श्यामसुन्दरअग्रवाल पंजाबी-हिन्दी लघुकथा जगत के चर्चित तथा प्रतिष्ठित हस्ताक्षरहैं। विगत तीस-चालीस वर्षों से अहर्निश अपने निरपेक्ष अवदानों के जरियेलघुकथा को इस नाम ने जो विशेष पहचान दी है, उसके सम्पूर्ण सिलसिलेवारब्यौरे को शब्दों में बांधना गहरे और विस्तृत दरिया पर बांध बांधने जैसीदुष्कर या असम्भावित कल्पना है। कोई भी रचनाकार महज इसलिये महत्वपूर्ण नहींहोता है कि अपने सृजन के जरिये उसने ऊँचाइयाँ हासिल की हैं; प्रत्युत इसलिएहोता है कि उसने समकालीन या संभावनामय सृजकों को अपना हमसफ़र बनाकरऊँचाइयाँ छूने में विशेष सुकून महसूस किया है। बरसों-बरस से दूर-दूर सेमेरी निगाह श्यामसुन्दर अग्रवाल के चेहरे पर अंकित इसी इबारत को पढ़ती आईहैं।
श्यामसुन्दर अग्रवाल इसलिए तो पहचाने ही जाते हैं कि उन्होंनेहिन्दी-पंजाबी में श्रेष्ठ लघुकथाएँ सृजित की हैं किन्तु इसके अतिरिक्तउन्होंने लघुकथा-विकास में जो विशेष और अनूठी भूमिकाएँ अदा की हैं या कररहे हैं वह उन्हें और केवल उन्हें अन्य रचनाकारों की अपेक्षा अलग पंक्तिमें खड़ा होने का हकदार बनाती है।
करीब तीस वर्षों से पंजाबी भाषा में प्रकाशित ‘मिन्नी’पत्रिकाके बतौर सम्पादक/प्रकाशक इन्होंने द्विभाषी सेतु का आकार ग्रहण करहिन्दी-पंजाबी लघुकथा लेखकों को एक-दूसरे तक रचनात्मक-पाँवों के जरियेपहुँचाने का कार्य कर अद्भुत मिसाल कायम की है। पत्रिका-मंच के अतिरिक्तभाषायी अनुवाद केवल पत्र-पत्रिकाओं के लिए ही नहीं, अग्रवाल जी नेपंजाबी-हिन्दी रचनाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं के रूप में भी किया है।यहअंकित करना प्रासंगिक होगा, कि कथा-साहित्य का भाषायी अनुवाद कठोर तपस्याके दौर से गुजरने जैसा दुष्कर रचनात्मक कर्म है। कथा-बीज को पल्लवित करनेके लिए भाषा के मूल-लेखक को पात्र की सम्पूर्ण स्थितियों को खंगालने के लिएउसकी काया में प्रवेश करना होता है और अनुवादक को दोहरी परकाया में।अनुवादक के लिए ज़रूरी होता है कि जिस भाषा के पाठकों हेतु अनुवाद किया जारहा है, वह उसकी सम्पूर्ण ग्राह्य मानसिकता के अनुरूप हो। जाहिर है इसकसौटी पर अनुवादक श्यामसुन्दर अग्रवाल खरे साबित होने में कामयाब हुए हैं।सबूत है उनकी पाँच सौ से अधिक लघुकथाएँ तथा अनेक अनुवादित एकललघुकथा-संग्रह।
वर्षों से अग्रवाल जी के मौन अवदान के बारे में मस्तिष्क और हृदयमें खलबली मचाने वाले उपर्युक्त विचारों को शब्दबद्ध करने कीप्रेरणा-पृष्ठभूमि का श्रेय उनके हालिया प्रकाशित लघुकथा-संग्रह ‘‘बेटी काहिस्सा’’को देना चाहूँगा। वैसे पंजाबी-भाषा में श्यामसुन्दर अग्रवाल के दोएकल संग्रह ‘‘नंगे लोका दां फिक्र’’तथा ‘‘मरुथल दे वासी’’प्रकाशित होचुके हैं किन्तु हिन्दी में उनका यह प्रथम संग्रह है।
