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अभिनव इमरोज : भविष्य की ओर संकेत करता लघुकथा विशेषांक
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विभिन्न विषयों, सन्दर्भों और व्यक्तियों की तरह ही विभिन्न विधाओं पर केन्द्रित पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों की एक समृद्ध परम्परा रही है। इस परम्परा ने कई दृष्टिकोंणों से विभिन्न विधाओं के सृजात्मक विकास को तो प्रोत्साहित किया ही है, अनेक रचनाकारों में उस विधा विशेष के सन्दर्भ में रचनात्मक ऊर्जा का संचार भी किया है। लघुकथा की विकास यात्रा का भी एक बड़ा हिस्सा पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों के माध्यम से ही तय हुआ है। लघुकथा के सन्दर्भ में अब तक उठा शायद ही कोई प्रश्न हो, जो आज अनुत्तरित हो, तो इसका बड़ा श्रेय पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांको को ही जाता है। लघुकथा आज साहित्य, विशेषतः कथा-साहित्य के केन्द्र में प्रतिष्ठित हो पाई है, तो इसमें भी विशेषांकों की महती भूमिका रही है। परन्तु इक्कीसवीं सदी में लब्ध-प्रतिष्ठित और व्यापक प्रसार वाली पत्रिकाओं में एकाध को छोड़कर शायद ही किसी ने इस बहु-प्रसारित विधा पर विशेषांक दिया हो। हो सकता है कि उन पत्रिकाओं ने लघुकथा पर अपने योगदान को पूर्ण मान लिया हो या फिर लघुकथा पर और अधिक विमर्श को गैर जरूरी मान लिया हो। होता भी है कि जब कोई विधा अपना एक सुनिश्चित स्थान बना लेती है, तो उसके विधागत सन्दर्भों को रेखांकित किए जाने के प्रयास सामान्यतः शिथिल पड़ने लग जाते हैं, यद्यपि उसमें सृजन और उसके साहित्यिक सरोकारों पर दूसरे तरीकों से काम चलता रहता है। इस वस्तु-स्थिति के बावजूद लघु-पत्रिकाएँ लघुकथा पर विशेषांकों के प्रकाशन की शृंखला आज भी जारी रखे हुए हैं। पिछले तीन-चार वर्षों में कई लघु पत्रिकाओं के विशेषांकों का आना और इनके सम्पादन आदि से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा आन्दोलन के कई बड़े रचनाकारों का जुड़ना कुछ विशेष संकेत करता है। इस संकेत में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की चीजे शामिल हैं। इस संकेत को समझने के लिए हमें लघुकथा के परिदृश्य से जुड़े कुछ तथ्यों पर संक्षिप्त दृष्टि डाल लेनी चाहिए।
लघुकथा आन्दोलन के माध्यम से जो कई दर्जन रचनाकार उभरकर सामने आए थे, उनमें से गिने-चुने हस्ताक्षर ही लघुकथा के सृजन और विमर्श में अपनी निरन्तरता बनाए रख पाए हैं। यहाँ तक कि आज कई वरिष्ठ लघुकथाकारों का नया सृजन देखने तक को नहीं मिलता। नई पीढ़ी के जो रचनाकार पिछली सदी के अन्तिम दशक या फिर इक्कीसवीं सदी के पिछले वर्षों मं। लघुकथा लेखन से जुड़े हैं, उनमें से यद्यपि कई-एक ने कुछेक बेहतरीन लघुकथाएँ लिखीं हैं, परन्तु सार्थक लेखन से व्यापक प्रतिष्ठा अर्जित की हो, समर्पित लघुकथाकार के तौर पर विशिष्ट योगदान किया हो, जिसे उदाहरण मानकर उन्हें रेखांकित किया जा सके, ऐसे मुट्ठी भर नाम भी उभरकर सामने नहीं आ पाए हैं। नए लघुकथाकार कुछ अच्छे प्लॉट्स, कुछ नए कथ्य लाकर भी लघुकथा के स्वरूप को नए आयाम देना तो दूर, उसके वर्तमान स्वरूप को भी बनाए रखने में सफल दिखाई नहीं देते। कई ऐसे नाम लघुकथा में उभरकर सामने आए हैं, जिन्होंने प्रॉपर्टी की तरह लघुकथा की जमीन तो हासिल कर ली है, परन्तु उस पर कोई अच्छा मकान खड़ा नहीं कर पाए हैं, सिर्फ उसकी रिसेल में लगे हुए दिखाई देते हैं। लघुकथा को और आगे ले जाने के कुछ प्रयास तो लघुकथा की विकास यात्रा को यू टर्न देते दिखाई पड़ते है। कुछ और भी स्थितियाँ हैं, उनकी चर्चा करने का साहस करना मेरे लिए उचित नहीं होगा। इस परिदृश्य से जो चिन्ताएँ उभरती हैं, उनकी चर्चा अधिक सार्थक होगी। हमारे वरिष्ठ और चिन्तनशील साथी लघुकथा को प्रतिष्ठा के जिस मुकाम तक लाए हैं, क्या यही उसका आखिरी मुकाम है? क्या इसके आगे कोई दरवाजा नहीं खुलेगा? अपने वर्तमान मुकाम पर स्थिर होकर लघुकथा अपने सामाजिक सरोकारों का निर्वहन करती रह पायेगी या हम यहाँ से भी पीछे लौट जायेंगे? आने वाले दो-ढाई दशकों में क्या लघुकथा-सृजन में कोई व्यापक गैप आयेगा? क्या उस संभावित गैप को भरने के लिए हमारी नई पीढ़ी अपने-आपको तैयार कर पा रही है? तमाम लघ्वाकारीय साहित्य-विधाओं की सार्थक अगुआई करते हुए मानवीय जीवन के बदलावों के अनुरूप लघुकथा कोई नया आयाम हासिल करेगी या रिले दौड़ की सह-धाविका की तरह निरन्तरता का प्रतीक चिह्न किसी और को सौंपकर पैवेलियन लौट जायेगी?
