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किन्नर जीवन के संघर्षों और आकांक्षाओं का संसार
मेरी किन्नर केन्द्रित लघुकथाएँ :पारस दासोत; पृष्ठ:104; मूल्य सज़िल्द :180रुपये ,प्रकाशन वर्ष:2013 ; प्रकाशन:अक्षरधाम प्रकाशन, करनाल रोड,कैथल – 136027 (हरियाणा)

लघुकथाकार के रूप में पारस दासोत वैविध्य और प्रयोगशीलता के लिए चर्चित नाम है। उनका चौदहवाँ लघुकथा संग्रह ‘मेरी किन्नर केन्द्रित लघुकथाएँ’ उनके योगदान और नयी जमीन को तलाशने की जद्दोजहद का परिचायक है। वे जितने यथार्थचित्रण के हिमायती हैं ,उतने ही अमूर्तन और सांकेतिक शिल्प के प्रयोक्ता भी। शब्दों में नये अर्थ भर कर रचना को संवादी और जीवन्त बनाए रखना उनकी बुनावट की विशिष्टता है, जिसमें उनका मूर्तिकार और चित्रकार भी सहकारी हो जाता है। शिल्प की चालक शक्ति के साथ यथार्थ से साक्षात्कार और अनुभवगम्यता रचना को प्रभावी बनाती है। पर इस संग्रह की लघुकथाओं का संसार भोगे हुए यथार्थ की अपेक्षा किन्नरों के समाजशास्त्र के बीच रहकर उनकी पीड़ाओं, संघर्षों और आकांक्षाओं को समझने का है और लेखक उनके अधूरेपन के संसार को स्त्री–पुरुषों की दुनिया के बीच रखता है। ये रचनाएँ काल्पनिक तौर पर गढ़ी हुई रचनाएँ नहीं हैं, बल्कि किन्नर जीवन का प्रतिरूप बन जाती हैं। हम तो उनको लघुकथा के शीर्षक की तरह नाम दे देते हैं, पर उनके जीवन का कथानक अनबूझा रह जाता है। इस संग्रह के बहाने रचनाकार ने किन्नरों के अन्तर्मन की कुरेदन, उनकी जीवनी शक्ति, उनकी आकांक्षाओं, उनके भीतर की मानव–हितैषिताओं का संवेदनशील चित्रण किया है और सच ही है कि इन दर्दों को समझने के लिए ‘बहुत बड़ा आदमी’ बनना पड़ता है। (छोटे हम – लघुकथा) यह रचनाकार की समाजशास्त्रीय अवलोकन और संवेदनशील दृष्टि ही है, जो किन्नर–संसार की जटिलताओं को सकलांग मानव समाज के बीच रखती है, जो उन्हें ‘हिजड़ा’ तो कह जाता है, उनकी तालियों और घाघरों से आतंकित रहता है ; पर उनके ‘असीसने’ से सन्ततियों को पूर्ण बनाने की आकांक्षा भी रखता है।
रचनाकार ने किन्नरों के जीवन और उनकी भाव–वृत्तियों को मानव समाज की पृष्ठभूमि में सिरजा है। किन्नरों को समानव समाज की मानसिकता अधूरेपन में देखने की होती है, कभी हेय भी – तिरस्करणीय भी। पर वे भी – महाभारत के अजु‍र्न की तरह, ईश्वर से अपूर्णता पाकर भी अपने जीवन–संघर्षों को जीते हुए कहीं–कहीं तो यह अधूरी और शापित मानवाकृति भी ‘मर्दाना संसार’ को चुनौती देती है, जो उन्हें हिजड़ा कहकर तिरस्कृत करती हैं। पर ‘आप भूल रहे हैं’ लघुकथा में जब तालियों–जनखों का अतिक्रमण कर वह ‘गुण्डे’ को पत्थर मारता है, तो ‘पुरुष शक्ति’ पर प्रश्नचिह्न लगा देता है।