बहुप्रतीक्षित ‘‘बेटी का हिस्सा’’लघुकथा संग्रह की एक सौ बीसलघुकथाएँ अपनी तासीर और तेवर के आईने में रचनाकाल के विभिन्न कालखण्डों केचेहरे से परिचित कराती हैं। अन्तर्मन को गहरे से साहित्यिक सामाजिकसरोकारों के सन्दर्भ में मथने वाले क्षण-विशेष में कौंधने वाले भाव, घटनाया विचार-वैशिष्ट्य से अद्भुत कथा-बीज का इन रचनाओं में पल्लवन हुआ है।

रचनाओं का अन्तर्वस्तु-संसार विस्तृत है। परिवार-समाज केपात्रों-घटनाओं से देश के विभिन्न परिदृश्यों-स्थितियों के तमामकैमराई-चित्र इन लघुकथाओं में विद्यमान हैं। संग्रह में गहरे से पैठ लगानेपर जाहिर होता है कि संग्रह-संयोजन विषयों की विविधता के मद्देनज़र किया गयाहै। संतुलन और कथ्यानुसार रचाव इन लघुकथाओं की विशेषता है। इन समस्तप्रारम्भिक विचारगत प्रतिक्रिया के संदर्भ में जरूरी है कि इस ‘बेटी काहिस्सा’संग्रह की शताधिक लघुकथाओं में से बतौर बानगी खंगाली गई चंद रचनाओंके रचनाकौशल से दो-चार होने का प्रयास किया जाय।
जीवन में प्रतिदिन घटित होने वाले कुछ प्रसंग या अनुभवों कोश्यामसुन्दर अग्रवाल ने इस प्रकार कथा-आकार दिया है कि उसमें निहित अर्थगाम्भीर्य रोचकता, लाक्षणिकता के साथ संदेश देते संत जैसा महसूस होता है।‘उत्सव’, ‘कोठी नम्बर छप्पन’, ‘चिड़ियाघर’रचनाएँ मीडिया तथा नई पीढ़ी कीभाषा के प्रति उपेक्षा या रुझान को चुटीली भाषा में प्रस्तुत करती हैं।बोरवेल में गिरा बच्चा खबरची के लिए उत्सव तथा ग्राम्य-जीवन में शिक्षा कीस्थिति जैसी गम्भीर खबरों के प्रति मीडिया की दृष्टि को जहाँ एक ओर इनलघुकथाओं में बुना गया है, वहीं दूसरी ओर कोठी को छप्पन की बजाय फिफ्टीसिक्स नहीं कहने पर बालक के संस्कारों को प्रकारान्तर से सामने लाने कीकोशिश की गई है। ‘गिद्ध’, ‘छुट्टी’, ‘टूटा हुआ काँच’जैसी अनेक लघुकथाएँऐसी ही पृष्ठभूमि पर रची गई हैं। ‘तीस वर्ष बाद’प्यार की बहुत ही प्यारीरचना है, जिसकी दीपी, नरेश को ही नहीं पाठक को भी झकझोरकर खड़ा कर देती है।इस लघुकथा को पढ़ने एवं विचार करते हुए सायास मेरी आँखों के सामने ‘उसने कहाथा’कहानी के लहना और सूबेदारिन की चित्र-कथा उभर आई। ‘भिाखरिन’और ‘वहीआदमी’को भी इसी श्रेणी में शुमार किया जा सकता है।
‘शहीद की वापसी’, ‘दानी’, ‘मुर्द’, ‘वर्दी’, ‘चमत्कार’, ‘सरकारीमेहमान’तथा चर्चित लघुकथा ‘मरूथल के वासी’लोकशाही बनाम राजशाही, न्याय-व्यवस्था, प्रशासनिक स्थितियाँ, धार्मिक-आडम्बर, अराजकता, राष्ट्रप्रेम का खामियाजा जैसी शाश्वत प्रतिध्वनियों के विभिन्न स्वरूप इनऔर अन्य लघुकथाओं में मिलते हैं। राम का रूप धरे बहुरुपिये राजनेता कीविसंगत मानसिकता या स्वार्थ के विरुद्ध उनके असली चेहरे को पहचान कर अब सबकसिखाना जरूरी हो गया है। ‘रावण’के बंदीमुक्त कैदी द्वारा मंत्री जी काकत्ल शायद इसीलिए किया जाता है। ‘रावण जिन्दा है’लघुकथा भी इसी लीक पर रचीगई रचनाओं की मिसाल है।
