साहित्य की किसी भी विधा का महत्त्व इस बात से तय होता है कि वह विधा समग्रतः अपने साहित्यिक उद्देश्य में कहाँ तक सफल है। इस परिप्रेक्ष्य में लघुकथा के विधागत योगदान का मूल्यांकन करना हो तो हमें उसके फलक पर छाए तमाम सृजन-बिन्दुओं पर दृष्टि डालनी होगी, जो फलक की व्यापकता के भी कारण बनते हैं। वर्तमान समकालीनता के दायरे में आने से पूर्व लघुकथा के जितने भी रूप-स्वरूप मौजूद हैं, उनके सापेक्ष चार-पाँच दशकों में लघुकथा का जो रूप-स्वरूप विकसित होकर सामने आया है, वह उसके विधागत समकालीन साहित्यिक उद्देश्य को बड़े स्तर पर पूरा करता है। उसके विधागत फलक पर जीवन की व्यापकता की परतों को उघाड़ते मानवीय व्यवहार के अनेकानेक चित्र और संवेदनाएँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। इस रास्ते पर लघुकथा को लाने में लघुकथा के कई हस्ताक्षरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, डॉ. सतीश दुबे जी उनमें अग्रणी हैं। डॉ. दुबे जी ने हमेशा से प्रयास किया है कि लघुकथा रूपाकार, शिल्प-शैली और विषय-कथ्य, किसी भी स्तर पर एकांगी पथ की यात्री बनकर न रह जाये! उनका यह प्रयास आलेखों-साक्षात्कारों से आगे जाकर उनके सृजन में व्यापक स्तर पर प्रतिबिम्बित हुआ है।
जीवन के विभिन्न पक्षों और मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों से जुड़े अनेकानेक कथ्यों को दुबे साहब ने अपनी लघुकथाओं में अभिव्यक्ति दी है और गहन अनुभूतिपरक लघुकथाओं का सृजन किया है। अब तक उनके छः लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनकी लघुकथाओं में एक नहीं, कई ऐसी हैं, जो पाठक के अन्तर्मन में तूफानी हलचल पैदा कर देती हैं, चेतना और संवेदना- दोनों स्तरों पर। कई ऐसी हैं जो मनुष्य के अहंकार पर चोट करती हैं, उसमें यथास्थिति के प्रति व्यामोह से जनित छटपटाहट पैदा करती हैं, और अन्ततः अहंकारमय यथास्थिति के कवच को तोड़कर बाहर आने के लिए विवश करती हैं। दूसरी ओर उन्होंने ऐसी लघुकथाओं का सृजन भी किया है, जिनमें वह हमें जीवन-सरस्वती की उस धारा से रूबरू करा रहे होते हैं, जिसके यथार्थ के परिदृश्य से लुप्त हो जाने के बावजूद हम अपने अन्तर्मन के पटल से लुप्त होना स्वीकार नहीं कर पाते।
जैनेरेशन गैप, एक ऐसा पहलू है, जो सामाजिक-पारिवारिक जीवन के स्नेह-तंतुओं को जड़ों से हिला रहा है। इस विषय को जितनी गहराई से दुबे साहब ने समझा है, वह कम ही देखने को मिलता है। नई पीढ़ी के साथ वह बेहद व्यावहारिक सोच के साथ खड़े नजर आते हैं। निसंदेह उनकी इस व्यावहारिक सोच के पीछे जीवन के सत्य और उद्देश्य के प्रति गहरी समझ खड़ी होती है। जिस संतान को हम बेहद लाड़-दुलार के साथ पालते-पोषते हैं, बचपन में उनकी जाने कितनी नादानियों पर खुशियों से झूम उठते हैं, यकायक उनकी युवावस्था में हम उन्हें घोड़ों की तरह नियंत्रित करना अपना अधिकार समझने लग जाते हैं। जबकि उनकी अनेकानेक भावनाओं के विकास के लिए कहीं न कही हम स्चयं भी जिम्मेवार होते हैं। नई पीढ़ी की भावनाओं को समझना और उनके साथ तालमेल की जिम्मेवारी वरिष्ठ पीढ़ी के कंधों पर कहीं अधिक होती है। बाल मनोविज्ञान और स्त्री विमर्श पर भी उनकी कई लघुकथाएँ गहरे तक प्रभावित करती हैं। बड़ी संख्या में उनकी लघुकथाओं को उनके पाठक लम्बे समय तक भुला नहीं सकेगें। अकादमिक स्तर भी उनकी लघुकथाएँ लम्बे समय तक चर्चा में रहेंगी।
