आज के जटिल और क्रूर समय में संवेदनशील मनुष्य अपने परिवेश से जुड़ते और जूझते हुए जो कुछ अनुभव कर पाता है। उसकी सहज, सरल और निर्दोष अभिव्यक्ति सुकेशसाहनी व रामेश्वर काम्बोज द्वारा संपादित ‘मानवमूल्यों की लघुकथाए’ में सटीक ढंग से हुई हैं आज के मनुष्य के सामने सबसे बड़ा संकट और चुनौती उसकी मनुष्यता को बचाए रखने की है। आज के भागदौड़ के जीवन में यदि हम देखे तो अपने परिवेश के व्यक्तियों से ही रिश्ते बनाये रखने में कठिनाई महसूस करते परन्तु ‘आखिरी सफर’ लघुकथा जीवन साथी से लगाव को दर्शाती हुई आपसी संबंधों की अहमियत को बताती है। ‘कर्तव्य’ लघुकथा में अशोक कुमार खन्ना हमारे महानगरों में दुर्घटना से पीडि़त व्यक्तियों के प्रति हमारी संवदेनहीनता को चित्रित करते हैं। इस दर्द को असगर वजहत कृत ‘हँसी’ में स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिक युग में मूल्यों का क्षरण जिस तरह से हो रहा है वह चिंता का विषय है ।आदर्शों की अनदेखी करना हमारा अधिकार बनता जा रहा है। अहमद निसार की ‘पदचिह्न’ में ये दर्द बखूबी व्यक्त किया गया है।
भिखारी भी हमारी तरह मानव होते हैं उनमें भी प्रेम, स्वाभिमान, घृणा, आदि सब भाव होते हैं। आनंद की ‘छलकता हुआ भिक्षापात्र’ भिखारी की ममता को, उर्मिकृष्ण की ‘कम्बल’ में बूढ़े बाबा की अपनत्व भावना को तो, रावी की ‘भिखारी ओर चोर’ और जितेन्द्र जीतू की ‘शिष्टाचार’ दर्शाती है कि कैसे हमारा गलत बर्ताव एक व्यक्ति को चोर बना सकता है। किसी भी घटना को मानवीय रूप से ईमानदारी से न देखना एक गलत संदेश ही देता है।
उपेन्द्र प्रसाद राय की ‘पाप बोध’ बेटी की दुर्घटना में मौत होने के एवज में मिले रुपयों से घर की मरम्मत कराना गरीब माँ–बाप को संवेदनहीन होने का अहसास अंदर तक विचलित कर देता है और वे सुबह होते ही उस गाँव से शहर की ओर चले जाते हैं। एन–उन्नी की ‘कबूतरों से भी खतरा है’ कबूतरों को माध्यम बनाकर जनता की आजादी की माँग को सर्वोचित बताया हैं । पिताजी ने बोझिल स्वर में कहा ‘बेटे, जब प्रजा आजादी की तीव्र इच्छा से जाग उठती है तो बड़े से बड़ा तानाशाह भी घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है फिर तुम्हारा पिता तो.......’ यह लघुकथा अपना संदेश तो पूर्णरूप से अभिव्यक्त करती हैं ;परन्तु जितना सटीक संदेश है उतना सटीक शीर्षक नहीं ।ऐसा प्रतीत होता है कि शीर्षक को जल्दबाजी में रखा गया। कमल चोपड़ा की ‘बहुत बड़ी लड़ाई’ में दर्शाया गया है कि मानव में स्वाभिमान का स्वाभाविक मूल्य होता है ।यह किसी वर्ग की निजी सम्पत्ति नहीं । ईमानदारी जैसा नैतिक मूल्य अब भी हमारी जड़ो में कहीं छुपा हुआ है,जो ‘केसरा राम की ‘स्टार’ में व्यक्त हुई है। एस.पी. को लगा जैसे किसी ने उसके कंधे पर एक स्टार ओर लगा दिया हों। गणेश खरे की ‘प्रतिनियुक्ति’ समाज के उस तबके पर व्यंग्य करती है, जो अपने कर्मो को भी किसी अन्य से कराकर इतराते हैं। गुरमेल मड़ाहढ़ की ‘अहसास’ माँ के दर्द को व्यक्त करती है तो आशीष दलाल की दायित्वबोध भी अपनों को खोने के डर को व्यक्त करती है। ज्ञानेन्द्र मिश्र की ‘सबसे बड़ा अपराधी’ हमारे बुद्धिजीवियों की उदासीनता की सबसे बड़ी समस्या की ओर इंगित करती है।
