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समाजबोध  और  मानवीय संवेदना की लघुकथाएँ
किसी भी बात को संश्लिष्ट रूप में कहना बहुत कठिन काम है ।इसके लिए दो बातें बहुत ज़रूरी हैं-भाव, विचार, कल्पना  की स्पष्ट -क्रिस्टल  क्लिअर और सही  अवधारणा; दूसरा तदनुरूप सुलझी हुई ,कसी हुई भाषा  एवं प्रस्तुति । लघुकथा के सन्दर्भ में यह बात पूरी ताह से सटीक कही जा सकती है । कुछ का कुतर्क है कि छोटी विधा में लिखने से  कोई  रचनाकार बड़ा नहीं बन सकता ।  ऐसे लोगों को चाहिए कि वे दूर न जाएँ-प्रसाद जी का आँसू काव्य पढ़ें। चार पंक्तियों और 14-14 मात्राओं का छोटा-सा  छन्द । क्या किसी विधा को छोटी विधा कहना  भी न्याय -संगत  होगा? रचना का सन्देश  कितनी दूर तक  जाता है,जनमानस तक उसकी कितनी पैठ है, इसी में विधा की सफलता है। मोटे-मोटे आलोचना-ग्रन्थों की पठनीयता बहुत सीमित होती है या न के बराबर होती है।प्राय: इस तरह के पोथे पुस्तकालय की अल्मारियों में दम तोड़  देते हैं और अन्तत:  दीमकों का आहार बनते हैं । जिसको केवल लेखक ही समझे , वह न कोई विधा है और न साहित्य का प्रकार ।

    सुदर्शन रत्नाकर जी  वैसे तो 1962 से लेखन  में सक्रिय हैं। कहानी , उपन्यास , कविता आदि में इनका सृजन साहित्य जगत् में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुका है।लघुकथा की शुरुआत आपने बाद में की। बात 1989 के केन्द्रीय विद्यालय लारेन्स रोड मे आयोजित ‘कंद्रीय विद्यालय संगठन के स्नातक शिक्षकों के  15 दिवसीय सेमिनार की है, जहाँ पाँच राज्यों के शिक्षक एकत्र थे । इस सेमिनार में एक सत्र लघुकथा पर केन्द्रित किया गया , जिसमें कथ्य और शिल्प पर चर्चा के साथ कुछ लघुकथाएँ भी पढ़ी गई थीं।सुदर्शन रत्नाकर जी वहाँ मौजूद थीं। इसके बाद से ही आपका लघुकथा का सिलसिला शुरू हुआ ।बलराम द्वारा सन्पादित विश्व  लघुकथाकोश में भी  इनकी लघुकथाएँ शामिल की गईं।



     केन्द्रीय विद्यालय की प्रतिष्ठित शिक्षिका होने के कारण सामाजिक  सजगता और सरोकार इनके रचनाकर्म का आधार रहे हैं ।इनके उपन्यासों, कहानियों में ये सरोकार बहुत तीव्रता के साथ मुखर हुए हैं । सुदर्शन जी उसी प्रकार ‘साँझा दर्द’ की  अपनी लघुकथाओं  में भी  हर शोषित और पीड़ित के साथ खड़ी दिखाई देती हैं।पारिवारिक सम्बन्धों का क्षरण, सामाजिक शोषण , राजनैतिक अवसरवाद आदि अनेक समस्याएँ इनकी लघुकथाओं का विषय बनी हैं । समस्याओं के समाधान रचनाकार प्रस्तुत करे यह ज़रूरी नहीं, फिर भी कहीं –कहीं आपने समाधान का संकेत भी किया है ।
यदि हम गहराई से विचार करें ,तो  हर धार्मिक , राजनैतिक ,सामाजिक संगठन जब कल्याण की बात करता है । इन संगठनों  का पारस्परिक विरोध फिर भी शत्रुता  की सीमा तक जारी रहता है । इसका सीधा-सा उत्तर है- हर संगठन जनसाधारण से अपनी ताकत पाता है और कुछ समय बाद यह शक्ति अन्धेपन का शिकार होकर अपनी जड़ों को ही खोदने लगती है । जिसकी पीठ पर सवार होकर ये यात्रा करते आए हैं , वही जनसामान्य उपेक्षित होने लगता है ।