लोक-जीवन तथा देशज-संस्कृति पर कमोबेश संग्रह में जितनी भीलघुकथाओं से श्यामसुन्दर अग्रवाल ने रू-ब-रू कराया है, उनसे गुजरते हुएसायास मेरी पढ़ी हुई विजयदान देथा, मधुकर सिंह, मिथिलेश्वर, माधव नागदा, भालचन्द्र जोशी की कहानियाँ तथा भगीरथ, रत्नकुमार सांभरिया, सिद्धेश्वर, रामकुमार आत्रेय, मधुकांत, कृष्णचन्द्र महादेविया की लघुकथाएं यादों मेंउभरती गईं।
रिश्ते फिर चाहे वे पारिवारिक, पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों यामानवीय पक्ष से सम्बन्धित हों, रचते हुए, अहसास होता है मानो अग्रवाल जी नेउनमें अपने आपको तिरोहित कर दिया है। संवेदना से भरपूर आत्मीय-प्यार सेलबरेज इन लघुकथाओं के जीवन पात्र रिश्तों की अहमियत से परिचित कराते हैं।पति-पत्नी, सास-बहू, पुत्र-पुत्री, पिता-माँ-बहन जैसे रिश्ताई नामों कीसार्थकता के साथ लघुकथाएँ उनके अर्थ को प्रकारान्तर से परिभाषित भी करतीहैं। दृष्टव्य है ऐसी ही रचनाओं के तेज-धु्रधले कुछ अक्स-
भौतिकवादी तथा आत्मकेन्द्रित बदलते जीवन-मूल्यों के माहौल में आजजब पुरानी पीढ़ी को वस्तु समझकर परिवार से निष्कासित या उपेक्षित किया जारहा है, तब ये लघुकथाएँ उस मानसिकता को खारिज कर, परिवार में उनके महत्व औरजीवन में भावनात्मक लगाव का आगाज करती हैं।
‘माँ का कमरा’, ‘यादगार’लघुकथाएँ इस सन्दर्भ में बेहतर प्रमाण केरूप में देखी जा सकती हैं। दोनों ही रचनाओं के बेटे आधुनिक जीवन शैली याजिसे कार्पोरेट-कल्चर कहा जाना चाहिए, से जुड़े हुए होने के बावजूद माँ केभाल पर सम्मान का तिलक लगाते हुए विशाल कोठी में उसके लिए सर्वसुविधायुक्तकमरा या याद बनाए रखने वाले स्कूल का निर्माण करते हैं। शीर्षक रचना ‘बेटीका हिस्सा’भी इसी किस्म की लघुकथा है, जिसमें सम्पत्ति के बंटवारे मेंबेटी हिस्से के रूप में माँ-बाप को सेवाधन के रूप में प्राप्त करना चाहतीहै। बुजुर्ग-ज़िन्दगी के इर्द-गिर्द रची रचनाओं में सामान्य कथ्यों से इतरबरवस ध्यान आकृष्ट करने वाली लघुकथाएँ हैं- ‘अनमोल खजाना’, ‘टूटी हुईट्रे’, ‘बेड़ियाँ’तथा ऐसी ही अन्य। ‘बारह बच्चों की माँ’मातृत्व कीबेहतरीन तस्वीर प्रस्तुत करती रचना है, जिसमेें घरेलू विधवा नौकरानी काअपने ही परिवार के अनाथ बच्चों का पालन-पोषण हेतु निरन्तर जद्दोजहद सेगुजरते रहने का उल्लेख है।