इन लघुकथाओं में किन्नरों की शारीरिक–मानसिक पीड़ाओं का संवेदनशील चित्रण हुआ है। उनके भीतर भी पुरुष–स्त्री जैसी आकांक्षाएँ हिलोरे लेती हैं। स्तनों से चिपके तकिये में आँचल में छिपी चुलबुलाती मातृवत्सलता की चाह होती है। वे तो ‘टेस्ट ट्यूब’ में भी इन आकांक्षाओं को उगा नहीं सकते। उनकी वेदनाओं के आगे तो ‘ईश्वर’ भी उन्हें नमन करता है, शायद अपनी भूल के लिए। किसी अन्य के हिजड़े न होने की उनकी सुखानुभूति में उनकी वेदना कसमसाती है। माँ के प्रति उनका स्नेह चिट्ठी के लिए मजबूर करता है, पर वे निर्मोही बन विरागीपन में जी लेते हैं। अपनी नियति को भी ताली बजाते हुए ‘पुंसत्व’ के साथ जी लेने की उनकी आत्मशक्ति ‘मर्दों’ के लिए चुनौती बन जाती है। वे केवल ‘बकसीस’ के याचक नहीं, अपनी मेहनत से खाने का जज्बा भी रखते हैं। अपने साथियों के साथ छेड़छाड़ और मस्ती पारस्परिक स्नेह की भाव वृत्तियों से पल्लवित होती है। मृत्यु के प्रसंगों में भी उनका जीवन–राग नियतिकृत यातनाओं के बीच लोगों के लिए दुआएँ करता है। शिक्षण संस्थाओं में हेयता के बावजूद पढ़ने की चाह और फँसे हुए लोगों को मुकाम तक पहुँचाने के लिए ड्राइवरी का कौशल उनके विकासशील स्वभाव को रेखांकित करता है। लेकिन शासन प्रशासन में किन्नरों की अनदेखी, भ्रूण हत्याएँ, वृद्धों के प्रति उपेक्षा भाव उन्हें आहत करते हैं। जीवन के अनेक संगत–विसंगत परिदृश्य अश्रुधाराओं के बीच उनके जीवन संघर्षों का बयान करते हैं। लेखक ने किन्नरों की ‘बॉडी लैंग्वेज’ के साथ उनके अन्तर्मन को पहचानने की कोशिश की है, यद्यपि ये उनकी मुस्कानों के बीच व्यथाओं और व्यथाओं के बीच मुस्कानों को कथा–भाषा देना कठिन है –
अरे मेरी दवात। मेरी दवात दिख नहीं रही, कहाँ चली गई। किन्नर यकायक अपनी दवात को ढूँढते–ढूँढते रुआँसे स्वर में बोला – अरे मेरी कलम भी तो नहीं दिख रही। अब... मैं कैसे पूरी करूँ अपनी कथा।
पारस दासोत की लघुकथाएँ अपनी बुनावट में सुगठित, अर्थवत्ता के लिए सुनियोजित और सम्प्रेषणीयता के लिए पाठक केन्द्रित होती हैं। इन कथा–व्यापारों के बीच लेखक द्रष्टा बना रहता है, कथाएँ ही गन्तव्य तक पहुँच कर उसे व्यंजना तक ले जाती हैं। लेखक किन्नरों की अनुभूतियों और शक्तियों को, शापित अनुभव और नियति को केवल वर्तमान में ही नहीं सँजोता, बल्कि ‘ईश्वर’ और ‘महाभारत’ के मिथकीय पात्रों को जोड़।कर उन्हें प्रासंगिक और अर्थगर्भी बना देता है। वह चित्र और मूर्ति के माध्यम से उनके भीतर की चाहतों को रूपाकृत कर उन्हें पूर्णता में लाने की कोशिश करता है। अनुभूतियों की तीव्रता और वेदनाओं को कभी डायरी शैली में तो कभी व्यंग्यात्मक शैली में पेश करता है, जिससे लघुकथा के शिल्पगत विकास और वैविध्य की प्रयोगपरकता जाहिर होती है। इन कथाओं के संवाद और चयनित शब्द किन्नरों की जीवनी शक्ति और उनकी चाहतों को अर्थसम्प्रेषी बनाते हैं –
सुना नहीं तूने। हट और कहीं जाकर तालियाँ पीट।
आप भूल रहे हैं। मेरे को भी दो हाथ, दो पैर हैं।
किन्नरों के प्रति मानवी–हेयता और अधूरेपन के बावजूद ‘हाथ–पैर’ शक्ति का अहसास कराते हैं। ये लघुकथाएँ अपने संवादीपन में किन्नरों की जिन्दगी के अनेक अक्षों को रूपाकृति देते हैं, इसलिए इनके कथाक्रम में शिथिलता नहीं है। पारस दासोत ने किन्नरों के समाजशास्त्र और उनकी मानवीय आकांक्षाओं को मनुष्यों के संसार से जोड़ा है, उनके यथार्थ, उनके जीवन संघर्ष, उनकी वेदनाएँ और मानवी दुनिया में उनके कचोटते हुए अनुभव बिना किसी पुनरावृत्ति के संवादी कथाशैली में जीवन्त हुए हैं।
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