    ‘अन्तर्द्वन्द्व’ लघुकथा में  मीडिया और प्रशासन क बीच भुखमरी से पिसते लोग स्वत्व  बेचने को तैयार नहीं ,किसी का  मोहरा बनने को तैयार नहीं। उन्होंने  खाने का सामान भी लौटा दिया और प्रशासन के दबाव में सरकारी झूठ पर भी अपनी मुहर नहीं लगाई । निम्नवर्ग का जीवन सदा बाधाओं  से भरा होता है ।जीवन की मूल आवश्यकताओं के अभाव को झेलकर  भी  वे खुशी के मिले दो पल को भी त्योहार की तरह  मनाते हैं । ‘धूप’ लघुकथा में बारिश से  रातभर परेशान रहे परिवार के बच्चे  सुबह बादल छँटने पर  धूप में खेलने लगते हैं ।अब उन्हें रात्रि की परेशानी का कोई ख्याल तक नहीं  था।

    बिना सोचे-समझे बच्चों को  दोषी मानकर दण्ड देना कतई उचित नहीं । ‘आत्मग्लानि’ लघुकथा में फूलदान तोड़ने का शक जिस छोटे  बच्चे पर किया जाता है,उसकी जमकर पिटाई कर दी  जाती है। उसे अपनी बात कहने का अवसर तक नहीं दिया जाता है , किसी को फ़ुर्सत ही नहीं । वास्तविकता यह है कि फूलदान  बड़ी बेटी  से टूट गया था । जब उसने डरते-डरते बताया तो मम्मी को वास्तविकता का पता चला। ‘गुनहगार’ लघुकथा की समस्या  भी  मनोवैज्ञानिक ही है । नौकरानी की बेटी, रबर , पैंसिल, रंग आदि चुपचाप उठाकर अपने बैग में छुपा लेती है । सामान छुपाने का उसका यह प्रयास चोरी नहीं कहा जा सकता । वह भी स्कूल में पढ़ने के लिए लालायित है । वह सोचती है कि जब मैं स्कूल पढ़ने जाऊँगी , यह सब सामान काम आएगा ।

     आज  सर्वशिक्षा अभियान  की  जो धारणा है , वह पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी ।‘मिड डे मील’ में जिस शिक्षा की बात की जाती है, उसके ऊपर पेट की भूख का सवाल ज़्यादा भारी पड़ता है। भट्टे  पर काम करने वाले मज़दूर के  बेटे की विवशता है, दोपहर का भोजन । वह कक्षा 5  पास करना नहीं चाहता । पास करके छठी में चला जाएगा ,तो उसे ‘मिड डे मील’ से वंचित होना पड़ेगा । यह हमारी शिक्षा की विडम्बना है ।‘मैल’ लघुकथा के केन्द्र में भी  गरीब वंचित वर्ग ही  है ।दूसरी ओर दानशीलता का पाखण्ड करने वाला वर्ग है ,जो मीडिया के सामने  प्रशंसा पाने के  लिए  गरीब वर्ग  में स्वेटर और खाने के पैकेट बाँटता है । उस नेता को  अखबार में अपने इस कार्य की सचित्र खबर चाहिए । जब वह ड्राइवर से कहता है –जल्दी चलो , जाकर नहाना भी है । ‘शुद्धजात’  में निम्न जातिवाली राधा से  माँ की सेवा कराई जाती है। माँ को खबर नहीं होती की उसकी सेवा करने वाली किस जाति की है।एक दिन माँ जी को पता चल ही जाता है । डर था कि पुराने विचार वाली माँ जी  बहुत बुरा मानेंगी; लेकिन ऐसा कुछ नहीं  होता है । वह बहू से कहती है-‘ जो सेवा करे वही शुद्ध जात’

