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दस्तावेज़- राधेश्याम ‘भारतीय’
‘आधुनिक हिंदी लघुकथाएं’
राधेश्याम ‘भारतीय’

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के सम्पादन में सद्य प्रकाशित संकलन ‘आधुनिक हिंदी लघुकथाएँ’ पढ़ीं। सबसे पहले सुकेश साहनी की लघुकथा ‘बिरादरी’ लघुकथा में अनेक बातें सामने आती हैं। हमारे देश में हर स्तर पर भेदभाव है। हम किसी भी स्तर पर अपने से कमजोर व्यक्ति से संबंध रखना नहीं चाहते। हमारे देश में जो आर्थिक असमानता है इसका कारण ही यही है। हमारे पास थोड़ा -सा धन होते ही हमारे हाव–भाव बदल जाते हैं। हमारा अहं हम पर इतना हावी हो जाता हैं कि अपने मित्र से भी आँख बचाकर निकल जाना चाहते हैं। यह लघुकथा ऐसे ही अहं से ग्रस्त व्यक्ति का चित्रण है।
देश आजाद हो गया। पर हम आज भी अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त पद्धति का ही अनुसरण कर रहे हैं। यहाँ काम का नहीं पद का महत्त्व है। वरिष्ठ अधिकारी अपने से कनिष्ठ अधिकरी की गोपनीय रिपों‍र्ट लिखेगा भले ही वह कितना ही बड़ा भ्रष्टाचारी क्यों न हो। राजेन्द्र परदेसी की लघुकथा ‘प्रतिक्रिया’ में ऐसे ही ढर्रे पर चल रहे सरकारी तंत्र पर करारा व्यंग्य किया है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ने लघुकथा ‘भग्नमूर्ति’ में साहित्यकारों की संकीर्ण सोच को उजागर करने की कोशिश की है। जिसमें वे अहं से ग्रस्त होकर खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को बोना समझते हैं। कोई उनसे कैसे आशा लगा सकता है कि उनकी रचनाएं सभ्य समाज की नींव तैयार करेंगी, जो स्वयं मानवीय मूल्यों का पक्षधर नहीं है।
पश्चाताप की अग्नि आग से भी अधिक ज्वलनशील होती है। मजदूर की मजदूरी मारना पाप समझा जाता है। मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा ने दो रुपये का सिक्का’ में उसी पश्चाताप की अग्नि में जलते व्यक्ति का चित्रण किया है। लेखक ने पात्र द्वारा रिक्शा चालक के ऊपर दबाव डालकर बचाए दो रुपये का चित्रण बडे़ ही सुन्दर शब्दों में किया है– दो रुपये का वह सिक्का अंगारों में तपा और लाल होकर उसके मस्तक पर चिपक रहा है। वह तेज चीख के साथ ऊपर वाली बर्थ से नीचे गिर पड़ा।
प्रताप सिंह सोढ़ी की लघुकथा ‘शहीद की माँ’ देश की स्वतंत्रता से पूर्व स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा आजादी के लिए किए संघर्ष और आजादी के बाद अपने ही नेताओं द्वारा किए बदतर हालात को स्पष्ट किया है। शहीद की माँ आज उन्हीं देश भक्तों को ढूँढ़ रही है, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से अपने प्राण मातृभूमि पर फूल समझकर अर्पित कर दिए थे। राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करती रचना अच्छी लगी।
सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सिमर सदोष की लघुकथा ‘बँटवारा’ अंत में पाठक को मर्मांतक स्थिति में पहुँचा देती है। वह पाठक को चिंता और चिंतन को बाध्य करती है।
