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दस्तावेज़- निरुपमा कपूर
संवेदनशील गुणों की अभिव्यक्ति
निरुपमा कपूर`

आज भारतीय समाज जिस तरह से मूल्यों के नैतिक अवमूल्यन की गिरफ्त में है और यह स्थिति लगातार जिस तरह से नीचे गिर रही है वह एक सभ्य समाज के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। शासन और समाज सभी जगह सुविधाभोगी, धनलोलुप व्यक्तियों की बाढ़ सी आ गई है। व्यक्ति की सोच केवल अपने तक और अपने स्वार्थ तक ही नजर आती है। लेकिन आज भी कहीं भीतर हमारे अंदर एक स्वस्थ सोच, संवेदशील मन जड़ जमाए बैठा है जो हमें हमारे जीवन मूल्यों के प्रति सजग करता रहता है। जीवन मूल्यों की ये लघुकथाएँ हमारे हृदय की संवेदनशीलता को प्रदर्शित करती है साथ ही मानवता के विशाल फलक को छोटे–छोटे मुद्दों से प्रदर्शित करती हुई ये लघुकथाएँ हमारे मन को स्पर्श करती हुई सोचने पर मजबूर कर देती हैं।
माँ के हृदय की संवेदनशीलता गुरमेल मड़ाहढ़ की ‘अहसास’ सटीक तौर पर प्रकट करती है । हाँ कोई फूल कितनी मुश्किलों के बाद खिलता है, यह एक माँ ही जान सकती है, कोई और नहीं? डॉ आरती स्मित की ‘हारने का सुख’, ज्योति जैन की ‘शिक्षा’, सूर्यकांत नागर की ‘धर्म–कर्म’ संवेदनशील मन को दर्शाती है तो वहीं छोटे–छोटे मुद्दों पर किस प्रकार हम एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं; जगदीश अरमानी ‘कमानीदार चाकू’, हबीब कैफी ‘सामना’, सुभाष नीरव की ‘इंसानी रंग’, हसन जमाल की ‘पागल’ में इसे दर्शाया है। इस संग्रह में कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी सम्मिलित हैं जो हमारे वजूद पर चोट कर हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं। हरिमोहन शर्मा की ‘सिद्धार्थ’, डॉ हरदीप कौर सन्धु की ‘खूबसूरत हाथ’, सुरेश शर्मा की ‘मानव धर्म’, ऐसी ही लघुकथाएँ हैं जो हमारी संवेदनाओं को अचानक छेड़ देती हैं।सतीश दुबे की ‘बर्थ डे गिफ्ट’ में बच्चों की ईमानदारी और सतीश राज पुष्करणा की सहानुभूति हमें अपनी भूल का अहसास सहज तरीके से कराती है। सुदर्शन रत्नाकर की ‘साँझा दर्द’ इंसानों के दर्द साझा होते हैं, के बारे में सही वर्णन करती है। सुधा ओम ढींगरा की ‘बेखबर’ बच्चों की मासूमियत को सामने लाती है और इंगित करती है कि यह मासूमियत किस तरह से माँ–बाप पर भारी पड़ जाती है हीरालाल नागर की ‘बौना’ उस तथा कथित सभ्य समाज के मुँह पर तमाचा है जो अपने को अधिक संवेदनशील मान कर दूसरे लोगों को अपने से इतर मानते हैं। भूपिंदर सिंह की ‘पहुँचा हुआ फ़कीर’ दर्शाती है कि बातचीत का अभाव संबंधों पर किस प्रकार प्रभाव डालता है। रावी की ‘भिखारी’ और चोर दूरगामी परिणामों को न सोचने का खमियाजा दर्शाती है। विष्णु प्रभाकर की ‘फर्क’ इंसानों की अपेक्षा जानवरों को ज्यादा समझदार बताती है कि वे इंसानों की भाँति ‘फर्क’ करना नहीं जानती। अंकुश्री की ‘जाति’ इंसानों की नीच सोच को दर्शाती हैं अशोक भाटिया की ‘सपना’ बच्चों पर बहते पढ़ाई के दबाव को दर्शाती है। असगर वजाहत की ’हँसी‘ इस