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मानवीय-अमानवीय पात्रों की कथाओं का दस्तावेज

रत्नकुमार सांभरिया हिन्दी साहित्य जगत के चर्चित हस्ताक्षर हैं। हरियाणा में जन्मे और पिछले तैंतीस वर्षों से राजस्थान में रह रहे सांभरिया लंबे अरसे से साहित्य-सृजन में लगे हुए हैं। उन्होंने कहानी, एकांकी, आलोचना व लघुकथा आदि साहित्य की अनेक विधाओं में अपना योगदान दिया है। विभिन्न विधाओं में उनकी नौं पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लघुकथा विधा के क्षेत्र में ऐसे लेखक बहुत कम हैं जिन्होंने बड़ी संख्या में कहानियाँ भी लिखी हों और लघुकथाएँ भी। कारण कहानी और लघुकथा विधा, दोनों की तकनीक भिन्न है। कहानी की तुलना हम जहाँ आठ सौ मीटर की दौड़ से कर सकते हैं, वहीं लघुकथा की तुलना एक सौ मीटर की दौड़ से की जा सकती है। किसी भी धावक के लिए लंबी दौड़ व एक सौ मीटर की दौड़, दोनों में महारत हासिल करना बहुत कठिन होता है। अथक परिश्रम, लगन एवं निरंतर लेखन से सांभरिया ने दोनों विधाओं में अपनी विशेष पहचान बनाई है।
‘प्रतिनिधि लघुकथा शतक’ सांभरिया का दूसरा लघुकथा संग्रह है। इससे पहले उनका एक लघुकथा संग्रह ‘बांग और अन्य लघुकथाएँ’ प्रकाशित हो चुका है। ‘प्रतिनिधि लघुकथा शतक’ में सांभरिया की एक सौ एक लघुकथाएँ सम्मिलित हैं। लेखक ने अपनी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक एवम् राजनीतिक व्यवस्थाओं पर गहरी चोट की है। आधुनिक समाज में व्याप्त विसंगतियों पर भी लेखक ने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है।
लघुकथा की संक्षिप्त-सी परिभाषा देनी हो तो कहा जा सकता है कि इसमें इसके नाम वाले दो तत्व ‘लघु’ तथा ‘कथा’ अवश्य होने चाहिएँ। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ लघुकथा विधा की इस परिभाषा पर खरी उतरती हैं। लेखक ने लघुकथा में लघुता के महत्त्व को सही परिपेक्ष्य में समझा है। दो-तीन पंक्तियों वाली एक-दो रचनाओँ को छोड़ दें तो उन्होंने रचनाओं में सपाट बयानी से बचने का भरसक प्रयास किया है।
इस संग्रह की सभी रचनाओं पर चर्चा करना न तो संभव है और न ही वांछनीय। अत: लेखक की कुछ चुनिंदा रचनाओं पर बात करना चाहूँगा। मेरे विचार में श्रेष्ठ रचना वह है जहाँ पाठक लेखक की उँगली थामने के पश्चात छोड़ने का नाम न ले तथा आगे बढ़ने को लालायित रहे। ‘अपनी रचना’, ‘कौड़ा’, ‘दंड’, ‘नोंक’, ‘रायल्टी’, ‘वजूद’ और ‘हाथ’ को इस संग्रह की श्रेष्ठ रचनाएँ कहा जा सकता है। लेखक ने इन रचनाओं को जीवन अनुभव की अपनी पूँजी से मालामाल किया है।
संग्रह की पहली ही रचना ‘अंतर’ में लेखक ने दर्शाया है कि आदमी से तो पशु भी अधिक संवेदनशील हैं। चाबुक की मार से आहत घोड़ा अपने मालिक की छिली हथेली को अपनी नर्म जीभ से सहलाने लगता है। लघुकथा ‘बँटवारा’ में आज की नौजवान पीढ़ी की बुजुर्गों के प्रति संवेदनहीनता को बड़ी शिद्दत से उभारा गया है। दो भाइयों में बँटवारा हुआ। काम करने योग्य सास को तो बहू लेने को तैयार है लेकिन ससुर को नहीं क्योंकि वे न तो काम करेंगे तथा उनके घर में रहने से बहू को बंदिशों को सामना करना पड़ेगा। बेटे में भी इतना साहस नहीं है कि वह पत्नी की बात का विरोध कर सके। ‘अपने हाथ’, ‘पुण्य’, ‘बिगुल’ व ‘मूक वेदना’ भी मानवी संवेदना से जुड़ी रचनाएँ हैं।
राजनीतिज्ञों के दोगले व्यवहार से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। लेखक ने अपनी लेखनी से इस विषय पर भी रचनाओं की सृजना की है। लघुकथा ‘जूता’ एक सुंदर रचना है। मंत्री जी से मिलने वालों को उनके आगंतुक-कक्ष के बाहर जूते-चप्पल उतार कर जाना पड़ता है। लेकिन मंत्रीजादा बूटों समेत न केवल भीतर चला जाता है बल्कि एक बुजुर्ग के हाथ को अपने जूते से ज़ख्मी भी कर देता है। इसी विषय पर रचित संग्रह की रचनाओं ‘मकान’, ‘किरचें’ तथा ‘शिलान्यास’ का वर्णन करना बनता है।