प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’से अब तक परम्परा रूप में चले आ रहेपरिवारों में वृद्धों की उपेक्षा विषयवस्तु को श्यामसुन्दर अग्रवाल केभावुक मन ने संवेदना लिप्त शब्दों के साथ ‘साझा दर्द’, ‘अपना-अपना दर्द’, ‘माँ’, ‘पुण्य कर्म’रचनाओं में तराशा है। दहेज, वैवाहिक-मानदंड, सास-बहुओंके मधुर-कटु सम्बन्ध भी संग्रह में मौजूद हैं। लब्बोलुआब यह है किपारिवारिक-जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख को अग्रवाल जीकी पैनी नज़र ने देखकर शब्दों में बांधा है। पति-पत्नी, सम्बन्धों के एल्बममें आधुनिक-बोध से परिचित कराता ‘एक उज्ज्वल लड़की’शीर्षक चित्र मौजूद है, जो यह कहना चाहता है कि आधुनिक चकाचौंध के वातावरण में मधुर सम्बन्ध बनायेरखने के लिए विश्वास, आत्म मंथन तथा प्रायश्चित ज़रूरी है। मेरी भी ऐसी हीएक लघुकथा ‘समकालीन सौ लघुकथाएँ’संग्रह में ‘गंगाजल’शीर्षक से संग्रहीतहै।
संग्रह में वे लघुकथाएँ अधिक प्रभावशाली बन पड़ी हैं, जोस्वार्थजनित रिश्तों को चुनौती देते हुए सहयोग, सौहार्द तथा मानवीय पक्षमें खड़ी हैं। ट्रेन मे सफर करते हुए युवक का वृद्धयात्री को सहयोग करते हुएविदा होते हुए यह कहना कि आप तो मेरे पिता के बॉस रहे हैं, कृतज्ञता भावकी कायमी का संकेत है। ‘सेवक’के मजिस्ट्रेट साहब भी तकरीबन ऐसी ही मुद्रामें सामने खड़े होते दिखते हैं। ‘बेटा’, ‘सिपाही’, ‘कर्ज’या ‘दानी’लघुकथाएँ मानवीय पक्ष, सकारात्मक सोच तथा आदमी को आदमी से जोड़ने का आगाजकरती हैं।
अधिकांश लघुकथाओं में साहित्यिक-आस्वाद की दृष्टि से इतनी शक्तिहै कि वे पाठक को अंतिम छोर तक साथ सफर करने के लिए मजबूर करती हैं। जहाँरचना समाप्त होती है, वहाँ से पाठक एकदम आगे नहीं बढ़ता, ठहरता, सोचता है।आशय लघुकथा चिंतन की सोच के साथ पाठक से रिश्ता कायम कर लेती है।
कथावस्तु के विभिन्न आयाम सग्रह में विद्यमान हैं। ‘अन्तर्वस्तुकिसी भी कालखण्ड की हो यदि उसे भविष्य के गवाक्ष से देख-परखकर तराशा गया हैतो वह काल की सीमा की अपेक्षा कालातीत होने का दावा करती है।’’रचना कीअस्मिता का यह सूत्र-वाक्य श्यामसुन्दर अग्रवाल के लेखन पर चस्पा किया जानाउनकी साधना का निरपेक्ष मूल्यांकन होगा।
कथ्य-प्रवाह, भाषा सौष्ठवता तथा सम्प्रेष्य क्षमता के मद्देनजर येलघुकथाएँ बेमिसाल हैं। बनावट-बुनावट के अलावा इनका शिल्प-पक्ष, भाषायीलालित्य आज लिखी जा रही या लिखी गई लघुकथाओं से अलहदा है। इसे यूँ भी कहाजा सकता है कि श्रेष्ठ लघुकथाओं की रचना-प्रक्रिया की चर्चा जब कभी होगी, इन लघुकथाओं को बतौर मिसाल याद किया जायेगा।
मुझे विश्वास है नई दस्तक के साथ आया यह संग्रह का साहित्य-जगतमें अपना विशेष स्थान एवं पहचान बनाने में कामयाब हो सकेगा। लघुकथा-संसारको इस महत्वपूर्ण भेंट के लिए श्यामसुन्दर अग्रवाल बिना किसी व्यक्तिगतव्यामोह के धन्यवाद के पात्र हैं।
बेटी का हिस्सा: लघुकथा संग्रह: श्यामसुन्दर अग्रवाल। प्रकाशक: राही प्रकाशन, दिल्ली। मूल्य: रु.350/-। संस्करण: 2014, पृष्ठ: 168
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