इन तमाम चिन्ताओं का समाधान ही वह बिन्दु है जिसकी ओर मौजूदा दशक के लघु पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों की शृंखला और उसके पीछे प्रेरणाओं की ऊर्जा लेकर खड़े डॉ. अशोक भाटिया, डॉ. बलराम अग्रवाल, श्री सुकेश साहनी, श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी आदि जैसे वरिष्ठ लघुकथाकार संकेत कर रहे हैं। इन लघुकथा विशेषांकों में से कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषांकों में- लघुकथा पर विमर्श को बदले हुए परिवेश में कुछ आगे ले जाने की बात हो, लघुकथा की पृष्ठभूमि से दिशा-रेखा को खोजने-उभारने का प्रयास या फिर विमर्श की एक सांकेतिक भाषा, जहाँ कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया जाए, को विकसित करने का प्रयास हो, कुछ न कुछ ऐसा देखने को मिला है, जिसकी जरूरत है। भले अभी यह संकेत बहुत स्पष्ट शक्ल धारण न कर पाया हो, पर एक जरूरत को समझने के लिए यह पर्याप्त है। यही समझ लघुकथा पर नए विमर्श और नई दृष्टि और तत्प्रेरित विशेषांकों तथा संकलनों की प्रासंगिकता का आधार भी बनती है। हमें लघुकथा में और अधिक संभावनाओं की तलाश में आगे जाना है तो आने वाले समय में लघुकथा पर कुछ विशिष्ट ऊर्जा से समृद्ध विशेषांक लाने होंगे और उन बड़ी पत्रिकाओं, जिन्होंने आन्दोलन के दौरान लघुकथा को अपना समर्थन और सहयोग दिया, को एक बार फिर से उनकी जिम्मेवारी का अहसास कराना होगा। हाल ही में श्री सुकेश साहनी एवं श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के संयुक्त अतिथि संपादन में प्रकाशित ‘अभिनव इमरोज’ के लघुकथा विशेषांक को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना-समझना होगा।
‘अभिनव इमरोज’ का दिसम्बर 2013 अंक लघुकथा विशेषांक है, इसे दो भागों में बाँटा गया है- प्रथम भाग के करीब 60 पृष्ठों का अतिथि संपादन किया है श्री सुकेश साहनी एवं श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु ने और दूसरे भाग का डॉ. निर्मल सुन्दर ने। लघुकथा पर विशेष सामग्री की दृष्टि से पहला भाग ही प्रमुख है। अपनी संपादकीय दृष्टि का उपयोग करते हुए अतिथि संपादक-द्वय ने सामग्री को चार हिस्सों में विभाजित किया है। पहले हिस्से में विमर्श की प्रक्रिया को एक अलग तरह से प्रस्तुत किया गया है। ‘रचनाकार: सृष्टि और दृष्टि’ शीर्षक से इस हिस्से में पन्द्रह प्रमुख लघुकथाकारों की स्वपसन्द की अपनी एक-एक लघुकथा को उसकी रचनात्मकता पर उनकी अपनी ही टिप्पणी के साथ प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि सभी लघुकथाएँ पूर्व प्रकाशित और अधिकतर पाठकों के समक्ष पुनर्पापाठ जैसी हैं, इसलिए संभव है कुछ पाठकों को यह दोहराव उचित न लगे; किन्तु इसके पीछे छिपे संपादकीय दृष्टिकोण को समझा जाना जरूरी है। मुझे लगता है कि यह वरिष्ठ रचनाकारों की रचना प्रक्रिया और रचना में अन्तर्निहित रचनात्मकता को समझने का अवसर नई पीढ़ी के लघुकथाकारों के समक्ष रखने जैसा है। निश्चित रूप से उन्हें उन अच्छे प्लॉट्स और नए कथ्यों, जिन्हें ये नए लघुकथाकार सामने ला रहे हैं, को अच्छी रचनाओं में बदलने की प्रेरणा देने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा। कहीं-कहीं, प्रमुखतः भगीरथ जी