डॉ. दुबे जी के व्यापक लघुकथा संसार से अपनी पसन्द की करीब 99 श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन कर भाई सुरेश जांगिड़ ‘उदय’ ने प्रमुख लघुकथाकारों की श्रेष्ठ लघुकाथाओं की प्रस्तुति की अपनी योजना की प्रथम कड़ी के रूप में ‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ नाम से प्रस्तुत किया है। साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं के सापेक्ष लघुकथा के महत्व को भी रेखांकित करने के सन्दर्भ में उनकी सोच को सकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। निसंदेह आज कई लघुकथाकार हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें हम समकालीन महान साहित्यकारों की श्रेणी में रख सकते हैं और लघुकथा पर कई आरोपों के बावजूद कई लघुकथाओं को हम कालजयी रचनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर इनका नोटिस लेने से पीछे क्यों रहा जाए? जिस सम्मान के वे हकदार हैं, उससे उन्हें क्यों वंचित रखा जाये?
इस पुस्तक में दुबे जी की कई प्रसिद्ध और प्रभावशाली लघुकथाएँ शामिल हैं। इनमें प्रेम और अपनेपन की डोर से एक मनुष्य और जानवर (बन्दर) के बीच बने रिश्ते की अटूटता और निश्छलता को रेखांकित करती ‘रिश्ताई नेह बंध’ और इसी अटूटता व निश्छलता पर आघात होने पर एक पशु के विद्रोह को अभिव्यक्ति देती ‘प्रतिरोध’ जैसी लघुकथाएँ हैं। इसमें संगृहीत उनकी सुप्रसिद्ध लघुकथा ‘वर्थ-डे गिफ्ट’ में एक पोती और उसके दादा जी के रिश्ते में व्यात ऊर्जा बाल मनोविज्ञान की सुखद व्याख्या करती है। लेकिन जब आयु के साथ बच्चों का अन्तर्मन स्वार्थ के पाग में पग जाता है तो ‘थके पाँवों का सफ़र’ के चाचाजी की सूखी आँखों के आँसू पाठक की आँखों तक पहुँच जाते हैं।
बाल मनोविज्ञान के विविध पहलुओं को रेखांकित करती ’खेल वाली माँ’, ‘विनियोग’, ‘दिल का दायरा’, ‘पेड़ों की हँसी’, ‘बस एक कहानी और’ जैसी सशक्त लघुकथाएँ भी यहाँ संगृहीत हैं। ‘प्रमुख अतिथि’ लघुकथा भी शामिल है, जिसमें हरदर्शन जैसा बड़ा आदमी बेटे की जन्मदिन पार्टी में अपने प्रमुख चालक शिवलाल को परिवार का हिस्सा और गुरु मानकर प्रमुख अतिथि बनाता है। इसमें यथार्थ के पटल से लुप्त जीवन-सरसवती को पाठक अपने अर्न्तमन के पटल पर खोजता महसूस करता है। इसी श्रेणी की ‘गबरू चरवाहा’, ‘बन्दगी’, ‘धरमभाई’, ‘रहनुमा’ जैसी लघुकथाएँ भी पाठकों के अन्तर्मन को आनन्दानुभूति से सराबोर करती हैं। प्रेम की गहन अनुभूति को अभिव्यक्त करती लघुकथा ‘प्रेम-ब्लॉग’ एक शैलीगत प्रयोग भी है। ‘पहचाना कि नहीं?’ एवं ‘सपनों का स्वेटर’ भी गहन प्रेम अनुभूति की रचनाएँ हैं। इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी लघुकथा ‘पासा’ को शिल्पगत कसावट के लिए भी याद रखा जा सकता है। प्रतिकूल समय में बड़ों (अपनों) का साथ और सहानुभूति व्यक्ति को टूटने से बचा लेती है; ‘फीनिक्स’ में इसे प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। ‘मर्द’ व ‘उत्स’ जैसी रचनाएँ निराशाजनक वातावरण में भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण की प्रेरणा बनती हैं। ‘बाबूजी’, ‘भीड़’, ‘अगला पड़ाव’, ‘फूल’ आदि रचनाओं में गहन मानवीय संवेदना के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं।