    समाज में देखा जाए तो दो  ही वर्ग हैं-एक शोषित और दूसरा शोषक ।जब जिसका वश चल जाए तो वह पाला बदल सकता है। ‘हेकड़ी’  में रिक्शावाला बीस रुपये माँगता है। होटल में मौजमस्ती  करके निकलने वाला सौदेबाजी करता है । वह  उसको 15 रुपये या 10 रुपये लेने के लिए कहता है । झुँझलाकर उसने रिक्शावाले को ‘दो टके का आदमी’  तक कह दिया थ।हारकर उसे घर तक पैदल ही जाना पड़ता है। रिक्शा वाले मना कर देते हैं ; कोई भी उसे ले जाने को तैयार नहीं । शोषण के विरुद्ध  यह प्रतिक्रिया प्रतिरोध स्वरूप उभरकर आई है। एक ऐसी भी स्थिति हो सकती है, जहाँ दोनों ही शोषित हों । ‘साँझा दर्द’ का चारपाई बुनने वाला तथा गरीबी के  कारण टूटी चारपाई बुनवाने की हैसियत न रखने वाला दोनों की स्थिति एक जैसी है। इसी कारण यह दर्द साँझा दर्द हो जाता है । चारपाई बुनने वाले को पाश कॉलोनी में अब यह काम नहीं मिल पाता है । वह ठण्ड में ज़मीन पर सोने वाले मज़दूर से चारपाई बुनवाने का आग्रह करता है। वह इतना अभावग्रस्त है कि चारपाई बुनवाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता और ज़मीन पर लेटा रहता है। चारपाई बुनने वाला अपना काम करता है ।वह चारपाई बुनकर  वहीं  टिका देता है और  अपना सामान समेटकर अपनी राह चला जाता है।

‘शर्मिन्दगी’ में गाँव वाले पड़ोसियों की उनके रहन –सहन, शोर –शराबे  के कारण उपेक्षा की जाती है । उस परिवार को घर पर आयोजित पार्टी में भी नहीं बुलाया जाता। रात में जब कपिल को दिल  का दौरा पड़ा ,तो न अच्छे कहे और समझे जाने वाले पड़ोसी  आए ,न अन्य किसी मित्र ने ही फोन उठाया। जब पत्नी ने उन गाँव वाले पड़ोसियों को वस्तु स्थिति बताई तो सभी लोग सहायता के लिए तत्पर हो गए । कपिल को अपनी गाड़ी से अस्पताल ले गए।इलाज के लिए पैसा भी जमा कराया , क्योंकि वह तो हड़बड़ाहट में पर्स लेना ही भूल गई थी।जब तक कपिल स्वस्थ होकर घर नहीं गए,सबने पूरी देखभाल की ।इस लघुकथा में मानवीय मूल्य को ओढ़े गए शिष्टाचार से अधिक महत्त्वपूर्ण माना है।

    यह एक कटु सत्य है कि चमक-दमक किसी की इंसानियत का प्रतीक नहीं हो  सकती है।‘खुशबू’ लघुकथा में भी दो वर्ग सामने हैं-बन ठनकर  रहने वाला तथाकथित शिष्ट वर्ग  और दूसरा भद्द देहाती । महिला यात्री को देहाती व्यक्ति के शरीर से आने वाली बदबू भी परेशान  कर रही है ।वह  पर्स भूल आई है या पर्स  कहीं गिर गया है, पता नहीं ।बैग  से तलाशकर वह केवल 39 रुपये निकाल पाती है। किराया पूरा नहीं हो सका ।सात रुपये कम हैं। कण्डक्टर छूट देने को तैयार नहीं ।अन्य यात्री सहयोग करने वाले नहीं, केवल मज़ाक करके मज़ा लेने वाले हैं । इसी बीच देहाती व्यक्ति ने उसके किराए के बाकी रुपये चुकता करके कण्डक्टर को चुप कर  दिया ।अब उस देहाती में से उसको बदबू नहीं आ रही थी ।

     पारिवारिक जीवन-मूल्यों का इस विकास के दौर में बहु क्षरण हुआ है । उड़ान , भ्रम और   मुक्ति लघुकथाएँ वृद्धों  की विवशता पर केन्द्रित हैं । ‘उड़ान’  के बुज़ुर्ग  पति –पत्नी आज घोर उपेक्षित हैं । वे जीवन भर बच्चों  के पोषण और हित के लिए मरते –खपते रहे । आज वे असहाय हुए ,तो सब अपने-अपने रास्ते चल दिए। ‘भ्रम’ में दादी ही पोते –पोतियों के लिए सब कुछ है । दादी से हरदम लिपटी रहने वाली लाडली , पलभर भी अलग न होने वाली पौत्री  अलग बनाए नए मकान  में जाने लगी, तो चुपचाप जाकर गाड़ी में बैठ गई। जाते समय दादी से मिलना तो दूर ,मुड़कर  एक बार देखा भी नहीं ।यह लघुकथा बहुत मार्मिक है।इस जगत् का कटु सत्य भी ।यहाँ दादी का भ्रम ही नहीं टूटता ,वरन् सम्बन्धों का पूरा गणित ही उल्टा पड़ जाता  है ।‘मुक्ति’ में असाध्य रोग से पीड़ित बीमार माँ की विवशता है ,साथ ही  अहर्निश सेवारत पुत्र भी है।बीमारी दूर नहीं होने पर पुत्र भी आज़िज आ चुका है। वह हार-थककर नारकीय और  पीड़ामय जीवन से माँ की मुक्ति की कामना करता है।एक दिन माँ का प्राणान्त हो जाता है। जब वह सब क्रिया-कर्म को सम्पन्न करके घर आता है ,तो खुद को नितान्त अकेला पाता है  । जिस चारपाई पर माँ सोती थी , आज वह सूनी पड़ी थी।उस असह्य सन्नाटे में वह चारपाई  के पाये पर सिर रखकर फफक पड़ा ।यह लघुकथा आकारगत दृष्टि से बहुत छोटी है,लेकिन प्रभाव की दृष्टि से बहुत गहरी है।