की टिप्पणी में, लघुकथा-विमर्श के कुछ छूटे पहलुओं पर महत्त्वपूर्ण चर्चा भी हुई है। भगीरथ जी के दृष्टिकोण से कुछ मित्र पूरी तरह सहमत न भी हों, तब भी उनका दृष्टिकोण लघुकथा पर कुछ नए सिरे से सोचने की जरूरत अवश्य सामने रखता है। तीसरे भाग ‘कही-अनकही’ में यद्यपि समीक्षकों के द्वारा अन्य लघुकथाकारों की कुछ पूर्व प्रकाशित लघुकथाओं पर चर्चा को शामिल किया गया है। इन दोनों उपखण्डों में यह लघुकथा-विमर्श का एक अलग तरीका है। दरअसल डॉ. बलराम अग्रवाल एवं सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के संपादन में आये पिछले कुछ लघुकथा विशेषांकों में विमर्श को नया रूप देने की संपादकीय छटपटाहट देखी जा सकती है। कहीं न कहीं यह नई पीढ़ी के सृजनधर्मियों को लघुकथा के विभिन्न पक्षों के साथ समीक्षा-समालोचनात्मक दृष्टि के संप्रेषण की कोशिश भी है।
दूसरे भाग में आठ प्रमुख पंजाबी लघुकथाकारों की महत्त्वपूर्ण लघुकथाओं के हिन्दी में अनुवाद प्रस्तुत किए गए हैं, जो संवेदना के स्तर पर बेहद प्रभावशाली हैं। हिन्दी व पंजाबी के वरिष्ठ लघुकथाकार व अनुवादक श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल ने अपने आलेख में इन सभी आठों लघुकथाओं पर संगत टिप्पणियाँ लिखी हैं, जो लघुकथाओं में व्याप्त संवेदना और उद्देश्यपरकता को स्पष्ट करती हैं।
चौथे भाग ‘संचयन’ में 34 नए-पुराने, नियमित-अनियमित लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा को शामिल किया गया है। इनमें कई लघुकथाएँ रेखांकित करने योग्य हैं और यथार्थ की पृष्ठभूमि व संवेदना के स्तर पर कुछ प्रभावशाली आयाम लघुकथा में जोड़ती हैं। बच्चों में संस्कारों की उमंगें भरने में माँ-बाप से ज्यादा दादा-दादी सक्षम होते हैं। लेकिन कुछ परिस्थितियाँ और कुछ माँ -बाप के सुविधाभोगी दृष्टिकोण, बच्चे उन्हीं दादा-दादी से विलग होने के लिए विवश हैं। ऐसे बच्चे जब दादा-दादी के प्यार का वास्तविक रूप कहीं देखते हैं, तो उसे पाने की स्वाभाविक हूक उनके मन में उठती है। इस ‘हूक’ को अभिव्यक्ति दी है वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे जी ने अपनी इसी ‘हूक’ शीर्षक लघुकथा में।
नई पीढ़ी के लघुकथाकारों में राधेश्याम भारतीय ने ‘मुआवजा’ में एक नया कथ्य देने की कोशिश की है। फसलों के नष्ट होने पर सरकार उन्हें मुआवजा देती है, मगर उसी खेती पर निर्भर ‘खेतिहर मजदूर’ भी तो नुकसान में आते हैं। शहरों के नजदीक वाले गाँवों के मजदूर इस नुकसान की कुछ भरपाई जीविका से जुड़े अन्य क्षेत्रों में मजदूरी करके कर लेते हैं, परन्तु दूरस्थ गाँवों के मजदूरों के लिए अन्य क्षेत्रों में मजदूरी प्राप्त करना असंभव सा होता है। इस दृष्टि से फसलों के नष्ट होने पर किसानों के साथ उन्हें भी मुआवजा क्यों नहीं? यह एक बड़ा प्रश्न है, जो लघुकथा को बड़ा बनाता है। काश, यह लघुकथा हमारे नीति-निर्माताओं की दृष्टि से गुजर पाये और ईश्वर उनकी दृष्टि में थोड़ी-सी संवेदना भर पाए! कई ईमानदार अधिकारियों की ईमानदारी का फायदा उनके अधीनस्थ उठाते रहते हैं और लोगों को ठगते रहते हैं। ईमानदार की ईमानदारी भी, तंत्रबद्ध व्यवस्था में संदिग्ध बनी रहती है। इस स्थिति को डॉ. प्रद्युम्न भल्ला ने ‘बड़े साहब’ में प्रभावी तरीके