हमारे देश को अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र हुए छ: दशक से भी अधिक समय बीत गया। इस दौरान शिक्षा का भी काफी पसार हुआ है। लेकिन फिर भी हम समाज से जाति-पाति व छूआ-छूत की सामाजिक बीमारी को पूरी तरह से मिटाने में असफल रहे हैं। संग्रह की लघुकथा ‘कर्म’ इस विषय पर महत्त्वपूर्ण रचना है। मेहतरानी की साफ-सुथरी स्कूल-ड्रैस पहने लड़की की हवा में लहराती चुन्नी पंडताइन के मटके को छू गई। बस इतनी सी बात पर पंडताइन क्रोध से सुलग उठी। उसने लड़की को लकड़ी से मारने का प्रयास किया तथा मटके को उठाकर बाहर फेंक दिया। ऐसे लोगों को अपने शरीर में भरी पड़ी गंदगी से घिन क्यों नहीं आती। इसी विषय पर ‘अहसास’, ‘द्रोणाचार्य जिंदा है’ तथा ‘मूर्ति’ जिक्र योग्य रचनाएँ हैं।
सामाजिक एवम् पारिवारिक रिश्तों के विभिन्न पहलुओं पर सांभरिया ने खुलकर कलम चलाई है। संग्रह में इस विषय से संबंधित अनेक रचनाएँ हैं। लघुकथा ‘नौकरानी’ की माँ विहीन लड़की पूजा को उसकी भाभी घरेलू नौकरानी ही समझती है। विवाह के बाद पहली बार मायके लौटने पर पूजा घर में एक लड़की को पोंछा-बर्तन करते देखकर भाभी से उसके बारे में पूछती है। भाभी का जवाब, “ननद, तुम तो चली गई…नौकरानी रख ली है, तीन सौ रुपये में।’ उसकी मानसिकता को व्यक्त करती है। इस विषय पर ‘आबरू’, ‘चोट’, दो मुँहे’, ‘पहचान’, ‘बांझ’, ‘इज्जत की सुरक्षा’, ‘चौकीदार’ आदि अच्छी रचनाएँ हैं।
संग्रह की रचना ‘आटे की पुड़िया’ जहाँ रुपये के तेजी से हो रहे अवमूल्यन की ओर इशारा करती है तो ‘नज़रिया’ समाज में फैली भुखमरी तथा मानवीय संवेदनहीनता की बात करती है। ‘नशावृत्ति’ हमारे समाज के तथाकथित समाज सुधारकों की कथनी और करनी के अंतर को पाठकों के सामने प्रस्तुत करती है तो फिरकापरस्ती पर रचित ‘मवाली’ में स्पष्ट संदेश है कि जैसा करोगे वैसा भरोगे। ‘नोंक’ दहेज की सामाजिक बुराई पर लिखी एक उत्कृष्ट लघुकथा है। ‘कायर’, ‘गुंडई’, ‘जानवर’ व ‘समझौता’ हमारे देश की पुलिस की कार्यप्रणाली का बहुत ही सटीक वर्णन करती हैं।
इस संग्रह में तीस के करीब ऐसी रचनाएँ हैं जो अमानवीय पात्रों को लेकर लिखी गई हैं। एक रचना में तो अमूर्त पात्र भी लिया गया है। कुछ लेखक अपनी रचनाओँ में बालकथाओं की तरह लघुकथाओं में भी पशु-पक्षियों को पात्र के रूप में लेते हैं। लघुकथा मानव जीवन की बात करती है, इसलिए इन रचनाओं के पशु-पक्षी ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वे मानव हों। कह सकते हैं लेखक अंतत: उनकी मानव से ही तुलना करते हैं। क्योंकि सभी उपमाएँ और तुलनाएँ लंगड़ी होती हैं, इसलिए ऐसी रचनाएँ वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। ऐसी रचनाओं की शैली लघुकथा के लिए उपयुक्त नहीं होती। उपरोक्त में से पंद्रह के लगभग रचनाएँ बोधकथा का अहसास कराती हैं। मानवेतर पात्रो को लेखर लिखी गईं रचनाओं के अपने राह से भटक जाने का ख़तरा सदैव बना रहता है। लघुकथा गोष्ठियों में बहुत बहस के बात यही बात उभर कर आई कि जब तक बहुत आवश्यक न हो, लघुकथा में मानवेतर पात्रों से बचा जाना चाहिए। ‘परजीवी’ तथा ‘पौध’ जैसी कुछ रचनाएँ कालदोष के चलते लघुकथा की परिधि से बाहर होती नज़र आ रही हैं।
कथानक और शिल्प के स्तर पर सांभरिया अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। रचना के शीर्षक के चयन में भी वे काफी सजग हैं।
इस संग्रह की रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं कि लेखक की लेखनी लघुकथा लेखन में बहुत लंबा सफर तय करने वाली है।
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पुस्तक: प्रतिनिधि लघुकथा शतक;लेखक: रत्नकुमार सांभरिया ;प्रकाशक: अनामय प्रकाशन, ई-776/7, लालकोठी योजना, जयपुर; संस्करण:2010;पृष्ठ ;128;मूल्य: 150 रुपये

 

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