन्तु अन्धभक्त होकर अपने कर्तव्य को भूल कर धर्म के पिट्ठुओं के लिए अपना सब कुछ स्वाह कर देना कहाँ तक उचित है। इसी धर्मान्धता के प्रति जागरूकता का ऐलान कत्ल , पक्का मजहबी, नाजुक मामला, क्षरण समाधान, प्रतियोगी, सामान सोच जैसी लघुकथाओं के द्वारा किया है।
आज के साहित्य में दलित विमर्श व स्त्री विमर्श छाए हुए है। हर लेखक इन विमर्शो पर अपनी लेखनी चलाकर अपने आपको आधुनिक साहित्य के साथ जोड़ना चाहता है, दुबेजी भी पेशे की जात, हरि इच्छा बलवान जैसी दलित जीवन शैली की तथा प्रपोज, एक्शन का रियक्शन, पुकार साया आदि लघुकथाएँ देकर उनकी जीवन शैली को उजागर करने कोशिश की है।
मूल्यांकन की दृष्टि से देखा जाए तो डा• दुबे की प्रतीकात्मक लघुकथाओं के बाद मानवीय मूल्य की लघुकथाएँ आती है ये लघुकथाएँ पाठक के अन्त:करण तक पहुँचती है। जब दुबे जी मानवीय मूल्यपरक रचनाएँ लिखते है ,तो वे अपने लेखन की उत्कृष्ट ऊँचाई पर होते है ।मानवीय संवेदना व्यक्त करती सकारात्मक सोच की ये लघुकथाएँ शहर के बीच मौत, रत्नपारखी, नन्ही समझ, माँ का चुग्गा–पानी, सुहाग के निशान, देश का बचपन, नदी नदी है, अर्जुन ने कहा, लघुकथा साहित्य की धरोहर है।
आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने भारत की नई पीढी को क्या दिया शिक्षा प्रतिफल लेखा–जोखा प्रस्तुत करती–गुरुदक्षिणा, भोथरे हथियार, अपहरण, लॉस्ट लेसन, इच्छाओं का प्रतिबिम्ब तथा खुशनुमा सुबह लघुकथाओं में शिक्षा जगत का प्रतिबिम्ब झलकता है।
मानव के भागमदौड़ एवं व्यस्तता भरी जिन्दगी में रिश्ते नाते गौण हो गए, अपनी महत्वाकांक्षा, स्वार्थ लोलुपता तथा आगे बढ़ने की होड़ में रिश्ते नाते बिखरने लगे है ।ऐसे रिश्तों व पारिवारिक सम्बन्धों का बखान करती रिश्ते, नेहबन्ध, फर्ज, थके पावों का सफर, शीतल बयार, मेरे पापा, सजगता, अन्तर्द्वन्द्व, उनकी याद में, दिल का दायरा, तक्षक, गुलाब क्यारी में कैक्टस, भ्रम, गंगाजल, आँखों की जुबान, अपना–अपना भगवान, प्रवासी पंछी, तथा पराया जैसी लघुकथाएँ भी इस संग्रह में है।
सरकारी कार्यालय तो आम जन की नजरों में भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए जरूरतमन्द का कार्य निपटाने की बजाय एक परेशानी भरा माहौल बनाने की मानसिकता लिये बैठे कर्मचारी भूल गए कि हम प्रजा के लिए नौकर है ।ऐसी कार्यालय -परम्पराओं से नकाब हटाकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल बजाने वाली लघुकथाएँ दी है । डा• सतीश दुबे ने वे माँ का धर्म, स्वागत, आज का सवाल, बदलाव, साइबर– साहित्य, पेशी, विस्थापित, वीणावादिनी, क्षितिज–अस्ताचल की एक शाम, भीड़ में भेट तथा दस्तूर जैसी लघुकथाएँ है, जो रचनात्मक कौशलता के कारण बेहतरीन लघुकथाएँ है।
‘बून्द से समुन्द्र तक’ के भाग दो में प्रशंसनीय एवं पठनीय लघुकथाएँ संगृहीत है ।ये सभी लघुकथाएँ उनके लघुकथा संग्रह सिसकता उज्जास से ली गई है। सन् 1974 में प्रकाशित सिसकता उज्जास डा• सतीश दुबे का ही नहीं ,आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य की प्रथम एकल लघुकथा संग्रह है। जिसमें चौतीस लघुकथाओं में से सिर्फ़ अठारह ही इस पुस्तक में प्रकाशित की है। इस भाग की प्रथम लघुकथा भीड़ शीर्षक से है इस लघुकथा में संवेदना हीन जनसमूह की मानसिकता को उजागर किया है। एक्सिडेण्ट में ऊँट–गाड़ी टूट जाने पर भीड़ मे से कोई भी शख्स ऊँट– गाड़ी के मालिक के पास जाकर सहानुभूतिपूर्वक दो शब्द बोलकर उसकी धीरज न्हीं बँधाता बल्कि भीड़ गवाही, पेशी जैसे लफड़े से पिण्ड छुड़ाने की सोच से इधर–उधर बिखर जाती है। यानी कि मनुष्य की संवेदनहीनता पर चोट करती एक श्रेष्ठ लघुकथा।