अशोक भाटिया की लघुकथा ‘एक बड़ी कहानी’ धार्मिक समन्वय के दर्शन कराती है। लघुकथा की पहली पंक्ति ही आदर्श पंक्ति लगी– पढ़ने की ललक आदमी से पढ़वा ही लेती है।उसके बाद यह लघुकथा यह भी बताने में कामयाब रही है कि धार्मिक संकीर्णता से ग्रस्त व्यक्ति केवल हंगामें खड़ा करना ही अपना मकसद समझते हैं, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि इन धार्मिक ग्रंथों में जीवन मूल्यों से जुड़ी न जाने कितनी बातें होती हैं जो जीवन की दिशा ही बदल सकती हैं।
कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘धर्मयुद्ध ’ पाठकों को संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर सोचने को बाध्य करती है। धार्मिक संकीर्णता की ज्वलंत तस्वीर सतीश राज पुष्करणा की लघुकथा ‘अँधेरा’ में देखने को मिलती है। लघुकथा में दंगे के बाद की स्थिति का कारुणिक चित्रण किया है। लघुकथा का संदेश सभी की आँखें खोलने वाला है‘
‘‘दंगों के बाद किसी को क्या मिला। उस राख में पता ही नहीं चलता कि राख का कौन-सा हिस्सा किस सम्प्रदाय का है। क्या व्यक्ति की परिणति राख में ही है।’’ अनेक ज्वलंत प्रश्न उठा रही है यह लघुकथा।
वृद्धावस्था में गुलामी –सा जीवन जी रहे वृद्धों की गाथा को प्रभात दुबे ने अपनी लघुकथा ‘गर्म हवा में’ बड़े ही सहज एवं भावानुकूल भाषा में करते हुए पाठक को प्रभावित करने में कामयाब रही है। सुरेश उजाला की लघुकथा ‘जातिगत विद्वेष’ दलितों के साथ सदैव होता आया असमानता का व्यवहार ही मुख्य विषय है। स्वर्ण जाति के लोग दलितों को कमजोर देखकर गर्व का अनुभव करते हैं। समाज में औरते सत्संगों या समाज सेवा के नाम पर घंटों बाहर रहकर जो पुण्य लाभ कमाना चाहती है। सुधा जैन की नजरों में वह ढकोसला है यदि उन्हें वास्तव में पुण्य लाभ कमाना है तो अपने वुद्ध सास- ससुर की सेवा करनी चाहिए।
मालती बसंत की लघुकथा ‘पहला बसंत’ जीवन के खोए हुए अहसास को लम्बे अर्से बाद जीवन में महसूस करने की लघुकथा है ।
मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है। उसका जिस वस्तु से भावनात्माक जुड़ाव हो, वह उसके लिए महत्त्वपूर्ण हो उठती है ।नया-पुराना जैसा कोई भेद वहाँ मायने नहीं रखता । वह कदापि सहन नहीं करता कि कोई उस वस्तु को छुए भी। ऐसा ही भाव व्यक्त करती हैं योगेन्द्र शुक्ल की लघुकथा ‘टूटी घड़ी’।
रामनिवास मानव की लघुकथा ‘दौड’ आर्थिक असमानता को दर्शाती यथार्थवादी लघुकथा लगी। आज गाँव और शहर के बीच आर्थिक असमानता की गहरी खाई ने गाँव को बहुत पीछे छोड़ दिया है । यह एक गंभीर समस्या है अत: लघुकथा इस समस्या के प्रति हम सब को सचेत करती है।
रामयतन यादव की लघुकथा ‘डर’ संवेदनहीन मित्र की कथा है।वहीं अमरनाथ चौधरी की लघुकथा ‘वसीयत’ मोहमाया से ग्रस्त एक ऐसे पात्र की कथा है जो अपने जीवन साथी को अपने ही भाग्य के भरोसे छोड़कर चली जाती है और अंत में उसके धन के लालच के वशीभूत होकर चली आती है। ‘पूत कपूत हो सकता है पर माँ नहीं’ इस उक्ति पर खरी उतरती आशा शैली की लघुकथा ‘चौथा बैंत’ अच्छी बन पड़ी है। सुकीर्ति भटनागर की लघुकथा ‘कतरनें’ सार्थक लघुकथा बन पाती यदि वह पात्र से अपनी पहली कन्या के जन्म पर ही कन्याभ्रूण हत्या पर रोक लगवातीं।
कमल कपूर की लघुकथा ‘सहारे’ भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के बीच का परिणाम है। माँ के लिए तो बेटे से बड़ा कोई सहारा नहीं होता।
