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दस्तावेज़- प्रदीप मोघे
सफरनामा : ‘डरे हुए लोग’ से ‘ठंडी रजाई’-प्रदीप मोघे

हिन्दी साहित्य में लघुकथा विधा के पर्याय हो चले सशक्त हस्ताक्षर सुकेश साहनी अपनी नवीनतम लघुकथाओं के कारण चर्चा में है। उनके दो लघुकथा संग्रह ‘डरे हुए लोग’ और ‘ठंडी रजाई’ प्रकाशित हो चुके है। ‘डरे हुए लोग’ का गुजराती,पंजाबी,अंग्रेजी और मराठी,भाषा में अनुवाद हो चुका है। इस संग्रह में 51 लघुकथाएँ समाहित है। उसी प्रकार दूसरे संग्रह ‘ठंडी रजाई’ में भी 51 लघुकथाओं का समावेश है।
सुकेश साहनी की सभी लघुकथाएँ उनके स्वानुभव पर आधारित हैं। दोनों संग्रहों की 102 लघुकथाओं में हमें इस बात का एहसास होता है। जहाँ तक साहनी की भाषा शैली का प्रश्न है, वह सहज,स्पष्ट एवं सरल है। क्लिष्ट भाषा का प्रयोग उनकी किसी भी लघुकथा में नहीं है। इस कारण सामान्य पाठक भी उनकी कथाओं के मर्म तक आसानी से पहुँच जाता है। दुरूह भाषा शैली का अनुसरण आसान है ; परन्तु सरल शब्दों में लिखना बहुत कठिन होता है। सरल शब्दों में गहन बात कहने में साहनी को महारत हासिल है।
‘डरे हुए लोग’ और ‘ठंडी रजाई’ की लघुकथाएँ मानवीय संबंधों पर आधारित है। अत: पाठकों को इन कथाओं से तादात्म्य स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। ‘डरे हुए लोग’ की लघुकथाओं में लेखक समाज से लुप्त होते चले जा रहे नैतिक मूल्यों के प्रति चिन्तित हैं । तो ठंडी रजाई की लघुकथाओं में जीवन यात्रा के विभिन्न एहसासों की उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। दोनों संग्रहों की सभी कथाएँ जीवन्त है।
कहा जाता है कि पहली कृति लेखक को अधिक प्रिय होती है अर्थात उसके लिए अधिक महत्त्व रखती है। स्वयं लेखक का अपने इन दोनों संग्रहों के बारे में क्या महत्त्व है यह तो मुझे पता नहीं। मेरी दृष्टि में सुकेश जी का प्रथम लघुकथा संग्रह ‘डरे हुए लोग’ पाठकों के अधिक करीब है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ‘ठंडी रजाई’ की लघुकथाएँ कमतर हैं। ‘ठंडी रजाई’ में लेखक के रचनात्मक विकास को भली प्रकार से देखा जा सकता है। इस संग्रह में लेखक ने कुछ अदभुत प्रयोग किए हैं। जिसकी वजह से यह संग्रह आम पाठकों के साथ–साथ साहित्य जगत के पुरोधाओं को लघुकथा की ओर आकृष्ट करने में सफल रहा है। इस दृष्टि से ‘ठंडी रजाई’ का लघुकथा की विकास यात्रा में बहुत बड़ा योगदान कहा जाएगा। ‘डरे हुए लोग’ की कथाओं के एहसास मर्मस्पर्शी और गहन है, जो पाठक को लगातार डिस्टर्ब करते है। इस संग्रह के पात्रों की व्यथा पढ़ते–समझते हुए पाठक अनायास ही अपने आप से पूछ बैठता है कि ऐसा क्यों होता है। इस संग्रह में उठाई गई समस्याए पाठक के अन्त:करण को छूने में सफल रही है और साहनी का यश यही हैं।
हिन्दी कि यह लघुकथा विधा लेखक के लिए चुनौतीपूर्ण है। मर्मस्पर्शी घटना या प्रसंग को कम से कम तथा सटीक शब्दों में व्यक्त करना निहायत ही कला कौशल का काम है। गागर में सागर भरने की इस कसरत में साहनी जी अपने दोनों संग्रहों में खरे उतरे है।
दोनों संग्रहों की कौन सी लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं या सामान्य हैं, इसका जिक्र मैंने जानबूझकर नहीं किया है। उसी प्रकार लघुकथाओं के विषयों के बारे में मैनें कोई चर्चा नहीं की है। ऐसा न करने का एकमात्र कारण यह है कि मेरी दृष्टि में लघुकथा का आस्वादन एक नितांत व्यक्तिगत बात है। तथा लघुकथाओं का विषयवार,वर्गीकरण करना लेखक की संवेदनाओं पर अत्याचार करने जैसा है, ऐसा मेरा प्रामाणिक मत है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि दोनों संग्रहों की कोई भी लघुकथा सामान्य नहीं है।
यहाँ लघुकथा के शीर्षकों पर बात किए बिना लेख अधूरा होगा। सारे शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त तथा लघुकथाओं के आशय को सशक्त रूप से सशक्त करते है। यह शीर्षक इस बात का प्रतीक है कि लेखक शब्दों के चयन में कितना सजग और संवेदनशील है।
‘ठडी रजाई’ का भी ‘डरे हुए लोग’ की भांति अन्य भाषाओं में अनुवाद होगा ऐसी आशा करना कदापि व्यर्थ न होगा। साहनी जी के तीसरे संग्रह की लघुकथाओं की भी प्रतीक्षा रहेगी ,ताकि उनके रचनात्मक विकास की पड़ताल की जा सके।
जहाँ तक दोनों लघुकथा संग्रहों के मुद्रण तथा प्रस्तुति का प्रश्न है। ‘ठंडी रजाई’ उसमें बेहतर है। ‘ठंडी रजाई’ का आवरण चित्र चित्ताकर्षक है। साहनी जी के दोनों कथा संग्रह उन्हें हिन्दी के प्रथम श्रेणी लघुकथाकारों में ला खड़ा करते हैं इसमें कोई संदेह नहीं।
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