अन्तिम संस्कार एक गरीब मजबूर इन्सान की लघुकथा है विण्डम्बना देखिए। इस गरीब की माँ मर गई ।पैसे के अभाव में मरणोपरान्त माँ का क्रिया कर्म करना मुश्किल हो गया मजबूरी मेंउसने मृत माँ के चाँदी के कड़े निकालकर पैसों का जुगाड़ करना मुनासिब समझ़ा। यह गरीबी का स्केच है जो दिल में गहराई तक उतर जाता है। इसी कथानक पर आधारित चक्र, बजट, समाजवाद, धूं–धू–हूं–हूं तथा स्टेच्यु जैसी लघुकथाएँ भी इस पुसतक में है जो गरीबी जीवन की झाकियाँ दिखलाती है।
कुछ लघुकथाएँ जैसे क्यों, श्वेत युद्ध आदि रचनाएँ मानव की कथनी -करनी में अन्तर दर्शाती, विश्वसनीयता भरा जीवन जीने की और इशारा करती है।
‘एक दिन’ शीर्षक लघुकथा वही पुरानी तर्ज पर आधारित कार्यालयों में पनपते भ्रष्टाचार की एक झाँकी प्रस्तुत करती है। इनके अलावा रिश्तो में गिरते मूल्य–अपने लोग, तथा स्त्री–विमर्श पर आधारित लघुकथाएँ इस भाग में भी है बतौर उदाहरण वह, जिन्दगी ज्ञानी दूसरी नारी, भूरी जैसी लघुकथाओं का नाम लिया जा सकता है।
‘सिसकता उजास’ लघुकथा संग्रह आधुनिक हिन्दी लघुकथा का आकाशीय स्तम्भ है जिसे छू पाना सम्भव नहीं हो पा रहा ।
भाग तीन में कुल मिलाकर बाहर लघुकथाएँ है। इस भाग के शुरूआत में स्वंय दुबे जी ने लिखा है लघुकथा प्रारूप को तराशती 1965–66 में प्रकाशित बारह रचनाएँ, अगर इस वाक्य को इस प्रकार से कह दिया जाये कि लघुकथा रूप को तलाशती 1965–66 में प्रकाशित ये रचनाएँ अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन लघुकथाओं में ज्यादातर भ्रष्टाचार विषयक लघुकथाएँ है। इससे ऐसा अहसास होता है, देश में भ्रष्टाचार के वे शुरूआती दिन थे। भ्रष्टाचार कार्यालयों मेंअपने पैर फैलाने शुरू ही किए थे तभी दुबे जी ने भ्रष्टाचार संदर्भ की लघुकथाएँ भ्रष्टाचार का बाप, सिद्धान्त डाका, फर्स्ट क्लास, लज्जा, देकर आम जनता में जागरूकता लाने की कोशिश की थी।
उस समय राजनीति भी सहयोगी भाव से हटकर स्वार्थ की डगर की ओर झाँकने लगी थी। ऐसा ही कुछ आभास दिया है दुबे जी ने अपनी ड्रेस का महत्त्व, चयन: एक मिनट में तरकीब जैसी लघुकथाओं के माध्यम से। यानी कि आजादी के दो दशक पूर्ण होने के पहले की सफेदपोश में भी दाग झलकने लगे थे।
इनके अलावा इस भाग में धर्मान्धता, धार्मिक कर्मकाण्ड व पण्डे पुजारियों की कारगुजारियाँ उधेड़बुन करती धर्मनिरपेक्षता, जवानी के जोश में नादानी में उठे कदमों का प्रतिफल, जीवन का सत्य उजागर करती आखिरी दाँव, तथा आधुनिक नारी के शृंगार, वेश–भूषा पर कटाक्ष करती–पोनी टेल जैसी प्रतीकात्मक लघुकथाएँ भी है। ये सभी अपने आप में बेजोड़ लघुकथाएँ है, पाँच दशक बीतने को है किर भी इन लघुकथाओं में आज का यथार्थ प्रतिबिम्बित होता है।
इस पुस्तक का चौथा भाग रचनात्मक खण्ड है, इसमें लघुकथाएँ न होकर गाड़ी सतीश दुबे के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित विभिन्न विद्वानों द्वारा रचित समालोचनात्मक आलेख संगृहीत है। गाड़ी दुबे के व्यक्तित्व पर लिखना हर एक के बस की बात नहीं। इन पर वही साहित्यकार अपनी कलम चला सकता है या तो वह इनके जीवन के आत्मीय क्षणों के साथ सन्निकट रहा हो या फिर वह जो इनके साहित्य का अध्ययन, मनन कर लिखने के लिए हिम्मत के साथ अपने आपको पूर्व में तैयार कर लिया हो फिर भी कुछ समकालीन सृजन धर्मियों ने अपने समझ, परख व मूल्याकित दृष्टि से सारग्रंभित सम्मिक्षात्मक सम्मतिया दी है , जो इनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती हैं।
बूँद से समुद्र तक लघुकथा संग्रह निश्चिततौर से लघुकथाओं रूपी बूँदों का समाहित समुद्र है इस समुद्र की बूँदे किसी को कड़वी लगेंगी और किसी को मीठी इनके रसास्वादन से साहित्यिक प्यासे साथियों की ज्ञान पिपासा को तृप्ति मिलेगी ही और साथ में जीवन शैली के सर्वागीण विकास के लिए ऊर्जावान स्त्रोत की तरह भी उपयोग होती रहेगी।
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