अंजु दुआ जैमिनी ने ‘कमाई का गणित’ में आस्था के साथ हो खिलवाड़ कर रहे दुकानदारों को साधकों की अदालत में खड़ा किया है। साधना ठकुरेला की लघुकथा‘नया क्षितिज’ पुरुष की अहंवादिता ।एवं संर्कीर्ण सोच पर करारा व्यंग्य है और पुरुषवादी सोच कैसे नारी की भावना से खिलवाड़ करता है , उसे पक्षियों के माध्यम से प्रस्तुत लघुकथा सोचने को विवश करती है।
राजेन्द्र साहिल ने अपनी लघुकथा ‘घिसाई’ में एक अध्यापक की सादगी एवं ईमानदार प्रवृत्ति को दर्शाकर अपने साहित्यिक धर्म का निर्वाह किया। सकारात्मक दृष्टिकोण लघुकथा को ताकत प्रदान करता है। संतोश सुपेकर ने एक तरफ श्रम की जीत दिखायी है तो वहीं भ्रष्टाचार की भी बात की है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब अपना काम नहीं बनता तो हमें व्यवस्था को दोष देने लगते हैं। राश्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत पूरन सिंह की लघुकथा ‘मैं माँ हूँ’ एक आदर्शवादी लघुकथा लगी। यह लघुकथा लीक से हटकर थी।
निशा भोंसले ने अपनी लघुकथा ‘भरोसा’ में एक पिता की चिंता को व्यक्त कर शहर एवं गाँव में दिन प्रतिदिन बढ़ रही वारदातों के प्रति सचेत किया है। कृष्णलता यादव ने अपनी लघुकथा ‘बेटे की तमन्ना’ में सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया है।
कृष्ण कुमार यादव की लघुकथा ‘बेटे की तमन्ना’ उस विचार को मिथ्या साबित करती है जिसमें कहा जाता है कि पिता की चिता को पुत्र के हाथों मिली अग्नि से ही मोक्ष मिलता है। आकांक्षा यादव की लघुकथा अमीरों की संवेदनहीन प्रवृत्ति को उजागर करती है। यह यथार्थवादी लघुकथा होने के कारण उदाहरण रूप में प्रयोग की जा सकती है।
‘कोहरा’ लघुकथा आज की युवापीढी़ के दिलो दिमाग पर छाया अश्लीलता रूपी कोहरा है। वे अपने जन्मदाताओं को धोखा देकर उनकी इज्जत को धूल में मिलाने पर तुले हैं। लघुकथा शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखने में समर्थ लगी।
सुरेश शर्मा की लघुकथा ‘भूल’ बेरोजगारी की मार झेल रहे बाप–बेटे की कथा को पात्रानूकूल भाशा में व्यक्त करने के कारण अच्छी बन पड़ी है। मानव की दोहरी सोच को सामने रखकर रची लघुकथा ‘गुस्सा’ शीर्षक पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है।
पुरुषोत्तम दुबे की दोनों लघुकथाएँ कथ्य एवं भाशा शैली के कारण श्रेष्ठ लगीं।
आनंद कुमार की लघुकथा ‘अपवित्र’ वर्णवादी सोच का ही परिणाम है जो सदियों से चली आ रही हैं। त्रिलोक सिंह ठकुरेला की लघुकथा ‘रीति रिवाज’ उस कुप्रथा की ओर ध्यान आकर्षित करती है जो सदियों से चली आ रही है। ये ब्राह्मणवादी सोच के लोग जरा सोचे कि उस व्यक्ति पर क्या गुजरी होगी जिसने अभी नल लगाया और उसी व्यक्ति को जल पीने से मना कर दिया। कैसी विडंबना है मेरे सभ्य समाज कि हम सब जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं। लघुकथा चिंता और चिंतन को बाध्य करती है।
साहित्य जगत में यह लघुकथा संकलन अपनी अलग पहचान बनाएगा ऐसी आशा है ।
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आधुनिक हिन्दी लघुकथाएँ: सम्पादक त्रिलोक सिंह ठकुरेला, पृष्ठ:104 (सज़िल्द); मूल्य:150 रुपये ; संस्करण:2012;प्रकाशक:अरिहन्त प्रकाशन, ,सोजती गेट,जोधपुर।

 

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