भागदौड़ भरे जीवन में हम अपनी सहज स्वाभाविक हँसी भी भूलते जा रहे हैं इस ओर ध्यान आर्कषित करते हैं। उपेन्द्र प्रसाद राय की ‘पाप–बोध’ गरीबों की संवेदनाओं को व्यक्त रकती है। ऋताशेखर ‘मधु’ की ‘प्रथम स्वेटर’ देशवासियों की भारतीय सेना के प्रति प्यार व सम्मान की भावना को दर्शाती है। कमलेश भारतीय ‘मेरे अपने’ में पड़ोस के महत्त्व को दर्शाती है। तो केसरा राम की ‘स्टार’ पुलिस की ईमानदार छवि को दर्शाती है।
चैतन्य त्रिवेदी की ‘जूते और कालीन’ कलाकार के कलाकृति के प्रति लगाव को दर्शाती हैं चित्रा मुद्गल की ‘बोहनी’ भिखारी की अन्य व्यक्तियों की भाँति शगुन व अपशकुन मानते हैं, को दर्शाती है। ज्ञान प्रकाश विवेक की ‘जेबकतरा’जेबकतरे की संवेदनशीलता को रेखांकित करती है। दलीपसिंह वासन ‘रिश्ते का नामकरण’ स्त्री पुरुष के संबंधों के सामाजिक भय को दर्शाता है। पारस दासोत ‘एक राजा का दर्द’ श्री कृष्ण के माध्यम से व्यक्त करता है कि उच्च स्थान पर पहुँच कर अपने मित्रों से लगाव रखना भी कितना मुश्किल हो जाता है। फ़ज़ल इमाम मल्लिक की ‘सवेरा’ हृदय परिवर्तन की लघुकथा है। बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन–कथा’ गाय से ज्यादा मनुष्य के प्रति संवेदनशील होने को व्यक्त करती है। डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र ‘संवेदना’ में दर्शाया गया है कि अमीर या गरीब किसी में भी निहित हो सकती है। भारती पंडित की गुरुदक्षिणा जब एक सिद्धांतप्रिय व्यक्ति अपने सिंद्धातों की तिलाजंलि देता है तो ये मृत्यु से पहले मृत्यु की बदतर स्थिति में पहुँच जाता है। युगल ‘जूते’ उस गरीब परिवार की स्थिति को चित्रितकरती है; जिसमें जरूरत की वस्तु खरीदते–खरीदते उसको उपयोग करने का समय निकल जाता है। रमेश गौतम की ‘फरिश्ता’, राकेश कुमार बिल्ला की नई सुबह, हिन्दू, मुस्लिम के बीच कोई अंतर नहीं, स्थिति को दर्शाती है। रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा ‘नवजन्मा’ समाज में आ रहे परिवर्तन को दर्शाती है। शेफाली पांडेय की ‘सच’ आँखों के सामने सच होते हुए उसे न पहचानने की कितनी बड़ी सजा मिलती है को व्यक्त करती है। सुकेश साहनी ‘दूसरा चेहरा’ बच्चों व वयस्कों के उस पक्ष को दर्शाती है जहाँ बड़े तो अपनी उदात्त भावनाओं को भी छिपाते रहते हैं और बच्चे उन्हें आसानी से व्यक्त कर देते हैं। सुलक्खन मीत की ‘रिश्ता’ भारतीय जीवन मूल्यों की ओर ध्यान आकर्षित करती है। इस प्रकार ये संग्रह मानव के श्रेष्ठ गुणों की ओर ध्यान आकर्षित करता है जो होते तो हम सब में है लेकिन कहीं गहरे छिपे पड़े होते हैं। मानव के आदर्श गुणों को व्यक्त करने वाला यह संग्रह अनमोल व सहेजकर रखने वाला है।

लघुकथाएँ जीवन मूल्यों की : सम्पादक सुकेश साहनी-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ;प्रकाशक: हिन्दी साहित्य निकेतन,16 साहित्यविहार,बिजनौर (उ प्र)246701; पृष्ठ ;96,मूल्य : 50 रुपये (पेपर बैक ) , संस्करण : 2013

 

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