    गाँव में खूब परिवर्तन हुआ है । सुख-सुविधाएँ मिल गई हैं। घर परिवार में भी जो बाह्य रूप से बदलाव आया है ,प्रथम  दृष्टि में अच्छा लगता है ।साथ बिठाकर भोजन कराने के बजाय जब बाऊ जी का खाना कमरे में भिजवा दिया जाता है , तो यह देखकर वह बहुत आहत होता है।लगता है उसके भीतर कुछ चरमरा गया है । यह बारीक बुनावट वाली लघुकथा ‘ बदलाव’ है। आज यह किसी एक परिवार की कथा नहीं , बल्कि हज़ारों परिवारों का निर्मम सत्य है ।यह बदलाव सारी कोमलता , अपनेपन को लील गया है ।

‘ फ़ासले’ , ‘दूरियाँ’ लघुकथाओं में निरन्तर टूटते –ढहते अपनत्व के जर्जर किले हैं । इन लघुकथाओं में प्रेम और सद्भावना की ढहती दीवारें हैं। मुम्बई जाने पर विपिन अपने चचेरे भाई रवि और अरविन्द से  नहीं मिल सका । लगता है महानगर की भगमभाग में किसी के पास समय नहीं है । सम्बन्धों की सारी ऊष्मा को लक़वा मार गया है। ‘दूरियाँ’ के पड़ोसी रोज के सुख –दु:ख के साथी थे । गुनगुनी धूप का मिलकर आनन्द लेते थे, आपस में बात करके राहत महसूस कर  लेते थे। एक के बाद दोनों के यहा मंज़िले  बनती  गईं , आँगन की धूप नदारद होती गई और फिर सब अपने में सिमटकर रह गए । पास रहकर भी एक दूसरे से बहुर दूर । सच कहा जाए तो गाँव और शहर दोनों  इस अपरिचय के विष से ग्रस्त हो गए हैं।

    इसी संग्रह में ‘इज्जत’ और  ‘भेड़िया’ जैसी  लघुकथाएँ भी हैं, जिसमें घरों और परिचितों के द्वारा  होने वाले शोषण  की कथा कही गई है ।उम्रदराज़ और निकटवर्ती लोगों की कलुषित मानसिकता आतंकित करने वाली है। ये लघुकथाएँ  पुरुषों के वेश में छुपे भेड़ियों की शिनाख़्त कराती हैं ।‘इज़्ज़त’ में वह कोई और नहीं पिता ही है तथा ‘भेड़िया’  में उम्रदाज़ अंकल ।ये मनोरोगी पता नहीं कितने जीवन को नारकीय बना रहे हैं ! आज के क्रूर समाज में ये लघुकथाएँ सावधान भी करती हैं ;लेकिन टूटते भरोसे के कारण  साथ ही डराती भी हैं।

    प्रत्येक लघुकथा में सुदर्शन रत्नाकर जी का समाजबोध , मानवीय संवेदना पाठक को बाँध लेती है।  सभी पात्र हमारे रोज़मर्रा के जीवन में कहीं न कहीं नज़र आ जाते हैं । मेरा दृढ़ विश्वास है कि‘साँझा दर्द’ लघुकथा संग्रह अपने विषय वैविध्य और विशिष्ट प्रस्तुति के कारण पाठकों में अपना स्थान बनाएगा  ।

[साँझा दर्द’ :सुदर्शन रत्नाकर,पृष्ठ संख्या : 136 ;मूल्य: ₹325,
प्रकाशक  इतिहास शोध संस्थान , भूलभुलैंयाँ रोड, महरोली । नई दिल्ली]


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