से उठाया है। अनवर सुहैल की ‘देशभक्ति’ भी एक कचोटते हुए कथ्य को सामने रखती है। क्या हर मुसलमान की देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाना उचित है? जब सामान्यीकृत टिप्पणियों द्वारा ऐसे प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, तो मानवीय मूल्यों में विश्वास करने वाले किसी भी उस व्यक्ति, जो किसी धर्म विशेष का होने से पहले स्वयं को अपने देश का एक जिम्मेवार नागरिक समझता है, के मन को ठेस पहुँचना स्वाभाविक है। शिल्प और संरचनात्मक गठन के स्तर पर भले इस लघुकथा में कुछ गुंजाइश बाकी हो परन्तु इसका कथ्य मानव मन की अतीव गहराई में स्थित अनुभूति ग्राही तल तक झाँकने को विवश करता है।
अप्रवासी साहित्यकारों के लेखन के बारे में एक वरिष्ठ साहित्यकार ने लिखा था कि जिस देश में अप्रवासी लेखक रह रहे हैं, उस देश की परिस्थितियाँ , वहाँ के पात्र, वहाँ की पृष्ठभूमि आदि अप्रवासी लेखन की विषय-वस्तु बने, तभी वह महत्वपूर्ण हो सकता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो डॉ. सुधा ओम ढींगरा की लघुकथा ‘अनुत्तरित’ को सार्थक माना जाना चाहिए। यह लघुकथा हमें मल्टीनेशनल कार्पोरेट कल्चर की शोषक वृत्ति के गहन तन्तुओं से परिचित कराती है। एशियन्स के बारे में विदेशी कार्पोरेट्स के दृष्टिकोण का पर्दाफाश करती इस लघुकथा में कथ्य, कथानक, पात्र, पृष्ठभूमि सभी कुछ अप्रवासी साहित्य की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
अन्य लघुकथाओं में सुदर्शन रत्नाकर, पवन शर्मा, डॉ. मंजश्री गुप्ता, मनोज सेवलेकर, विज्ञानभूषण, अरुण अभिषेक आदि प्रभावित करते हैं। डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र जी की ‘हर शाख पे’ एक अच्छी रचना है, पर उसका अन्त प्रभावित नहीं करता। थोड़ी रचनात्मक दृष्टि का उपयोग करके इसे प्रभावशाली बनाया जा सकता था। कुछेक लघुकथाओं (ज्ञानदेव मुकेश की ‘सुरक्षा’, ज्योति जैन की ‘शिक्षा’ आदि) में यथार्थ को बेपर्दा करने के नाम पर नकारात्मक कथ्य उभरते हैं। एक लेखक और सामान्य व्यक्ति की सोच में कुछ अन्तर होता है, यही अन्तर किसी रचना में रचनात्मकता को लाता है। इसके बिना पान या चाय के खोखे पर खड़े साधारण व्यक्तियों की चिन्तन-चर्चा और एक लेखक के लेखन में कोई फर्क नहीं हो सकता।
संचयन की अन्य लघुकथाओं के कथ्य यद्यपि सामान्य हैं, लेकिन रचनाकारों ने अपने-अपने ढंग से उन्हें प्रस्तुत किया है। कुल मिलाकर यह संचयन वर्तमान लघुकथा परिदृश्य का प्रतिनिधित्व करता है और नई पीढ़ी को संभावनाओं के नए दरवाजों की ओर देखने का संकेत करता है। समग्रतः विशेषांक अपने उद्देश्य में सफल है। अंक के शेष तीसेक पृष्ठ भी विशेष सामग्री के लिए ही उपलब्ध हो पाते, तो शायद सुकेश जी और हिमांशु जी को कुछ और कर दिखाने का अवसर मिल सकता था। लघु पत्रिकाओं की अपनी परिस्थितियाँ होती हैं, अपनी सामान्य प्रतिबद्धताएँ होती हैं, जिनसे कुछ निर्णय प्रभावित होते हैं। बहल जी ने अभिनव इमरोज के इस अंक से लघुकथा की जरूरत को समझा और यथासामर्थ्य अपना समर्थन दिया, यह बड़ी बात है।
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ईमेल- umeshmahadoshi@gmail.com
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