हिन्दू-मुस्लिम परिवारों में पारस्परिक स्नेह के रिश्तों के अनेक उदाहरण हमारे समाज में दिखाई दे जाते हैं। इन रिश्तों की गर्माहट को उजागर करने का अपना महत्त्व है, क्योंकि दोनों समुदायों को अपनी प्रगति करनी है, जीवन को शिद्दत से जीना है तो अन्ततः एक साथ ही रहना होगा। मानवीय लोकतन्त्र में इसका कोई और विकल्प नहीं है। पाकिस्तान का अलग अस्तित्व भी नकारात्मक आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाया है। ऐसे में विद्यमान वातावरण को बदलने के प्रयास साहित्य सृजन के स्तर पर रिश्तों की इसी गर्माहट को रेखांकित करके हो सकते हैं। ‘वादा’, ‘रिश्तों की सरहद’ जैसी लघुकथाएँ अन्तर्धर्मीय रिश्तों की इसी गर्माहट के संचरण का माध्यम बनती हैं। ‘अतिथि’ का संदेश भी इसी दिशा में देखा जाना चाहिए। ‘अंतिम सत्य’ का तो सीधा संदेश ही यही है।
भय और शोषण के खिलाफ साहस और संघर्ष की अभिव्यक्ति सकारात्मक सृजन का हिस्सा होती है। इस पृष्ठभूमि पर रचे गए कथ्यों को ‘प्रज्ज्वलितं श्रेयं’, ‘योद्धा’, ‘माँ का धर्म’, ‘दस्तूर’ जैसी लघुकथाओं में प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित किया गया है। व्यवस्था की संवेदनहीनता पर ‘फैसला’, ‘भूत’, ‘हुकुम सरकार का’ तथा सामाजिक संवेदनहीनता को उजागर करती ‘कत्ल’, ‘शहर के बीच मौत’ जैसी कई महत्वपूर्ण लघुकथाओं का चयन इस संग्रह में शामिल है। राजनीति के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करती ‘रीढ़’, ‘हरि इच्छा बलवान’, ‘मूर्ति’, ‘फरियाद’ तथा धार्मिक असहिष्णुता पर ‘विधर्मी’ जैसी पैनी लघुकथाएँ संग्रह में मौजूद हैं।
कुल मिलाकर संग्रह में सुरेश जांगिड़ जी ने डॉ. दुबे जी की कई अच्छी लघुकथाओं की पुनर्प्रस्तुति की है। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि डॉक्टर साहब की कुछ अन्य बेहतरीन लघुकथाएँ इस संग्रह में शामिल कर ली जाती, भले प्रस्तुत कुछ लघुकथाओं को छोड़ना पड़ता। पर इस तरह के निर्णय हमेशा व्यक्ति सापेक्ष होते हैं, उनमें मशीनी निरपेक्षता संभव नहीं है। पुस्तक का परिचय देते हुए संपादक सुरेश जांगिड़ उदय के दृष्टिकोंण और प्रयास- दोनों का स्वागत है। इस संग्रह से गुजरने का अर्थ एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना है। जो नए रचनाकार-पाठक डॉ. सतीश दुबे जी जैसे अग्रणी लघुकथाकार के संग्रह नहीं पढ़ पाए हैं, निसंदेह इस संग्रह के माध्यम से उनकी अनेक श्रेष्ठ लघुकथाओं का आस्वाद ले सकेंगे।
डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ: लघुकथा संग्रह। संपादक: सुरेश जांगिड़ उदय। प्रकाशक: अक्षरधाम प्रकाशन, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)। मूल्य: (भारत में) रु.180/-, (विदेश में) $ 18 यू.एस.डालर। संस्करण: 2013
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