तारा निगम की ‘माँ, मैं गुड़िया नहीं लूँगी’ में स्त्रियों के गूँगी गुड़िया समान किए जाने वाले व्यवहार को दर्शाया गया है। दिनेश पालीवाल की ‘डबल बेड’ में समय के साथ हमारी पुरानी पड़ जाती इच्छाओं का चित्रण किया गया है। निरंजन बोहा की ‘अपनी मिट्टी’ अपने देश अपने लोगों की अहमियत को दर्शाती है। पवन पांचाल की ‘तमाशबीन’ हमारी संवेदनहीन मानसिकता को दर्शाते हुए यह आईना भी दिखाती है कि कहीं न कहीं इंसानियत अभी भी बाकी है। ‘घर’ सुमति देशपांडे की और बलराम की ‘गंदी बात’ अनुशासन प्रिय बच्चों की चाह में माता पिता किस तरह से बच्चों की स्वाभाविकता पर रोक लगाना चाहते हैं, इस बात को दर्शाया है। योगेन्द्र शर्मा की ‘बिछुड़े हुए’, विभारानी ‘रब का बन्दा’, सूर्यकांत नागर ‘धर्म–कर्म’ रमेश गौतम की ‘फरिश्ता’ और बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन’ धर्म से ज्यादा मानवता को तरजीह देती है। मोहनलाल पटेल की ‘बेजान चिट्ठी’ भागदौड़ की जिंदगी में रिश्ते कैसे पीछे छूटते जा रहे हैं, इसका वर्णन करती है। रत्नकुमार साँभरिया की ‘गंध’ ममता ओर वात्सल्य की नई परिभाषा को दर्शाती है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘धर्म निरपेक्ष’ कट्टरपंथियों पर व्यंग्य करती है। विजय अग्रवाल की ‘पराजय’ ईमानदारी को नया स्वरूप प्रदान करती है। विष्णु प्रभाकर की ‘फर्क’ जानवरों के भेदभाव न करने के गुण को सर्वोच्चता प्रदान करती है। शशिप्रभा शास्त्री की ‘सजा’ अपराधी को शारीरिक रूप से प्रताडि़त करनेसे ज्यादा से उसकी बुरी बातों को छुड़ाना श्रेष्ठ बताती है। सतीशराज पुष्करणा की ‘सहानुभूति’ सिखाती है कि आपका भला चाहने वाले व्यक्ति कड़वी बातें बोले तो भी वे आपका भला ही चाह रहे होंगे। सुकेश साहनी की ‘चादर’ सांकेतिक रूप से दंगों की होली में मानवता को खून से रंगते हुए दिखाती है। भारतीय लेखकों की इन लघुकथाओं में मानवीय मूल्य जैसे–ईमानदारी, मानवता, प्रेम, घृणा आदि का अवलोकन होता है। पश्चिमी लेखकों की लघुकथाओं -जैसे इवान तुर्गनेव की ‘भिखारी’ भीख से ज्यादा भाई के संबोधन को वरीयता देता है। ओ हेनरी की ‘कैदी’ कैसे समाज और परिस्थितियाँ सज्जन व्यक्ति को भी दुर्जन में बदल देती हैं, इसका चित्रण करती हैं । खलील जिबान की ‘गोल्डन बैल्ट’ परिवारीजनों की अहमियत दर्शाती है। दुली की ‘दो पुतले’ ईर्ष्या की भावना को व्यक्त करती है। समाज से अलग थलग पड़ने पर वजूद ही समाप्त हो सकता है ।हाए ताए छू वेन की ‘कच्ची ईट’, को चित्रित करती हैं ।होराशिया क्वीरोजा की ‘सुख, स्वतंत्रता ओर देश’ हमें आगाह करती है कि संकीर्णताओं से व्यक्ति और देश दोनों को हानि होती है। चाहे लेखक पश्चिम के हो या भारत के सभी लघुकथाओं में मानव के उस गुण की प्रधानता है जो उसे विश्व के अन्य सभी प्राणियों से भिन्नता प्रदान करती है। मानवीय मूल्य ही व्यक्ति का सर्वोच्चगुण है ।यदि इसे वह खो देंन तो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति होने का गौरव भी खो देगा। ‘मानव मूल्यों की लघुकथाएँ ’ मानवीय मूल्यों को पारिभाषित करती हुई श्रेष्ठ लघुकथाएँ है। प्रत्येक संवदेनशील मानव को इनका अध्ययन अवश्य करना चाहिए ताकि इस भागदौड़ से भरे जीवन में वो अपने मानवीय गुणों को यथोचित बनाये रख सके।
मानव मूल्यों की लघुकथाएँ: सम्पादक -सुकेश साहनी , रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’; पृष्ठ:168; मूल्य:110रुपये ,प्रकाशक -सिद्धार्थ बुक्स, सी-263ए, हरदेवपुरी शाहदरा नई दिल्ली-110093
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